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मेरे लिए तो मेरा कच्चा रास्ता उनकी सड़क से बेहतर है-विशाल भारद्वाज

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  फिल्मकार विशाल भारद्वाज से अजय ब्रह्मात्मज से बातचीत पर आधारित आलेख मेरा बचपन मेरठ में गुजरा. मेरे पिता कवि थे और एक सरकारी दफ्तर में काम करते थे. सिनेमा ही हमारे मनोरंजन का इकलौता साधन था. बचपन की देखी फिल्में याद करूं तो मुझे ‘परदे के पीछे’ याद आती है. उसमें विनोद मेहरा और नंदा थे. लेकिन फिल्मों में असली रुचि ‘शोले’ से जगी. तब हम पांचवीं-छठी कक्षा में पढ़ते थे. उसके बाद तो अमिताभ बच्चन के ऐसे दीवाने हुए कि उनकी ‘अमर अकबर एंथनी’, ‘नसीब’, ‘सुहाग’, हर फिल्म देखी. ऐसी फिल्में ही हम देखते थे. इन फिल्मों ने ही असर डालना शुरू किया. श्याम बेनेगल की एक-दो फिल्में भी देखी थीं. कॉलेज में आते-आते ‘उत्सव’ और ‘कलयुग’ आ गई थीं. उस दौर की फिल्म ‘विजेता’ याद है. ज्यादातर फिल्में दोस्तों के साथ देखीं. फिल्मों में इंटरेस्ट था, लेकिन मैं इतना सीरियस दर्शक नहीं था. सच कहूं तो बहुत बाद में म्यूजिक डायरेक्टर बन जाने के बाद भी फिल्मों और डायरेक्शन का खयाल नहीं आया था. मेरे पिता जी ने मुंबई आकर फिल्मों के लिए कुछ गाने भी लिखे. उनकी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल से दोस्ती थी. मेरे पिता जी का ना