फिल्म समीक्षा : रुस्तम
-अजय ब्रह्मात्मज 1963 की ‘ ये रास्ते हैं प्यार के ’ और 1973 की ‘ अचानक ’ से भिन्न है ‘ रुस्तम ’ । ‘ रुस्तम ’ की प्रेरणा छठे दशक के नौसेना अधिकारी के जीवन से भले ही ली गई हो,पर इसे टीनू सुरेश देसाई ने लेखक विपुल के रावल के साथ मिल कर विस्तार दिया है। फिल्म में 1961 की यह कहानी छल,धोखा,बदला और हत्या से आगे बढ़ कर एक ईमानदार नौसेना अधिकारी के देशप्रेम और राष्ट्रभक्ति को छूती हुई उस दौर की मुंबई के परिवेश को भी दर्शाती है। तब मुंबई कां बंबई कहते थे और शहर में पारसी और सिंधी समुदाय का दबदबा था। फिल्म में कलाकारों के भूमिका से पहले इस फिल्म के प्रोडक्शन से जुड़े व्यक्तियों के योगदान को रेखांकित किया जाना चाहिए। 1961 की मुंबई का परिवेश रचने में कठिनाइयां रही होंगी। हालांकि वीएफएक्स से मदद मिल जाती है,लेकिल तत्कालीन वास्तु और वाहनों को रचना,जुटाना और दिखाना मुश्किल काम है। प्रोडक्शन डिजायन प्रिया सुहास का है। आर्ट डायरेक्टर विजय घोड़के और अब्दुल हमीद ने बंबई को फिल्म की जरूरत के हिसाब से तब का विश्वसनीय परिवेश दिया है। सेट को सजाने का काम केसी विलियम्स न