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दबंग के पक्ष में - विनोद अनुपम

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नेशनल फिल्‍म अवार्ड मिलने के बाद से निरंतर 'दबंग' की चर्चा चल रही है। ज्‍यादातर लोग 'दंबग' को पुरस्‍कार मिलने से दंग हैं। विनोद अनुपम ने 'दबंग' के बारे में यह लेख फिल्‍म की रिलीज के समय ही लिखा था। उसकी प्रासंगिकता देखते हुए हम उसे यहां पोस्‍ट कर रहे हैं... भरा पूरा गाँव, ढ़ेर सारे बेतरतीब लोग, जिसमें कुछ को हम पहचान पाते हैं कुछ को नहीं। इनमें पाण्डेय भी हैं, सिंह भी, कुम्हार भी। सबों की अलग-अलग बनावट, अलग-अलग वेषभूषा, अलग-अलग स्वभाव। हद दर्जे का लालची भी, पियक्कड़ भी, मेहनती भी, आलसी भी, हिम्मती भी और डरपोक भी। यही विविध्ता पहचान है किसी हिन्दी समाज की, जो अपनी पूर्णता में प्रतिबिम्बित होता दिखता है 'दबंग' में। यही है जो 'दबंग' को एक विशिष्टता देती है, जिसमें हम अपने आस-पास को दख सकते हैं। ठीक 'शोले' की तरह, जहाँ नायक भले ही ठाकुर होता है, लेकिन गाँव को गाँव बनाने में 'मौसी' की भी उतनी ही भूमिका होती है जितना मौलबी साहब की। 'अनजाना अनजानी' और 'वी आर पफैमिली' के दौर में जब याद करने की कोशिश करते हैं कि पिछली बाद