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Showing posts from 2007

सुशांत सिंह:अक्षत प्रतिभा

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सत्या के पकिया ,कौन के चोर और जंगल के दुर्गाशंकर चौधरी...इन तीन फिल्मों के बाद ही दर्शकों ने सुशांत सिंह को पहचान लिया था.फिल्म इंडस्ट्री ने तो पहली ही फिल्म सत्या में महसूस कर लिया था कि एक प्रतिभा आ चुकी है.राम गोपाल वर्मा उन दिनों जिस ऐक्टर को छू देते थे उसे फिल्म इंडस्ट्री स्वीकार कर लेती थी.सुशांत सिंह के बारे में भी माना जा रहा था कि जंगल के बाद उनके पास काम की कमी नहीं रहेगी.संयोग कुछ ऐसा बना कि जंगल से फरदीन खान का कैरीअर तो सही ट्रैक पर आ गया,लेकिन जिसके बारे में उम्मीद की जा रही थी,उसे लोगों ने नज़रअंदाज कर दिया.चवन्नी को याद है कि जंगल की छोटी भूमिका को लेकर ही राजपाल यादव कितने उत्साहित थे.उनके उत्साह का असर ही था कि वे जल्दी ही मशहूर हो गए और अपनी एक जगह भी बना ली.आज वे पैसे और नाम के हिसाब से सुखी हैं,लेकिन काम के हिसाब से,,,?राजपाल ही सही-सही बता सकते हैं। अरे हम बात तो सुशांत सिंह की कर रहे थे.सुशांत को जंगल से झटका लगा होगा.यों कहें कि उनके पांव के नीचे की कालीन लेकर राजपाल यादव ले उड़े.सुशांत निराश भी हुए होंगे,लेकिन वे टूटे नहीं.चवन्नी की उनसे समय-समय पर मुलाक़ात होती

रिटर्न आफ हनुमान: निराश करती है फिल्म

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-अजय ब्रह्मात्मज दर्शकों का ध्यान खींचने के लिए रिटर्न आफ हनुमान के निर्माताओं ने पापुलर हो चुकी एनीमेशन फिल्म हनुमान की छवि का भरपूर इस्तेमाल किया। फिल्म देखने गए। अचानक पर्दे पर दिखा कि रिटर्न आफ हनुमान सिक्वल के तौर पर नहीं बनाई गई है। यह पूरी तरह से काल्पनिक कहानी है। चलिए मान लिया कि काल्पनिक कहानी है तो कल्पना के घोड़े कुछ मामलों में क्यों ठिठक गए? रिटर्न आफ हनुमान के मारुति को बगैर पूंछ के भी दिखाया जा सकता था। मिथक और फैंटेसी का घालमेल बच्चों को कन्फ्यूज करता है। फिल्म में मनोरंजन है, लेकिन वह एनीमेशन और मारुति के चमत्कारी कारनामों के कारण है। मारुति की कहानी को मिथ से जोड़कर दिखाने की वजह महज इतनी रही होगी कि दर्शक उसके कारनामों पर यकीन कर सकें। एनीमेशन फिल्मों में इतिहास और मिथ से हीरो तलाशने की कोशिश जारी है। पहली बार हनुमान देखने के बाद लगा था कि बाल हनुमान के रूप में हीरो मिल गया है, लेकिन मारुति अवतार में बाल हनुमान जंचते नहीं हैं। फिल्म में हिंदी फिल्मों के मशहूर कलाकारों की आवाजों की मिमिक्री का तुक भी समझ में नहीं आया। कहीं रिटर्न आफ हनुमान वैसे शहरी बच्चों के लिए त

औसत से भी नीचे है शोबिज

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-अजय ब्रह्मात्मज हिंदी फिल्मों में मीडिया निशाने पर है। शोबिज इस साल आई तीसरी फिल्म है, जिसमें मीडिया की बुराइयों को दर्शाया गया है। शोबिज समेत तीनों ही फिल्में मीडिया की कमियों को ऊपर-ऊपर से ही टच कर पाती हैं। रोहन आर्य (तुषार जलोटा) अचानक स्टार बन जाता है। आरंभ में ही इस स्टार की शरद राजपूत (सुशांत सिंह) नामक पत्रकार से बकझक हो जाती है। शरद राजपूत कैसे पत्रकार हैं कि तस्वीरें भी खीचते हैं और टीवी चैनलों में भी दखल रखते हैं। बहरहाल, उन दोनों की आपसी लड़ाई में कहानी आगे बढ़ती है और एक नाटकीय मोड़ लेती है। रोहन की कार में पत्रकार एक लड़की को देखते हैं। वो उसका पीछा करते हैं। पत्रकारिता में आए कथित पतन के बावजूद पत्रकार शोबिज के पत्रकारों जैसी ओछी हरकत नहीं करते। बहरहाल, कार दुर्घटनाग्रस्त हो जाती है। पता चलता है कि कार में रोहन के साथ तारा नाम की वेश्या थी। बड़ा स्कैंडल बनता है, लेकिन रोहन पूरे मामले को अपने हाथ में लेता है। हिंदी फिल्मों का हीरो है न ़ ़ ़ वह अकेले ही मीडिया से टकराता है और आखिरी दृश्य में मीडिया की भूमिका पर एक प्रवचन भी देता है। शोबिज किसी भी स्तर पर प्रभावित नहीं क

आख़िरी शुक्रवार,२८ अक्तूबर, २००७

साल का आख़िरी शुक्रवार चवन्नी को दुखी कर गया.कैसे? अनुराग कश्यप और महेश भट्ट दोनों चवन्नी को प्रिय हैं.अनुराग के पैशन और समर्पण का चवन्नी कायल है.यही कारण है कि चवन्नी अनुराग की बातों को यहाँ लाता रहा है.आज अनुराग कश्यप ने बहुत निराश किया.रिटर्न ऑफ़ हनुमान के लेखक-निर्देशक हैं अनुराग कश्यप.इस फिल्म में वे पूरी तरह से निराश करते हैं.चवन्नी ने फिल्म देखी और बेहद उदास हो गया.आख़िर क्या सोच कर अनुराग ने यह फिल्म लिखी और निर्देशित की.और अगर की तो पूरा ध्यान क्यों नहीं दिया?यह फिल्म अनुराग कश्यप के नाम पर धब्बा हो गयी। चवन्नी को महेश भट्ट अपनी साफगोई और बेलौस बयानों के कारन पसंद हैं.वे दो तरह की बातें नहीं करते.उनकी फिल्म शोबिज़ आज रिलीज हुई है.इसे किसी राजू खान ने निर्देशित की है.भट्ट कैंप से इतनी बुरी फिल्म की उम्मीद चवन्नी नहीं कर सकता.फिल्म मीडिया की भूमिका और रवैये पर सवाल उठाती है ,लेकिन सब कुछ इतना सतही और ऊपरी है कि सच्चाई की झलक भी नही मिल पाती।

कुछ अलग और उल्लेखनीय फिल्में

-अजय ब्रह्मात्मज नए विषय, नए प्रयोग या प्रस्तुति की नवीनता को हमेशा अपेक्षित सराहना नहीं मिलती, क्योंकि कई बार दर्शक भी उन्हें नकार देते हैं, लेकिन एक अरसा गुजरने के बाद हम उन फिल्मों को दोबारा जब देखते हैं, तो उनका महत्व समझ में आता है। इसके साथ कुछ ऐसी फिल्में भी होती हैं, जिनसे कोई अपेक्षा नहीं रहती, लेकिन दर्शक उनसे अभिभूत नजर आते हैं। जीवन के दूसरे क्षेत्रों की तरह फिल्मों के विकास का भी यही मंत्र है। पुरानी चीजें छूटती हैं और नई कोशिशें जुड़ती हैं। इस साल सबसे ज्यादा चर्चा भेजा फ्राई की हुई। छोटे बजट में मामूली एक्टरों को लेकर बनी यह फिल्म शहरी दर्शकों को खूब पसंद आई। इस फिल्म में शहरी ऊब, घुटन और हास्य को नए तरीके से पेश किया गया था। फिल्म ने कई स्तरों पर शहरी दर्शकों को लुभाया। गौर करें, तो यह फिल्म छोटे शहरों और सिंगल स्क्रीन थिएटरों में बिल्कुल नहीं चली, लेकिन मल्टीप्लेक्स से मिले व्यापार ने इसे उल्लेखनीय फिल्म बना दिया। अनुराग कश्यप की नो स्मोकिंग की तीखी आलोचना हुई और समीक्षकों ने उसे सहज रूप में नहीं लिया। अनुराग के प्रति कठोर रवैया अपनाते हुए समीक्षकों ने इस फिल्म को धो ड

सलमान खान का सदाचार

चवन्नी चकित है.हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री के सितारे चौंकाते ही रहते हैं.कभी अपने काम से तो कभी अपने दाम से.चवन्नी को मालूम है कि देश और विदेश में सलमान खान के करोडों दीवाने हैं.उन सभी को सलमान खान में कभी कोई बुराई नहीं दिखती है.सलमान खान कई विवादों और कानूनी उलझनों में फँसे हैं.सच्चाई केवल सलमान खान ही जानते हैं। बहरहाल सलमान खान आज अपने जीवन के ४२ वसंत पूरे कर रहे हैं.उम्र के इस मोड़ पर उन्हें एहसास हुआ है कि समाज ने उन्हें बहुत कुछ दिया है.अब वक़्त आ गया है कि वे भी समाज को कुछ दें.चैरिटी वे करते रहते हैं.दयालु स्वाभाव के हैं और मददगार की उनकी छवि काफी मशहूर है. कहा तो यह भी जाता है कि उनके घर आया कोई भी ज़रूरतमंद खाली हाथ नहीं लौटता.वे उसे खाना खिलाना और ठंडा पानी पिलाना भी नहीं भूलते। सलमान खान ने सामाजिक काम के लिए एक संस्था शुरू करने की सोची है.इस संस्था का नाम है बिईंग ह्यूमन फाउंडेशन.इस संस्था का एक वेब साइट होगा.उस साइट पर सलमान खान की पेंटिंग्स,स्केच,फिल्मों में पहने गए कपडे और अन्य प्रकार के आँटोग्राफ किये निजी सामान होंगे.वहाँ से उनकी नीलामी की जायेगी और नीलामी से मिले पैसों क

चवन्नी सर्वेक्षण-२००७ सर्वोतम फिल्म

साल ख़त्म होने जा रहा है.चवन्नी अपनी तरफ से किसी फिल्म का नाम नहीं लिख रहा है.चवन्नी की चाहत है कि ब्लॉग लिखने-पढ़ने वाले फिल्मों के दर्शक अपनी राय यहाँ लिखें.यह राय टिप्पणी के रुप में दी जा सकती है. ब्लॉगर जनमत जानने की सुविधा देता है,लेकिन वहाँ चवन्नी को पहले कुछ नाम लिखने पड़ते.चवन्नी नहीं चाहता कि आप चंद विकल्पों में फँसें। तो आइये इस आयोजन में हिस्सा लें और अपनी पसंद जाहिर करें। उम्मीद है आप चवन्नी को निराश नहीं करेंगे.

चमके तारे ज़मीन पर

-अजय ब्रह्मात्मज तारे जमीन पर में आमिर खान तीन भूमिकाओं में हैं। इस फिल्म में अभिनय करने के साथ ही वह निर्माता और निर्देशक भी हैं। निर्देशक के रूप में यह उनकी पहली फिल्म है। पहली फिल्म में ही वह साबित करते हैं कि निर्देशन पर उनकी पकड़ किसी अनुभवी से कम नहीं है। वैसे उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत निर्देशन से ही की थी। तारे जमीन पर न तो बच्चों की फिल्म है और न सिर्फ बच्चों के लिए बनायी गई है। यह बच्चों को लेकर बनायी गई फिल्म है, जो बच्चों को देखने और समझने का नजरिया बदलती है। निश्चित ही इस फिल्म को देखने के बाद दर्शक अपने परिवार और पड़ोसी के बच्चों की खासियत समझने की कोशिश करेंगे। आमिर खान ने तारे जमीन पर में यह जरूरी सामाजिक संदेश रोचक तरीके से दिया है। तारे जमीन पर ईशान अवस्थी की कहानी है। ईशान का पढ़ने-लिखने में कम मन लगता है। वह प्रकृति की अन्य चीजों जैसे पानी, मछली, बारिश, कुत्ते, रंग, पतंग आदि में ज्यादा रुचि लेता है। उसके इन गुणों को न तो शिक्षक पहचान पाते हैं और न माता-पिता। उन्हें लगता है कि ईशान अनुशासित नहीं है, इसलिए पढ़ाई पर ध्यान नहीं दे रहा है। ईशान के माता-पिता उसे अनुशा

वेलकम-रोचक आइडिया, नाकाम कोशिश

-अजय ब्रह्मात्मज वेलकम का तामझाम भव्य और आकर्षक है। एक साथ नए-पुराने मिला कर आधा दर्जन स्टार, एक हिट डायरेक्टर और उसके ऊपर से हिट प्रोडयूसर ़ ़ ़ फिल्म फील भी दे रही थी कि अच्छी कामेडी देखने को मिलेगी, लेकिन वेलकम ऊंची दुकान, फीका पकवान का मुहावरा चरितार्थ करती है। फिल्म का आइडिया रोचक है। दो माफिया डान हैं उदय शेट्टी और मंजनू। वो अपनी बहन की शादी किसी ऐसे लड़के से करना चाहते हैं, जो सीधा-सादा नेक इंसान हो। उनकी हर कोशिश बेकार जाती है, क्योंकि कोई भी शरीफ खानदान उनके परिवार से रिश्तेदारी नहीं चाहता। तीन संयोग बनते हैं। तीनों ही संयोगों में संजना और राजीव की जोड़ी बनती है। पहले संयोग में मंजनू को राजीव पसंद आता है। वह राजीव के मामा से रिश्ते की बात करता है। दूसरे संयोग में राजीव और संजना के बीच प्यार हो जाता है। तीसरे संयोग में मामा को राजीव के लिए संजना पसंद आती है। इस छोटी और अतिरेकी कहानी को लेखक-निर्देशक ने इतना लंबा खींचा कि फिल्म कमजोर पड़ जाती है। हंसी पैदा करने के लिए जोड़ी गई घटनाएं अलग प्रसंगों के तौर पर तो हंसाती हैं, पर कहानी में कुछ जोड़ नहीं पातीं। वेलकम बिखरी हुई कामेडी

मुम्बई में भटकते रहे दर्शक

मालूम नही आप के शहर में क्या हाल रहा?मुम्बई में तो बुरा हाल था?सारे सिंगल स्क्रीन टूट रहे हैं और उनकी जगह मल्टीप्लेक्स आ रहे हैं.इसे अच्छी तब्दीली के रुप में देखा जा रहा है,जबकि टिकट महंगे होने से चवन्नी की बिरादरी के दर्शकों की तकलीफ बढ़ गयी है.उनकी औकात से बाहर होता जा रहा है सिनेमा.आज उनके लिए थोड़ी ख़ुशी की बात थी,क्योंकि मल्टीप्लेक्स के आदी हो चुके दर्शकों को आज सिंगल स्क्रीन की शरण लेनी पड़ी। हुआ यों कि मल्टीप्लेक्स और निर्माताओं के बीच मुनाफे की बाँट का मामला आज दोपहर तक नहीं सुलझ पाने के कारण किसी भी मल्टीप्लेक्स में तारे ज़मीन पर और वेलकम नहीं लगी.चूंकि पीवीआर के बिजली बंधु तारे ज़मीन पर के सहयोगी निर्माता थे,इसलिए उनके मल्टीप्लेक्स में वह फिल्म लगी.वहाँ भी वेलकम को लेकर असमंजस बना रहा.दर्शकों को हर मल्टीप्लेक्स से निराश होकर आखिरकार सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर की शरण लेनी पड़ी.चवन्नी दो दिन पहले से टिकट लेने की कोशिश में लगा था.आज सुबह भी वह एक मल्टीप्लेक्स में पहुँचा तो बॉक्स ऑफिस पर बैठे कर्मचारी ने सलाह दी कि दो बजे आकर चेक करना.चवन्नी भला इतनी देर तक कैसे इंतज़ार करता.एक-एक कर वह

शुक्रवार,21 दिसम्बर,२००७

आज दो फिल्में रिलीज हो रही हैं.चवन्नी को लगता है कि एक मज्दार फिल्म है और दूसरी समझदार फिल्म है.अब आप तय करो कि पहले कौन सी देखने जा रहे हो.दो मिजाज की हैं फिमें,लेकिन अनुमान है कि दोनों मनोरंजक होंगी। पिछली बार चवन्नी के एक नियमित पाठक ने आदेश दिया था कि चवन्नी को फिल्म की सिफारिश करनी चाहिए और साफ-साफ बताना चाहिए कि फिल्म देखने जाएँ या न जाएँ?चवन्नी इस भरोसे का कायल हो गया है.दिक्कत यह होती है कि आप के मनोरंजन की १००% गारंटी वाली फिल्में ही तो नही आतीं। इस बार चवन्नी गारंटी के साथ कह सकता है कि आप आमिर खान की तारे ज़मीन पर देखने जाएँ.आप निराश नहीं होंगे.फिल्म आपको पहले से समझदार बना देगी और मनोरंजन होगा सो अलग.जी हाँ ,यकीन करें तारे ज़मीन पर पैसा वसूल फिल्म है.रोचक तथ्य यह है कि फिल्म का हीरो नया लड़का दर्शील सफारी है और आमिर खान ने फिल्म में उसे पूरी महत्ता दी है.आम तौर पर पॉपुलर हीरो दूसरों के रोल काटने में लगे रहते हैं.यहाँ आप देखेंगे कि कैसे आमिर ने स्क्रिप्ट की ज़रूरत के मुताबिक अपना रोल छोटा रखा है.चवन्नी इतनी बातें इस वजह से बता पा रहा है कि उसने फिल्म देख ली है। दूसरी फिल्म व

सिक्स पैक एब और एक्टिंग

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-अजय ब्रह्मात्मज पिछले दिनों आई फिल्म ओम शांति ओम की कामयाबी के बाद हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में शरीर को सुडौल बनाने का नया फैशन चल पड़ा है। संजय दत्त जेल से बाहर आए, तो घोषणा कर दी कि एट पैक एब बनाऊंगा। खबर है कि इन दिनों अजय देवगन भी गुपचुप उसी राह पर निकल पड़े हैं और एक पर्सनल ट्रेनर की देखरेख में वर्जिश भी कर रहे हैं। सुडौल शरीर की इस चिंता से लगने लगा है कि एक्टिंग के लिए शरीर का सुगठित होना जरूरी है। अभी के फैशन को देखकर कहा जा सकता है कि अगर दारा सिंह इन दिनों एक्टिव होते, तो सारी बड़ी फिल्में और मुख्य भूमिकाएं उन्हें ही मिलतीं! हिंदी फिल्मों का इतिहास पलट कर देखें, तो पाएंगे कि पॉपुलर स्टार और एक्टर्स ने कभी शरीर को इतना महत्व नहीं दिया। शाहरुख खान भी ओम शांति ओम के पहले शरीर की वजह से विख्यात नहीं थे। हां, उनकी अदम्य ऊर्जा की चर्चा अवश्य होती थी। के.एल. सहगल और पृथ्वीराज कपूर से लेकर रणबीर कपूर तक को देखें, तो हम पाएंगे कि भारतीय दर्शकों ने कभी स्टार या एक्टर के सुडौल शरीर को अधिक महत्व नहीं दिया। हिंदी फिल्मों के पॉपुलर स्टार अदाओं और अभिनय की वजह से मशहूर हुए। हां, हिंदी फिल्म

कुछ अफवाहें तारे ज़मीन पर को लेकर

आमिर खान चाहें न चाहें वह विवादों में रहने के लिए अभिशप्त हैं.उनकी सबसे बड़ी दिक्कत उनकी बिरादरी के ही लोग हैं.उन्हें लगता है कि उनके बीच रहते हुए यह आदमी कैसे बदल गया?वह उनकी तरह ही क्यों नही सोचता या उनके जैसा ही डरा हुआ क्यों नही रहता.और फिर बड़ी-बड़ी बातें क्यों करता है?निशित रुप से आमिर खान में बदलाव आया है.वे खुद इस बदलाव को घुलाम के समय से देखते हैं.उनके प्रशंसक भी मानते हैं कि सरफ़रोश के बाद आमिर की सोच और फिल्मों में गुणात्मक बदलाव आया है.बस यही कारण है कि सभी की निगाह आमिर पर लगी रहती है। देश का एक बड़ा मीडिया हाउस कुछ कारणों से आमिर खान को पसंद नही करता,क्योंकि आमिर ने दुसरे स्टारों की तरह उसके आगे घुटने नही टेके और न ही उनके द्वारा दिए जाने वाले पुरस्कार की परवाह की.यह मीडिया हाउस आमिर की फिल्म आते ही अफवाहों से नेगेटिव माहौल तैयार करता है.मंगल पण्डे के खिलाफ हवा बनने में इस मीडिया हाउस का हाथ रहा.आमिर के खिलाफ निगेटिव स्टोरी करने में अव्वल इस मीडिया हाउस से यह खबर उड़ी कि तारे ज़मीन पर खास लोगों की फिल्म है,इसलिए आम दर्शक इसे देखने नही जायेंगे.तारे ज़मीन पर को तथाकथित आर्ट

हल्ला बोल में दुष्यंत कुमार?

हल्ला बोल के निर्देशक राज कुमार संतोषी हैं.इस फिल्म के प्रति जिज्ञाशा बनी हुई है.पहले खबर आई थी कि इसमें सफदर हाशमी का संदर्भ है.बाद में पता चला कि नहीं सफदर तो नहीं हैं,हाँ जेसिका लाल के मामले से प्रेरणा ली गयी है.वास्तव में किस से प्रेरित और प्रभावित है हल्ला बोल ...यह ११ जनवरी को पता चलेगा.वैसे अजय देवगन को देख कर लगा रहा है कि गंगाजल और अपहरण की कड़ी की अगली फिल्म है। अरे,चवन्नी को तो दुष्यंत कुमार की बात करनी थी.आज ही इस फिल्म का ऑडियो सीडी ले आया चवन्नी.उस ने कहीं देखा था कि इस फिल्म के क्रेडिट में दुष्यंत कुमार का भी नाम है.फटाफट सीडी के ऊपर चिपका पन्नी फाड़ा और गीतों की सूची पढ़ गया चवन्नी.उसने दिमाग पर जोर दिया लेकिन किसी भी गीत के मुखड़े में दुष्यंत कुमार के शब्द नहीं दिखे.मजबूरन थोड़े सब्र का सहारा लेकर सीडी प्ले किया.पहले गीत के शब्दों में दुष्यंत कुमार का आभास हो रहा था,लेकिन परिचित अशआर नहीं मिल रहे थे.चवन्नी ने बेचैन होकर अपने मित्र को फ़ोन किया.उसे विश्वास था कि उन्हें ज़रूर पता होगा.उनहोंने कहा कि हाँ दुष्यंत कुमार की गज़लें ली गयी हैं.जब चवन्नी ने उन्हें बताया कि कोई परिच

भारतीय पुरूषों की कुरूपता

प्रिय पाठक चौंके नहीं कि चवन्नी को आज क्या सूझी? फिल्मों की दुनिया से निकल कर वह आज क्या कहने जा रहा है?चवन्नी को एक नई किताब हाथ लगी है.लेखक हैं मुकुल केसवन... चवन्नी के अंग्रेजी पाठक उनके नाम से परिचित होंगे.नयी दिल्ली के वासी मुकुल केसवन इतिहास पढ़ाते हैं aur हर लेखक की तरह सिनेमा,क्रिकेट और पॉलिटिक्स पर लिखते हैं.सिनेमा पर लिखने की छूट हर लेखक ले लेता है.उसके लिए अलग से कुछ पढाई करने की ज़रूरत कहाँ पड़ती है.हर भारतीय को सिनेमा घुट्टी में पिला दी जाती है.यकीं नही तो किसी से भी सिनेमा का ज़िक्र करें,अगर वह आपकी जानकारी में इजाफा न करे तो चवन्नी अपनी खनक खोने को तैयार है। बहरहाल,मुकुल केसवन की नयी किताब आई है.चवन्नी को नही मालूम कि उनकी कोई किताब पहले आई है कि नही?इस किताब का नाम उन्होने रखा है भारतीय पुरूषों की कुरूपता और अन्य सादृश्य॥(the ugliness of the indian male and other proportions)। इस किताब में उनहोंने विस्तार से पुरूषों की कुरूपता की चर्चा की है.अगर यह किताब किसी औरत ने लिखी होती तो शायद अभी तक मोर्चा निकल चूका होता,लेकिन यहाँ एक पुरुष ही अपने समूह को आईना दिखा रहा है.वह आगे ब

४४% की पसंद आमिर खान

चवन्नी के पाठकों में से ४४% को आमिर खान पसंद हैं। चवन्नी ने पिछले हफ्ते पूछा था कि आपका प्रिय स्टार कौन है?६ स्टारों के नाम थे.आमिर कान,सलमान खान,शाहरुख़ खान,रितिक रोशन.अक्षय कुमार और शाहिद कपूर। चवन्नी के पाठकों ने शाहिद कपूर और सलमान खान को सबसे नीचे रखा.शाहरुख़ खान और अक्षय कुमार को एक बराबर ११-११% मत मिले.हाँ रितिक रोशन दूसरे नुम्बेर पर रहे.उन्हें २२% पाठकों ने पसंद किया.अव्वल स्थान मिला आमिर खान को.उन्हें चवन्नी के ४४% पाठकों ने पसंद किया। आप भी अपनी पसंद दर्ज कर सकते हैं.

स्ट्रेंजर्स: भूली भटकी स्टाइलिश फिल्म

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-अजय ब्रह्मात्मज क्या सचमुच विदेश में बसे भारतीय वहां के समाज से अलग-थलग रहते हैं? क्या वे मिलते ही हिंदी में बातें करने लगते हैं? विदेश में पूरी तरह से शूट की गई हिंदी फिल्मों से जो तस्वीर बनती है, वह बिल्कुल सच्ची नहीं लगती। आनंद राय की स्ट्रेंजर्स भी ऐसी भूलों का शिकार हुई है। लंदन पहुंचने वाली एक ट्रेन के फ‌र्स्ट क्लास कूपे में दो भारतीय मूल के यात्री मिलते हैं। दोनों अजनबी हैं। उनकी आपस में बातचीत आरंभ होती है तो पता चलता है कि दोनों ही अपनी-अपनी बीवियों से तंग हैं। किसी भी प्रकार उनसे मुक्ति चाहते हैं। इंटरवल तक दोनों की योजना बनती है कि वो एक-दूसरे की बीवी की हत्या कर देंगे। पहली हत्या होती है और फिर हमें अजनबी व्यक्तियों के बीच अचानक सी लग रही घटना और योजना की असलियत मालूम होती है। फिल्म में कई सवाल अनुत्तरित हैं। अब पति-पत्नी के बीच तलाक बहुत अनहोनी बात नहीं रही। अगर राहुल और संजीव बीवियों से तंग थे तो उनसे छुटकारा पाने के लिए तलाक ले सकते थे। उन्होंने तलाक का रास्ता न चुन कर उन्हें हलाक करने की क्यों सोची? राहुल और प्रीति या संजीव और नंदिनी के संबंधों में प्रेम नहीं है, लेकि

'खोया खोया चांद' - रिलीज से ठीक पहले

(सुधीर मिश्र ने यह पोस्ट खोया खोया चांद की रिलीज से एक दिन पहले पैशन फॉर सिनेमा पर लिखा था.चवन्नी चाहता है कि उसके पाठक और सिनेमा के आम दर्शक इसे पढें और खोया खोया चांद देखें.निर्देशक सुधीर मिश्र के इस आलेख से फिल्म की मंशा समझ में आती है। ) इसके पहले के पोस्ट में मैंने 'खोया खोया चांद' बनाने के कुछ कारणों की बात की थी. उस पोस्ट के टिप्पणीकारों के साथ ईमेल पर मेरा संपर्क रहा है. कल मेरी फिल्म रिलीज हो रही है. इस फिल्म के बारे में मेरे कुछ और विचार... 'खोया खोया चांद' में मैंने एक ऐसी कहानी ली है, जिसे छठे दशक का कोई भी फिल्मकार बना सकता था. हां, मैं उस समय की नैतिकता और तकनीक से प्रभावित नहीं हूं. इसलिए हर सीन में मैं थोड़ा लंबा गया हूं, जबकि उस दौर के फिल्मकार थोड़ा पहले कट बोल देते. मेरे खयाल में आप तभी ईमानदारी से फिल्म बना सकते हैं, जब उनके साथ घटी घटनाओं में खुद को रख कर देखें... आप क्या करते? क्योंकि आप केवल खुद को ही सबसे अच्छी तरह जानते हैं. 'हजारों ख्वाहिशें ऐसी' में वस्तुगत सत्य का चित्रण था. इस फिल्म में अंतर का सत्य है. उनमें से अधिकांश अपने प्रेत

जन्मदिन विशेष - राजकपूर , आरके बैनर और कपूर खानदान

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-अजय ब्रह्मात्मज राजकपूर और रणबीर कपूर में एक समानता है। दोनों जिस डायरेक्टर के असिस्टेंट थे, दोनों ने उसी डायरेक्टर की फिल्म से एक्टिंग करियर की शुरुआत की। सभी जानते हैं कि राजकपूर ने स्कूल की पढ़ाई पूरी नहीं की थी। वे केदार शर्मा के असिस्टेंट रहे और सन् 1944 में उन्हीं की फिल्म नीलकमल से बतौर एक्टर दर्शकों के सामने आए। 1947 में उन्होंने आरके फिल्म्स एंड स्टूडियोज की स्थापना की। रणबीर भी अपने दादा की तरह संजय लीला भंसाली के सहायक रहे और फिर उनकी ही फिल्म सांवरिया से बतौर एक्टर दर्शकों के सामने आए। अब यह देखना है कि वे आरके फिल्म्स एंड स्टूडियोज को कब पुनर्जीवित करते हैं? राजकपूर ने जब स्कूल न जाने का फैसला किया, तो उनके पिता ने उन्हें जवाब-तलब किया। राजकपूर ने जवाब देने के बजाए अपने सवाल से पिता को निरुत्तर कर दिया। उन्होंने पृथ्वीराज कपूर से पूछा, सर, स्कूल की पढ़ाई के बाद क्या होगा? अगर आपको वकील बनना हो, तो आप लॉ कॉलेज में जाते हैं। अगर आपको डॉक्टर बनना हो, तो आप मेडिकल कॉलेज में जाते हैं और अगर आपको फिल्ममेकर बनना हो, तो आप कहां जाएंगे? मैं जिस पेशे में जाना चाहता हूं, उसके लिए जर

हर बच्चा 'स्पेशल' होता है-आमिर खान

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पॉपुलर हिंदी फिल्म स्टारों में आमिर खान अकेले ऐसे अभिनेता हैं, जिनकी फिल्म इतने लंबे गैप के बाद आ रही है। दर्शकों को याद होगा कि उनकी पिछली फिल्म यशराज कैंप की फना थी। उसके बाद आमिर अलग-अलग कारणों से सुर्खियों में जरूर रहे, लेकिन वे साथ ही साथ खामोशी से अपनी नई फिल्म भी पूरी करते रहे। लगान के बाद उनके प्रोडक्शन की दूसरी फिल्म है तारे जमीं पर। वे इसके निर्माता-निर्देशक तो हैं ही, साथ ही इसमें अभिनय भी कर रहे हैं। पिछले दिनों आमिर खान से मुलाकात हुई। प्रस्तुत हैं उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश.. बधाई कि आप अभिनेता और निर्माता के बाद निर्देशक भी बन गए। क्या फिल्म तारे जमीं पर में अभिनेता आमिर खान को निर्देशक आमिर खान ने चुना? अच्छा सवाल है, लेकिन मैं बता दूं कि इस फिल्म में मेरी भागीदारी पहले एक्टर और प्रोड्यूसर की जरूर थी, लेकिन डायरेक्टर मैं बाद में बन गया। लोग कह सकते हैं कि डायरेक्टर आमिर को एक्टर आमिर गिफ्ट में मिल गया। सच कहूं, तो मैंने सोच रखा था कि जब डायरेक्टर बनूंगा, तो फिल्म में एक्टिंग नहीं करूंगा, लेकिन इस फिल्म में सिचुएशन कुछ ऐसी बनी कि पहले एक्टर, फिर डायरेक्टर बन गया। फिल

करीना कपूर को मिला लैपटॉप

चवन्नी पिछले दिनों गोवा में था.वहाँ रोहित शेट्टी की फिल्म गोलमाल रिटर्न्स की शूटिंग चल रही है.इस फिल्म में थोडे फेरबदल के साथ गोलमाल वाली ही तें है.शर्मन जोशी की जगह श्रेयश तलपडे आ गए हैं और अभिनेत्रियों में सेलिना जेटली,अमृता अरोरा और करीना कपूर आ गयी हैं.गोवा में एक रिसॉर्ट किराये पर लिया गया है और वहीं शूटिंग चल रही है.मुम्बई से मीडिया के चंद लोगों को वहाँ ऑन लोकेशन के लिए ले जाया गया था.होता क्या है कि जब फिल्म बन रही होती है तो पत्रकारों को शूटिंग दिखने और स्टारों से मिलवाने के लिए ले जाया जाता है.वहाँ से लौटकर सारे पत्रकार अपने-अपने हिसाब से लिखते हैं और फिल्म की जानकारी अपने पाठकों को देते हैं.चवन्नी भी गया था। इस तरह की नियमित यात्राओं मेंकुछ रोचक जानकारियां मिल जाती हैं और फिल्म स्टारों की मेहनत और हिस्सेदारी भी करीब से देखने को मिलती है.पता चलता है कि स्टारों के साथ और कितने लोगों की मदद से एक फिल्म पूरी होती है,जबकि उनमें से अधिकांश गुमनाम ही रह जाते हैं.उनका काम मोर्चे पर तैनात सैनिकों की फुर्ती में होता है.वे सबसे पहले सेट पर आते हैं और आख़िरी में जाते हैं.अरे चवन्नी भी आप

निखिल द्विवेदी:२००८ का पहला सितारा

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चवन्नी अमृता राव से मिलने गया था.विवाह सफल हो गयी थी.अमृता की तारीफ हो रही थी और हिरोइन के तौर पर उनका दर्जा थोडा ऊँचा हो गया था.हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में हर फिल्म के साथ स्टारों का कद छोटा -बड़ा होता रहता है.बहरहाल बातचीत खतम होने पर अमृता ने चवन्नी से कहा कि आप मेरी फिल्म के हीरो से मिल लो.अरे हाँ,बताना भूल गया.अमृता राव माई नेम इज एन्थोनी गोंसाल्विस की शूटिंग कर रही थीं। चवन्नी को तो नए लोगों से मिलना अच्छा लगता है.उसने टपक से हाँ कहा.एक शॉट चल रहा था.शॉट में एक नौजवान दौड़ता हुआ आता है और अमृता राव से कुछ कहता है.साधारण सा रनिंग शॉट था ,लेकिन उस नौजवान का उत्साह देखते ही बन रहा था.शॉट खत्म होने पर मुलाक़ात हुई और क्या यादगार मुलाक़ात रही कि चांद ही बातों में उसने चवन्नी को अपने मुरीद बना लिया.जी,चवन्नी निखिल द्विवेदी की बात कर रहा है। निखिल की माई नेम इज एन्थोनी गोंसाल्विस २००७ में ही आनेवाली थी.किसी कारन से फिल्म में देरी हो गयी है,लेकिन अच्छा ही रहा .अब निखिल द्विवेदी २००८ का पहला सितारा होगा.निखिल की फिल्म ११ जनवरी २००८ को रिलीज हो रही है.निखिल इलाहबाद के हैं और उनकी आंखों में

सलाम! शबाना आजमी...दस कहानियाँ

-अजय ब्रह्मात्मज एक साथ अनेक कहानियों की फिल्मों की यह विधा चल सकती है, लेकिन उसकी प्रस्तुति का नया तरीका खोजना होगा। एक के बाद एक चल रही कहानियां एक-दूसरे के प्रभाव को बाधित करती हैं। संभव है भविष्य के फिल्मकार कोई कारगर तरीका खोजें। दस कहानियां में सिर्फ तीन याद रहने काबिल हैं। बाकी सात कहानियां चालू किस्म का मनोरंजन देती हैं। दस कहानियां के गुलदस्ते में पांच कहानियों के निर्देशक संजय गुप्ता हैं। ये हैं मैट्रीमोनी, गुब्बारे, स्ट्रेंजर्स इन द नाइट, जाहिर और राइज एंड फाल। इनमें केवल जाहिर अपने ट्विस्ट से चौंकाती है। फिल्म की सभी कहानियों में ट्विस्ट इन द टेल की शैली अपनायी गई है। जाहिर में मनोज बाजपेयी और दीया मिर्जा सिर्फ दो ही किरदार हैं। यह कहानी बहुत खूबसूरती से कई स्तरों पर प्रभावित करती है। मेघना गुलजार की पूर्णमासी का ट्विस्ट झकझोर देता है। मां-बेटी की इस कहानी में बेटी की आत्महत्या सिहरा देती है। रोहित राय की राइस प्लेट को शबाना आजमी और नसीरुद्दीन शाह के सधे अभिनय ने प्रभावशाली बना दिया है। दक्षिण भारतीय बुजुर्ग महिला की भूमिका में शबाना की चाल-ढाल और संवाद अदायगी उल्लेखनीय है।

खोया खोया चांद

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-अजय ब्रह्मात्मज सुधीर मिश्र की फिल्म खोया खोया चांद सातवें दशक की हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के बैकड्राप पर बनी है। माहौल, लहजा और पहनावे से सुधीर मिश्र ने उस पीरियड को क्रिएट किया है। खास बात है कि फिल्म में पीरियड कहानी पर हावी नहीं होता। वह दर्शकों को धीरे से सातवें दशक में ले जाता है। खोया खोया चांद के मुख्य किरदार किसी मृत या जीवित व्यक्ति पर आधारित नहीं हैं, लेकिन उनमें हम गुजरे दौर के अनेक कलाकारों और फिल्मकारों को देख सकते हैं। नायक जफर अली नकवी (शाइनी आहूजा) में एक साथ गुरुदत्त, कमाल अमरोही और साहिर लुधियानवी की झलक है तो निखत (सोहा अली खान) में मीना कुमारी और मधुबाला के जीवन की घटनाएं मिलती हैं। फिल्म की कहानी व्यक्ति केंद्रित नहीं है। जफर और निखत के माध्यम से सुधीर मिश्र ने उस दौर के द्वंद्व और मनोभाव को चित्रित करने की कोशिश की है। प्रेम कुमार (रजत कपूर) और रतनमाला (सोनिया जहां) सातवें दशक की फिल्म इंडस्ट्री के प्रतिनिधि किरदार हैं। जफर और निखत की निजी जिंदगी और उनके रिश्तों की अंतर्कथाओं में फिल्म उलझ जाती है। सुधीर मिश्र एक साथ कई पहलुओं को छूने और सामने लाने के प्रयास में मु

शुक्रवार,७ दिसम्बर, २००७

आज दो फिल्में रिलीज हुई हैं.सुधीर मिश्र की खोया खोया चांद और संजय गुप्ता कि दस कहानियाँ.खोया खोया चांद खास फिल्म है,क्यों? सबसे पहले तो इस फिल्म का निर्देशन सुधीर मिश्र ने किया है.सुधीर की फिल्में अलग और विशेष होती हैं.उन्होने इस फिल्म में सातवें दशक की हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री की झलक दी है.फिल्म देखते हुए आपको कभी गुरुदत्त तो कभी कमाल अमरोही तो कभी साहिर लुधियानवी की याद आ सकती है.आप मीना कुमारी और मधुबाला को भी सोहा अली खान में देख सकते हैं.यह फिल्म आप ज़रूर देखें। दूसरी फिल्म नया प्रयोग है.एक फिल्म में दस कहानियाँ.अलग अलग १० कहानियो को एक साथ मनोरंजन का गुलदस्ता पेश किया है संजय गुप्ता ने.इस फिल्म में शाबान आज़मी,मनोज बज्पाई और नाना पाटेकर कि कहानियाँ देखने लायक हैं.

अकेलेपन से मुक्त करती हैं फिल्में

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-अजय ब्रह्मात्मज फिल्मों के प्रभाव, कार्य और दायित्व को लेकर बहसें हमेशा होती रही हैं। हर दौर में तात्कालिक और सामाजिक स्थितियों के अनुसार, फिल्मों के स्वरूप और प्रभाव को समझा और समझाया गया है। पिछले दिनों शाहरुख खान ने 38वें इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के मुख्य अतिथि के रूप में संबोधित करते हुए दो बातों पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि हम सपने बेचते हैं। ऐसे सपने, जो पूरे होते हैं और कभी-कभी अधूरे ही रह जाते हैं। दूसरा, फिल्में अकेलेपन से मुक्ति देती हैं। सपने बेचने की बात एक जमाने से कही जा रही है। शायद यही वजह है कि फिल्मकारों को सपनों का सौदागर भी कहा जाता है। सपने नींद में भले ही खलल डालते हों, लेकिन जिंदगी में सपने हमें एक उम्मीद से भर देते हैं। हम अपनी कठिनाइयों में भी उस उम्मीद की लौ को जलाए रहते हैं और कुछ पाने या कर गुजरने की संभावना में संघर्ष से नहीं सकुचाते। हिंदी की मुख्यधारा की फिल्मों में सपनों पर ज्यादा जोर दिया गया है। सपनों की यह अतिरंजना वास्तविकता से पलायन का मौका देती है। हिंदी फिल्मों को पलायनवादी कहा भी जाता है। आजादी के बाद से सपनों को बेचने का यह कारोबार चल रहा है।

हिट और फ्लॉप का समीकरण-२

कल के पोस्ट को काफी लोगों ने padhaa .कुछ ने चवन्नी को फ़ोन भी किया.लेकिन चवन्नी का अनुभव है कि कुछ भावुक या अतीत के बखान में कुछ लिखो तो लोग टिप्पण्णियाँ करते हैं.आज की बात करो तो लोग पढ़ कर किनारा कर जाते हैं.उन्हें शायद लगता हो कि यह तो हम भी जानते हैं.चवन्नी कोई शिक़ायत नही कर रहा.ब्लॉग की दुनिया में भी रहीम का कथन उपयुक्त है...रहिमन निज मन की व्यथा मन ही रखो गोय ,सुनी इठलैंहै लोग सब बांटि न लैंहै कोय । बहरहाल,बात आगे शुरू करें .चवन्नी के मित्र ने ब्रिटेन से सूचित किया कि लंदन और न्यूयॉर्क के टिकेट राते सही नही हैं.सही देना मकसद नही था.चवन्नी का सारा ध्यान इस तथ्य को सामने लाने में था कि इन दिनों फिल्मों के व्यापारी (निर्माता,निर्देशक और एक्टर) यह नही देखते कि उनकी फिल्म को कितने दर्शकों ने देखा.उनके लिए वह रकम खास होती है जो दर्शक देते हैं.महानगरों,विदेशी शहरों और मल्टीप्लेक्स से प्रति दर्शक ज्यादा पैसे आते हैं,इसलिए फिल्म के विषय और परिवेश पर उन दर्शकों की रूचि का प्रभाव दिखता है। यह अचानक नही हुआ है कि हिन्दी फिल्मों में सिर्फ संवाद हिन्दी में होते हैं,बाकी सब में सावधानी बरती ज

हिट और फ्लॉप का समीकरण

चवन्नी कुछ ऐसी बातें बताना चाहता है ,जिसके बारे में आप सभी जानना चाहते होंगे.अब जैसे हिट और फ्लॉप की ही बात करें.कई बार आपको ताज्जुब होता होगा कि अरे यार यह फिल्म तो कोई खास नही चली थी,फिर हिट कैसे हो गयी.इसी तरह कई बार आप खुद से ही पूछते होंगे कि फलां फिल्म तो हमारे इलाक़े में खूब चली ,लेकिन फ्लॉप कैसे हो गयी.तो हिट और फ्लॉप का पूरा लम्बा-चौड़ा खेल है.इस खेल में फिल्म स्टार,निर्माता-निर्देशक,वितरक,प्रदर्शक और चवन्नी छाप दर्शक भी शामिल रहते हैं.यह घलात्फह्मी दिल-ओ-दिमाग से निकल दीजिए कि केवल दर्शक ही किसी फिल्म के भाग्य का फैसला करते हैं.अरे हाँ,मीडिया का भी रोल होता है.आजकल एक पोपुलर हीरो और प्रोड्यूसर मीडिया के लोगों को धन्यवाद पत्र के साथ उपहार भी भिजवा रहे हैं,क्योंकि मीडिया बिरादरी उनके प्रति उदार रही है.यहाँ स्पष्ट हो लें कि फिल्म बिरादरी के लिए मीडिया का मतलब इंग्लिश प्रेस और एल्क्ट्रोनिक मीडिया होता है.इसमें हिन्दी या अन्य भाषायी प्रेस शामिल नही हैं। हिट और फ्लॉप हिट और फ्लॉप फिल्मों के बारे में सोचते और सुनते ही हमें लगता है कि किसी फिल्म को ज्यादा से ज्यादा दर्शकों ने देखा होग

फिल्मों का लोकतंत्र

अक्षय कुमार आमिर खान रितिक रोशन सलमान खान शाहरुख़ खान फिल्मों के इन पॉपुलर अभिनेताओं के नाम चवन्नी ने अकारादि क्रम में लिखे हैं.चवन्नी दवा नही कर सकता कि इनमे से कौन आगे है और कौन पीछे?पिछले दिनों एक ट्रेड विशेषज्ञ ने एक अंग्रेजी अखबार के सन्डे सप्लीमेंट में लम्बा सा लेख लिखा और बताया कि ये पांच स्टार ही हैं,जो हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री चला रहे हैं.आप पूरा लेख पढ़ जाये और अगर आप पंक्तियों के बीच पढना जानते हों या लेख का निहितार्थ समझने में माहिर हों तो आसानी से अनुमान लगा लेंगे कि पूरा लेख यह बताने के लिए लिखा गया है कि देश के सबसे बडे स्टार शाहरुख़ खान हैं और उनके बाद चार और नाम लिए जा सकते हैं.चवन्नी तफसील में जाकर नही बताना चाहता कि यह लेख क्यों लिखा गया है और इस लेख से क्या साबित किया जा रहा है? एक आम धरने है राजनीति में जो ज्यादा वोट ले आये,वो सबसे बड़ा नेता और फिल्मों में जो सबसे ज्यादा दर्शक ले आये,वो सबसे बड़ा अभिनेता.लोकतंत्र तो यही कहता है.फिल्मों के लिओक्तंत्र में सबसे जयादा दर्शक बटोरने वाले अभिनेता को ही सुपरस्टार और बादशाह और शहंशाह आदि आदि कहा जाता है.हम सभी जानते हैं कि प

बच ले,बच ले,यशराज तू बच ले

यही होना था.उत्तर प्रदेश में मायावती की भृकुटी तनी और इधर यशराज कैंप में हड़कंप मच गया.मायावती को आपत्ति थी कि फिल्म के शीर्षक गीत में मोची भी बोले वह सोनार है पंक्ति उपयोग हुआ जातिसूचक शब्द खेदजनक है.इस शब्द से एक जाति विशेष का अपमान हुआ है.अब यह बहस का मुद्दा हो सकता है कि गीतकार पीयूष मिश्र ने यहाँ किस संदर्भ में इस शब्द का प्रयोग किया है.तिल का ताड़ बना देने वालों से बहस नही की जा सकती और जब मामला सवेंदनशील हो तो बिल्कुल ही बात नही की जा सकती। हिन्दी साहित्य और लोकगीतों में खुल कर जाती सूचक शब्दों का इस्तेमाल हुआ है.क्या हम सारे साहित्य से चुन-चुन कर ऐसे शब्दों को निकालेंगे?और अगर निकाल दिए तो क्या साहित्य का वही मर्म रह जाएगा?ताज्जुब है कि देश के बुद्धिजीवी इस मामले में खामोश हैं.कोई कुछ भी नही बोल रहा है.मायावती का विरोध करने के बजाए एक-दो स्वर उनके समर्थन में ही सुनाई पड़े कि आप जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल कर किसी की भावना को ठेस नहीं पहुँचा सकते। यशराज ने अपना पक्ष रखने के बजाए माफ़ी माँग लेने में भलाई समझी.पहले फिल्मकार बहस करते थे,अपना पक्ष रखते थे और कोर्ट तक जाते थे.उन्हें

आजा नचले: पूरी तरह फिट बैठी माधुरी

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-अजय ब्रह्मात्मज आजा नचले की सबसे बड़ी खासियत सहयोगी कलाकारों का सही चुनाव है। धन्यवाद, अक्षय खन्ना, इरफान, रघुवीर यादव, रणवीर शौरी, कुणाल कपूर, कोंकणा सेन, दिव्या दत्ता, विनय पाठक और यशपाल शर्मा का ़ ़ ़ इन सभी ने मिलकर नायिका दीया (माधुरी दीक्षित) को जबर्दस्त सपोर्ट दिया है। माधुरी दीक्षित के तो क्या कहने? इस उम्र में भी नृत्य की ऐसी ऊर्जा? नई हीरोइनें सबक ले सकती हैं कि दर्शकों के दिल-ओ-दिमाग पर छाने के लिए कैसी लगन और कितनी मेहनत चाहिए। अनिल मेहता की आजा नचले की थीम चक दे इंडिया से मिलती जुलती है। वहां माहौल खेल का था, यहां माहौल नृत्य और संगीत का है। फिल्म उतनी ही असरदार है। सबके जेहन में सवाल था कि पांच साल की वापसी के बाद माधुरी दीक्षित पर्दे पर अपना जादू चला पाएंगी या नही? आदित्य चोपड़ा और जयदीप साहनी ने उन्हें ऐसी स्क्रिप्ट दी है कि माधुरी फिल्म में पूरी तरह फिट बैठती हैं। 35 पार कर चुके दर्शक अपनी धक धक गर्ल पर फिर से सम्मोहित हो सकते हैं। नई उम्र के दर्शक देख सकते हैं कि नृत्य केवल स्टेप्स या ऐरोबिक नहीं होता, उसमें भाव होता है, भंगिमा भी होती है। माधुरी सिद्ध करती हैं कि नृ

शुक्रवार,३० नवम्बर,२००७

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कोई रुनझुन सुनाई पड़ रही है.चवन्नी के कानों में सुरीली झंकार की अनुगूंज है.कोई दोनों बाहें फैलाये न्योता दे रहा है.न..न.. शाहरुख़ खान नही हैं.उनके आमंत्रण में झंकार नही रहती.मोहक मुस्कान की मलिका और एक ठुमके से दर्शकों का दिल धड़का देनेवाली धक् धक् गर्ल आज देश भर के सिनेमाघरों में नया जलवा दिखाने आ रही हैं.जी हाँ चवन्नी माधुरी दीक्षित की ही बात कर रहा है।चवन्नी की सिफारिश है कि आप माधुरी के न्योते को स्वीकार करें.लगभग पांच सालों के बाद हिन्दी सिनेमा के रुपहले परदे पर जल्वाफ्रोश हो रही माधुरी का आकर्षण कम नहीं हुआ है.हालांकि इस बीच हीरोइनों का अंदाज बदल गया है और सारी की सारी हीरोइनें एक जैसी लगती और दिखती हैं,वैसे में माधुरी दीक्षित का निराला अंदाज पसंद आना चाहिए।माधुरी की आजा नचले एक लड़की दीया कि कहानी है,जो अपने गुरु की संस्था को किसी भी सूरत में बचाना चाहती है.हिन्दी फिल्मों में उम्रदराज हीरोइनों के लिए जगह नहीं होती.अमिताभ बच्चन के पहले हीरो के लिए भी नही होती थी.अमिताभ बच्चन के लिए केन्द्रीय किरदार लिखे गए.शाबान आज़मी के लिए गॉडमदर लिखी गयी थी.जाया बच्चन हजार चौरासिवें की माँ में

भरोसेमंद और शालीन शाहिद कपूर

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-अजय ब्रह्मात्मज एनएसडी में पंकज कपूर के क्लासमेट रहे एक सीनियर आर्टिस्ट से पिछले दिनों मुलाकात हो गई। वे रंगमंच, टीवी और फिल्मों में सक्रिय रहे हैं। उन्होंने कुछ फिल्में भी लिखी हैं। यूं ही बातचीत में शाहिद कपूर का जिक्र आ गया। वे बताने लगे, इधर तो मेरी मुलाकात नहीं हुई है शाहिद से, लेकिन मैं उसे बचपन से ही जानता हूं। सुशील स्वभाव का लड़का है और उसमें स्पार्क तो है ही। मैंने उम्मीद नहीं की थी कि वह इतने संतुलित स्वभाव का भी होगा! दरअसल.., बातचीत में करीना कपूर का प्रसंग आ गया था। शाहिद कपूर और करीना कपूर के प्रसंग में सबसे अच्छी बात यही रही कि दोनों में से किसी ने भी एक-दूसरे पर कीचड़ नहीं उछाला। आमतौर पर दिल टूटते हैं, तो विक्षुब्ध प्रेमी बकबकाने लगते हैं। दुर्भाग्य से अगर वे सेलिब्रिटी हों, तो कई बार दबाव में आकर भी अनचाहा कुछ बोल ही जाते हैं। इस प्रसंग में सामाजिक और पारंपरिक सोच के मुताबिक शाहिद कपूर की हार मानी जा रही थी। कहा यह जाता है कि प्रेम कहानियों में लड़की जिसके पास जाती है, वही हीरो होता है। हालांकि यह पर्दे पर ही नहीं, पर्दे के आगे-पीछे का भी सच है। बहरहाल, शाहिद कपूर

गोवा में फिल्म फेस्टिवल

पिछले दिनों चवन्नी गोवा में था.वहाँ इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल चल रहा है और फिल्मों के जानकार,प्रेमी और पत्रकारों की भीड़ लगी है.सबसे ज्यादा तो अधिकारी मौजूद हैं.सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय,फिल्म निदेशालय और पत्र एवं सूचना विभाग के अधिकारियों के साथ ही गोवा के भी अधिकारी हैं.इनकी संख्या फिल्म देखनेवालों से ज्यादा है.तभी तो उद्घाटन समरोह में जब शाहरुख़ खान आये तो उनके साथ लगभग २० अधिकारी थे.क्या ज़रूरत थी उनकी?चवन्नी को लगता है कि ज्यादातर तो फोटो खींच और खिंचवा रहे होंगे। भारत में आयोजित फिल्म फेस्टिवल को विदेशी फेस्टिवल की तरह ब्रांड बनने की कोशिश लंबे समय से चल रही है.गोवा में फेस्टिवल के आयोजन को चार साल हो गए,लेकिन अभी तक न तो ब्रांड बना और न गोवा फेस्टिवल की कोई पहचान बनी.सब कुछ इतना सरकारी हो जाता है कि तरकारी हो जाता है.सही ढंग से प्रचार भी नही किया जाता.मीडिया की रूचि वैसे ही कम रहती है और फिर उन्हें जिस तरीके से तंग किया जाता है कि उसमें मजबूरन वे तौबा कर लेते हैं.इस बार भी जब तक शाहरुख़ खान थे तब तक मीडिया खास कर टीवी मीडिया के लोग बने रहे.उधर शाहरुख़ निकले और इधर वे निकले। कायद

भटके हुए फोकस में मिस हुआ गोल

-अजय ब्रह्मात्मज चक दे इंडिया से गोल की तुलना होना लाजिमी है। तुलना में गोल पिछड़ सकती है क्योंकि चक दे इंडिया लोकप्रिय हो चुकी है। चक दे.. अपेक्षाकृत बेहतर थी भी। गोल में निर्देशक विवेक अग्निहोत्री का फोकस कई बार भटका है। फिल्म ढीली होने के कारण लंबी लगती है। कई बार लगता है कि अनावश्यक रूप से खेल दिखाया जा रहा है। प्राय: सभी खेल फिल्मों का यही फार्मूला है। एक कमजोर और हारी हुई टीम होती है। उसमें फिल्म के मध्यांतर तक टीम भावना और जीत की लालसा जागती है और अंत में पराजित या कमजोर टीम विजेता घोषित की जाती है। विवेक की गोल इंग्लैंड में बनी है। वहां की एशियाई बस्ती साउथ हाल के लोगों का यूनाइटेड क्लब है। क्लब कई साल से बदहाली है। टीम असंगठित है। कायदे का कोच भी नहीं है। सिटी काउंसिल के एक मेंबर के साथ ही बिल्डरों की नजर क्लब की जमीन पर लगी है। क्लब के सामने एक ही लक्ष्य है कि लीग में चैंपियन बने या जमीन से हाथ धो बैठे। कोच की तलाश होती है। पुराने खिलाड़ी टोनी (बोमन ईरानी) मिल जाते हैं। वह पहले तो कोच बनने से मना करते हैं। बाद में राजी होते हैं। उनकी समस्या है कि कमजोर टीम में जोश कैसे पैदा क

हिंदी प्रदेशों की उपेक्षा करते हैं स्टार

-अजय ब्रह्मात्मज हिंदी फिल्मों के बड़े स्टार हिंदी प्रदेशों के शहरों में जाने से हिचकिचाते हैं। उनकी कोशिश होती है कि पटना, लखनऊ, भोपाल, जयपुर या शिमला जाने की जरूरत न पड़े तो अच्छा। यहां तक कि फिल्मों के प्रचार के सिलसिले में भी वे दिल्ली और कोलकाता जाकर संतुष्ट हो जाते हैं। बताने की आवश्यकता नहीं है कि उनकी इस उपेक्षा से उनका ही नुकसान होता है। उत्तर भारत के शहरों में जाकर प्रचार करने से उन्हें अपनी फिल्मों के अतिरिक्त दर्शक मिल सकते हैं और फिल्मों का बिजनेस बढ़ सकता है। हिन्दी फिल्मों का बाजार और प्रचार तंत्र मुख्य रूप से संपन्न दर्शकों से ही प्रभावित होता है। बड़े शहरों के मल्टीप्लेक्स में टिकट की कीमत इन दिनों कम से कम सौ रुपये होती है, जो पहले हफ्ते में ढाई सौ रुपये तक पहुंच जाती है। फिर एक-एक मल्टीप्लेक्स में नई फिल्मों के 20 से 36 शो तक होते हैं। इस तरह चंद दिनों में ही प्रति प्रिंट भारी रकम की वसूली हो जाती है। इसके विपरीत छोटे शहरों में सिनेमाघरों की टिकटों की अधिकतम कीमत सौ रुपये है। सिंगल स्क्रीन में फिल्म लगी हो, तो उसके ज्यादा से ज्यादा पांच शो रोजाना हो पाते हैं। अगर हिस

सितारों की बढ़ती कीमत!

-अजय ब्रह्मात्मज हिंदी फिल्मों का इतिहास बताता है कि आजादी के बाद से ही सितारों की तूती बोलती रही है। स्टूडियो सिस्टम के टूटने और बैनरों का प्रभाव कम होने के बाद सितारों का भाव बढ़ा, क्योंकि किसी भी फिल्म की शुरुआत, निर्माण और बाजार के लिए फिल्म के स्टार प्रमुख होते गए। दिलीप कुमार से लेकर अक्षय कुमार तक सितारों ने अपनी लोकप्रियता की पूरी कीमत वसूली है। उन्हें मालूम है कि लोकप्रियता की चांदनी चार दिनों से ज्यादा नहीं रहती, इसलिए अंधेरी रात के आने के पहले जितना संभव हो, बटोर लो। पिछले दिनों सलमान खान सुर्खियों में रहे। ऐसा कहा गया कि अपेक्षाकृत एक नई प्रोडक्शन कंपनी ने उन्हें भारी रकम देने के साथ ही लाभ में शेयर देने का वादा किया है। इतना ही नहीं, 15 साल के बाद फिल्म का नेगॅटिव राइट भी उन्हें मिल जाएगा। अगर बहुत संकुचित तरीके से भी इस अनुबंध को रकम में बदलें, तो कुल राशि 25-30 करोड़ का आंकड़ा पार कर जाएगी। जिस देश में प्रति व्यक्ति औसत आय हजारों में चल रही हो, वहां करोड़ों की यह रकम चौंकाती है। लगता है कि सितारे करते क्या हैं कि उन्हें करोड़ों की रकम दी जाती है? सितारों को मिलने वाली भा

क्यों नए नए से दर्द की फिराक में तलाश में उदास है दिल

चवन्नी आज स्वानंद किरकिरे का पूरा गीत यहाँ पेश कर रहा है.आप यह गीत सुनें और फिर इन पंक्तियों को पढें तो ज्यादा आनंद मिलेगा। आज शब जो चांद ने है रुठने की ठान ली गर्दिशों में हैं सितारे बात हम ने मान ली अंधेरी स्याह ज़िन्दगी को सूझती नहीं गली कि आज हाथ थाम लो एक हाथ की कमी खली क्यों खोया खोया चांद की फ़िराक में तलाश में उदास है दिल क्यों अपने आप से खफ़ा खफ़ा जरा जरा सा नाराज़ है दिल ये मन्ज़िले भी खुद ही तय करेये रास्ते भी खुद ही तय करे क्यों तो रास्तों पे फिर सहम सहम के संभल संभल के चलता है ये दिल क्यों खोया खोया चांद की फ़िराक में तलाश में उदास है दिल जिंदगी सवालों के जवाब ढूंढने चली जवाब में सवालों की एक लंबी सी लड़ी मिली सवाल ही सवाल है सूझती नहीं गली कि आज हाथ थाम लो एक हाथ की कमी खली जी में आता है सितारे नोच लूं इधर भी नोच लूं उधर भी नोच लूं एक दो पांच क्या मैं फिर सारे नोच लूं इधर भी नोच लूं उधर भी नोच लूं सितारे नोच लूं, मैं सारे नोच लूं क्यों तो आज इतना वहशी है मिजाज में मजाज है ऐ गम-ए-दिल क्यों अपने आप से खफा खफा जरा जरा सा नाराज है दिल दिल को समझाना कह दो क्या आसान है दिल तो फितरत से

क्यों अपने आप से खफ़ा खफ़ा जरा जरा सा नाराज़ है दिल

आज शब जो चांद ने है रुठने की ठान ली गर्दिशों में हैं सितारे बात हम ने मान ली अंधेरी स्याह ज़िन्दगी को सूझती नहीं गली कि आज हाथ थाम लो एक हाथ की कमी खली क्यों खोया खोया चांद की फ़िराक में तलाश में उदास है दिल क्यों अपने आप से खफ़ा खफ़ा जरा जरा सा नाराज़ है दिल ये मन्ज़िले भी खुद ही तय करे ये रास्ते भी खुद ही तय करे क्यों तो रास्तों पे फिर सहम सहम के संभल संभल के चलता है ये दिल क्यों खोया खोया चांद की फ़िराक में तलाश में उदास है दिल क्या आप इन पंक्तियों को सुन चुके हैं.सुधीर मिश्र की नयी फिल्म खोया खोया चाँद का यह गीत खूब पसंद किया जा रहा है.इसे स्वानंद किरकिरे ने लिखा है और संगीत शांतनु मोइत्रा का है.अगर आप पूरा गीत पढना चाहते हैं तो बताएं.चवन्नी शाम तक यह भी करेगा.सुधीर मिश्र की फिल्म छठे दशक की याद दिलाएगी.शांतनु ने संगीत और स्वानंद ने शब्दों से उस दशक को जिंदा कर दिया है.फिल्म इंडस्ट्री के इन जवान प्रतिभाओं को सलाम.शांतनु बनारस से ताल्लुक रखते हैं तो स्वानंद इंदौर के हैं। सुधीर मिश्र ने इन्हें हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी... में मौका दिया था .तब से दोनों लगातार आगे ही बढ़ते जा रहे हैं.शुक्र है कि

ओम शांति ओम: यथार्थ से कोसों दूर

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-अजय ब्रह्मात्मज फराह खान और शाहरुख खान की ओम शांति ओम का भी वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं है। इंटरवल तक की फिल्म फिर भी मनोरंजक और रोचक लगती है। उसके बाद पुनर्जन्म, आत्मा, न्याय और बदले का जो वितान बुना गया है, वह उबाऊ है। फराह ने अगर इंटरवल तक की कहानी पर ही पूरी फिल्म बना दी होती तो अधिक प्रभावशाली निर्मित होती। फिल्म में दो ओम हैं, एक शांति है। एक सैंडी है, जो बाद में शांति का रूप लेती है। और एक शांति की अतृप्त आत्मा है, जो निर्माता मुकेश मेहरा से बदला लेने के बाद ही शांत होती है। चलिए थोड़ा विस्तार में चलें। ओमप्रकाश मखीजा (शाहरुख) जूनियर फिल्म आर्टिस्ट है। वह स्टार बनने के ख्वाब देखता है। उसे शांतिप्रिया से प्रेम हो गया है। वह सेट पर लगी आग से शांति को जान पर खेल कर बचाता है। शांति उसके जोखिम से प्रभावित होती है। ओम को लगता है कि शांति उसे चाहने लगी हैं। ओम का प्यार पींगें मारने लगता है। अगली बार जब मुकेश मेहरा शांति को सचमुच आग में झोंक देता है तो उसे बचाने के चक्कर में ओम जान भी गवां बैठता है। यहीं इंटरवल होता है। हमें पता चलता है कि ओम का पुनर्जन्म हो गया है। नए ओम को पिछले

सांवरिया : रंग और रोमांस वास्तविक नहीं

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-अजय ब्रह्मात्मज खयालों की दुनिया और ख्वाबों के शहर में राज, सकीना, गुलाब और ईमान की कहानी में लॉजिक खोजना बेमानी है। इस सपनीली दुनिया का परिवेश भव्य और काल्पनिक है। नहर है, नदी है, पुल है, अंग्रेजों के जमाने के बार हैं और आज की अंग्रेजी मिश्रित भाषा है। सांवरिया का रंग और रोमांस वास्तविक नहीं है और यही इस फिल्म की खासियत है। संजय लीला भंसाली के काल्पनिक शहर में राज (रणबीर कपूर) गायक है। उसे नयी नौकरी मिली है। बार में ही उसकी मुलाकात गुलाब ( रानी मुखर्जी) से होती है। दोनों के बीच दोस्ती होती है। दोस्तोवस्की की कहानी ह्वाइट नाइट्स पर आधारित इस फिल्म में दो प्रेमियों की दास्तान है। सिर्फ चार रातों की इस कहानी में संजय लीला भंसाली ने ऐसा समां बांधा है कि हम कभी राज के जोश तो कभी सकीना (सोनम कपूर) की शर्म के साथ हो लेते हैं। संजय लीला भंसाली ने एक स्वप्न संसार का सृजन किया है, जिसमें दुनियावी रंग नहीं के बराबर हैं। रणबीर कपूर और सोनम कपूर के शो केस के रूप में बनी इस फिल्म में संजय लीला भंसाली ने खयाल रखा है कि हिंदी फिल्मों में नायक-नायिका के लिए जरूरी और प्रचलित सभी भावों का प्रदर्शन किय