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दरअसल : हिंदी समाज और मिजाज की ‘अनारकली....’

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दरअसल... हिंदी समाज और मिजाज की ‘ अनारकली.... ’ -अजय ब्रह्मात्‍मज एक साल हो गया। पिछले साल 24 मार्च को अविनाश दास की ‘ अनारकली ऑफ आरा ’ रिलीज हुई थी। प्रिंट और टीवी पत्रकारिता की लंबी सफल पारी के दौरान िही अविनाश दास ने तय कर लिया था कि वह फिल्‍म निर्देशन में हाथ आजमाएंगे। जब आप सुनिश्चित और पूरी तरह अाश्‍वस्‍त न हों तो इसे आजमाना ही कहते हैं। उनके मित्रों और रिश्‍तेदारों के लिए उनका यह खयाल और फैसला चौंकाने वाला था कि उम्र के इस पड़ाव पर नई कोशिश की घुप्‍प सुरंग में घुसना करिअर और जिंदगी को दांव पर लगाना है। सुरंग कितनी लंबी और सिहरनों से भरी होगी और उस पार रोशनी में खुलेगी या गुफा में तब्‍दील होकर गहरे अंधेरे में खो जाएगी। कुछ भी नहीं पता था , लेकिन अविनाश के लिए तो फैज अहमद फैज की पंक्तियां दीपस्‍तंभ थीं... यह बाजी इश्क की बाजी है जो चाहे लगा दो डर कैसा गर जीत गये तो कहना क्या , हारे भी तो बाजी मात नही। फिल्‍मी फैशन में अपनी मेहनत और ल्रगन को कहीं अविनाश दास भी भाग्‍य ना समझते हों। सच्‍चाई यह है कि जीवन के लंबे अनुभव , समाज की गहरी समझदारी और ईमानदार तैयारी के