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खुशमिजाज मां रीमा लागू

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खुशमिजाज मां रीमा लागू -अजय ब्रह्मात्‍मज उनकी उम्र अभी 59 थी। हमेशा के लिए आंखें बंद करने की यह उम्र नहीं होती। न कोई बीमारी और न कोई आसन्‍न दुख...बस,सीने में दर्द हुआ। अस्‍पताल पहुंची और दो-तीन घेटों के अंदर त्रहैं ’ से ‘ थीं ’ हो गईं। जीवन क्षणभंगुर है। अगले पल क्‍या हो,नहीं मालूम। हिंदी फिल्‍मों की पसंदीदा और खुशमिजाज मां रीमा लागू अब नहीं रहीं। सभी अवाक हैं,क्‍योंकि कोई इस खबर के लिए तैयार नहीं था। हिंदी फिल्‍मों में वह जिन सितारों की मां बनती रहीं,उनसे उनकी उम्र 7 से 10 साल ही अधिक रही होगी। फिर भी पर्दे पर उम्र का फासला और वात्‍सल्‍य दिखता था। वह मां लगती थीं। थिएटर एक्‍टर मंदाकनी भड़भड़े की बेटी रीमा ने थिएटर से ही करिअर आरंभ किया। सबसे पहले 1988 में मंसूर खान ने ‘ कयामत से कयामत तक ’ में उन्‍हें मां की भूमिका दी। उसके बाद वह अरूणा राजे की ‘ रिहाई ’ में दिखीं। इस विवादास्‍पद किरदार में से वह चर्चा में रही,लेकिन अगले ही साल ‘ मैंने प्‍यार किया ’ में सलमान खान की मां बनते ही वह हर-हमेशा के लिए मां के रूप में हिंदी फिल्‍मों का फिक्‍स किरदार हो गईं। उन्‍हो

निदा फाजली : तंज और तड़प है उनके लेखन में

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-अजय ब्रह्मात्‍मज     खार दांडा में स्थित उनका फ्लैट मुंबई आए और बसे युवा पत्रकारों और साहित्‍यकारों का अड्डा था। न कोई निमंत्रण और ना ही कोई रोक। उनके घर का दरवाजा बस एक कॉल बेल के इंतजार में खुलने के लिए तैयार रहता था। आप किसी के साथ आएं या खुद पहुंच जाएं। उनकी बैठकी में सभी के लिए जगह होती थी। पहली मुलाकात में ही बेतकल्‍लुफ हो जाना और अपनी जिंदादिली से कायल बना लेना उनका बेसिक मिजाज था। बातचीत और बहस में तरक्‍कीपसंद खयालों से वे लबालब कर देते थे। विरोधी विचारों को उन्‍हें सुनने में दिक्‍कत नहीं होती थी, लेकिन वे इरादतन बहस को उस मुकाम तक ले जाते थे, जहां उनसे राजी हो जाना आम बात थी। हिंदी समाज और हिंदी-उर्दू साहित्‍य की प्रगतिशील धाराओं से परिचित निदा फाजली के व्‍यक्तित्‍व, शायरी और लेखन में आक्रामक बिंदासपन रहा। वे मखौल उड़ाते समय भी लफ्जों की शालीनता में यकीन रखते थे। शायरी की शालीनता और लियाकत उनकी बातचीत और व्‍यवहार में भी नजर आती थी। आप अपनी व्‍यक्तिगत मुश्किलें साझा करें तो बड़े भाई की तरह उनके पास हल रहते थे। और कभी पेशे से संबंधित खयालों की उलझन हो तो वे अपने अनु

श्रद्धांजलि : रवींद्र जैन

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-अजय ब्रह्मात्‍मज     हिंदी फिल्‍मों में गीत-संगीत के क्षेत्र में अपनी मधुरता के लिए मशहूर रवींद्र जैन की वाणी भी मधुर थी। चंद मुलाकातों में हुई बातचीत में ही वे आवाज के आरोह-अवरोह से सभी की पृथक पहचान कर लेते थे। परिचितों के बीच उन्‍हें संबोधित करते हुए उनकी आवाज की खनक से संबंध की सांद्रता झलकती थी। इनकी बोली और बातचीत में लय थी। बोलते थे तो मानो कोई नदी निश्चित पगवाह से अविरल बह र‍ही हो।     सात भाई-बहनों में से तीसरे रवींद्र जैन जन्‍म से ही दृष्टि बाधित थे। उनके मन की आंखें खुली थीं। बचपन से ही संगीत और गायकी को शौक रहा। पहले कोलकाता और फिर मुंबई में वे फिल्‍मों के संपर्क में आए। उन्‍होंने 1972 से ही संगीत रचना आरंभ कर दी थीं। ‘ कांच और हीरा ’ उनकी पहली फिल्‍म थीं। 1973 में आई अमिताभ बच्‍चन की फिल्‍म ‘ सौदागर ’ से उन्‍हें ख्‍याति मिली।इस फिल्‍म के सारे गीत लोकप्रिय हुए थे। रवींद्र जैन ने आरंभ में राजश्री की फिल्‍मों के लिए गीत-संगीत तैयार किए। राजश्री की फिल्‍म ‘ अंखियों के झरोखे से ’ के शीर्षक गीत ने उन्‍हें बड़ी लोकप्रियता दी। राजश्री से उनका रिश्‍ता ‘ एक विवाह ऐसा