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Showing posts from March, 2016

दरअसल : शॉर्ट फिल्‍मों के बढ़ते प्‍लेटफार्म

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले दिनों यशराज फिल्‍म्‍स के बैनर तले वाई फिल्‍म्‍स ने छह शॉर्ट फिल्‍मों के एक पैकेज की जानकारी दी। इसके तहत प्रेम से संबंधित छह शॉर्ट फिल्‍में पेश की जाएंगी,जिनमें सुपरिचित कलाकार काम करेंगे। हालांकि इनके लेखन और निर्देशन से कुछ नई प्रतिभाएं जुड़ी हैं,लेकिल यशराज फिल्‍म्‍स के बैनर की वजह से यह पैकेजिंग आकर्षक हो गई। पैकेजिंग को आकर्षक बनाने के लिए हर शॉर्ट फिल्‍म के साथ एक म्‍यूजिक वीडियो भी जोड़ा गया। अच्‍छा प्रचार हुआ। सभी पत्र-पत्रिकाओं ने इस पर ध्‍यान और कवरेज दिया। यशराज फिल्‍म्‍स की वजह से यह रिलीज चर्चा में रही। अगर इन शॉर्ट फिल्‍मों के कंटेंट की बात करें तो वह बहुत संतोषजनक रहा। प्रचार के अनुरूप इसके दर्शक नहीं बने। अगर थोड़ा अलग ढंग से विचार करें तो यशाराज फिल्‍म्‍स की यह   पहल कुछ नए संकेत दे रही है। माकेटिंग और बिजनेस के क्षेत्र में देखा गया है कि छोटी कोशिशों की चर्चा और कामयाबी को बड़ी कंपनियां हथिया लेती हैं। उन्‍हें बड़े स्‍तर पर बाजार में भेजती हैं और ट्रैडिशनल ग्राहकों को कंफ्यूज करने के साथ ही कुछ नण्‍ ग्राहक तैयार करती हैं। अंतिक

फिल्‍म समीक्षा : रॉकी हैंडसम

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एक्‍शन से भरपूर -अजय ब्रह्मात्‍मज निशिकांत कामत निर्देशित ‘ रॉकी हैंडसम ’ 2010 में आई दक्षिण कोरिया की फिल्‍म ‘ द मैन फ्रॉम नोह्वेयर ’ की हिंदी रीमेक है। निशिकांत कामत के लिए रितेश शाह ने इसका हिंदीकरण किया है। उन्‍होंने इसे गोवा की पृष्‍ठभूमि दी है। ड्रग्‍स,चाइल्‍ड ट्रैफिकिंग,आर्गन ट्रेड और अन्‍य अपराधों के लिए हिंदी फिल्‍म निर्देशकों को गोवा मु‍फीद लगता है। ‘ रॉकी हैंडसम ’ में गोवा सिर्फ नाम भर का है। वहां के समुद्र और वादियों के दर्शन नहीं होते। पूरी भागदौड़ और चेज भी वहां की नहीं लगती। हां,किरदारों के कोंकण और गोवन नामों से लगता है कि कहानी गोवा की है। बाकी सारे कार्य व्‍यापार में गोवा नहीं दिखता। बहरहाल, यह कहानी रॉकी की है। वह गोवा में एक पॉन शॉप चलाता है। उसके पड़ोस में नावोमी नाम की सात-आठ साल की बच्‍ची रहती है। उसे रॉकी के अतीत या वर्त्‍तमान की कोई जानकारी नहीं है। वह उसे अच्‍छा लग्ता है। वह रॉकी से घुल-मिल गई है। उसे हैंडसम बुलाती है। नावोमी की मां ड्रग एडिक्‍ट है। किस्‍सा कुछ यों आगे बढ़ता है कि ड्रग ट्रैफिक और आर्गन ट्रेड में शामिल अपराधी नावोमी का अपहरण कर

दरअसल : खेलेंगे हम होली

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-अजय ब्रह्मात्‍मज फिल्‍मों की होली में मौज-मस्‍ती,छेड़खानी और हुड़दंग पर जोर रहता है। खासकर नायक-नायिका के बीच अबीर,रंग और पिचकारी का उपयोग ठिठोली के लिए ही होता है। रुठने और मनाने के एक उपक्रम और प्रयोजन के रूप में फिल्‍मकार इसका इस्‍तेमाल करते रहे हें। चूंकि यह सामूहिकता का पर्व है,इसलिए प्रेमियों को झ़ुंड में एकांत का बहाना मिल जाता है। उन्‍हें नैन-मटक्‍का और रंग- गुलाल लगाने के बहाने बदन छूने का बहाना मिल जाता है। चालीस पार कर चुके पाठक अपने किशोरावस्‍था में लौटें तो महसूस करेंगे कि होली की यादों के साथ उन्‍हें गुदगुदी होने लगती है। उन्‍हें कोमल प्रेमी-प्रेमिका का कोमल स्‍पर्श याद आने लगता है। लड़के-लड़कियों के बीच आज की तरह का संसंर्ग नहीं होता था। अब तो सभी एक-दूसरे को अंकवार भरते हैं। पहले होली ही मिलने और छूने का बहाना होता था। हंसी-मजाक में ही दिल की बातें कह देने का छूट मिल जाती थी। कोई शरारत या जबरदस्‍ती नागवार गुजरी तो कह दो-बुरा ना मानो होली है। हिंदी फिल्‍मों में आरंभ से ही रंगो का यह त्‍योहार पूरी चमक के साथ आता रहा है। फिल्‍मों के रंगीन होने के बाद निर्माता-