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शोमैन सुभाष घई ला रहे हैं ‘कांची’

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-अजय ब्रह्मात्मज     पांच सालों के बाद सुभाष घई ‘कांची’ निर्देशित कर रहे हैं। पिछली फिल्म ‘युवराज’ की असफलता के साथ फिल्म स्कूल ह्विस्लिंग वुडस इंटरनेशनल के विवाद में आने से क्षुब्ध सुभाष घई को फिर से निर्देशक की कुर्सी पर बैठने में वक्त लगा। कमर्शियल मसाला सिनेमा के लब्ध प्रतिष्ठ निर्देशक सुभाष घई को शोमैन भी कहा जाता है। राज कपूर के बाद यह खिताब उन्हें ही मिला है। ‘कालीचरण’  से लेकर ‘युवराज’  तक की निर्देशकीय यात्रा में सुभाष घई ने दर्शकों का विविध मनोरंजन किया है। ‘किसना’ और ‘युवराज’ असफल रहने पर उनके आलोचकों ने कहना शुरू कर दिया था कि ‘परदेस’ के बाद सुभाष घई भटके और फिर चूक गए। निश्चित ही समय बदल चुका है। सुभाष घई को मनोरंजक तेवर दिखाने के मौके नहीं मिल पा रहे हैं। उन्होंने 2008 में ही ‘ब्लैक एंड ह्वाइट’ जैसी छोटी और संवेदनशील फिल्म निर्देशित की थी। अब वह ‘कांची’ लेकर आ रहे हैं।     सुभाष घई की फिल्मों के नाम में फिल्म का कथ्य छिपा रहता है। इस मायने में वे पारंपरिक और शास्त्रीय अप्रोच ही रखते हैं। ‘कांची’ टायटल के बार में बताते समय वे उसके विरोधाभासी नेचर पर जोर देते है

दिग्ग्ज फिल्मकार है खामोश

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछली सदी के आखिरी दशक तक सक्रिय फिल्मकार अचानक निष्क्रिय और खामोश दिखाई पड़ रहे हैं। सच कहें तो उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि वे किस प्रकार की फिल्में बनाएं? उनका सिनेमा पुराना पड़ चुका है और नए सिनेमा को वे समझ नहीं पा रहे हैं। परिणाम यह हुआ किअसमंजस की वजह से उनके प्रोडक्शन हाउस में कोई हलचल नहीं है। सन् 2001 के बाद हिंदी सिनेमा बिल्कुल नए तरीके से विकसित हो रहा है। कहा जा सकता है कि सिनेमा बदल रहा है। हर पांच-दस साल पर जीवन के दूसरे क्षेत्रों की तरह सिनेमा में भी बदलाव आता है। इस बदलाव के साथ आगे बढ़े फिल्मकार ही सरवाइव कर पाते हैं, क्योंकि दर्शकों की रुचि बदलने से नए मिजाज की फिल्में ही बॉक्स ऑफिस पर बिजनेस कर पाती हैं। हाल-फिलहाल की कामयाब फिल्मों पर नजर डालें तो उनमें से कोई भी पुराने निर्देशकों की फिल्म नहीं है। यश चोपड़ा, सुभाष घई, जेपी दत्ता जैसे दर्जनों दिग्गज अब सिर्फ समारोहों की शोभा बढ़ाते मिलते हैं। इनमें से कुछ ने अपनी कंपनियों की बागडोर युवा वारिसों के हाथ में दे दी है या फिर गैरफिल्मी परिवारों से आए युवकों ने कमान संभाल ली है। अब वे तय कर रहे हैं कि

फिल्‍म समीक्षा : कशमकश

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पुराने अलबम सी -अजय ब्रह्मात्‍मज 0 यह गुरूदेव रवींद्रनाथ टैगोर की रचना नौका डूबी पर इसी नाम से बनी बांग्ला फिल्म का हिंदी डब संस्करण है। इसे संवेदनशील निर्देशक रितुपर्णो घोष ने निर्देशित किया है। बंगाली में फिल्म पूरी होने के बाद सुभाष घई को खयाल आया कि इसे हिंदी दर्शकों के लिए हिंदी में डब किया जाना चाहिए। उन्होंने फिल्म का शीर्षक बदल कर कशमकश रख दिया। वैसे नौका डूबी शीर्षक से भी हिंदी दर्शक इसे समझ सकते थे। 0 चूंकि हिंदी में फिल्म को डब करने का फैसला बाद में लिया गया है, इसलिए फिल्म का मूल भाव डबिंग में कहीें-कहीं छूट गया है। खास कर क्लोजअन दृश्यों में बोले गए शब्द के मेल में होंठ नहीं हिलते तो अजीब सा लगता है। कुछ दृश्यों में सिर्फ लिखे हुए बंगाली शब्द आते हैं। उन्हें हम संदर्भ के साथ नहीं समझ पाते। इन तकनीकी सीमाओं के बावजूद कशमकश देखने लायक फिल्म है। कोमल भावनाओं की बंगाली संवेदना से पूर्ण यह फिल्म रिश्तों की परतों को रचती है। 0 किसी पुराने अलबम का आनंद देती कशमकश की दुनिया ब्लैक एंड ह्वाइट है। इस अलबम के पन्ने पलटते हुए रिश्तों की गर्माहट के पुरसुकून एहसास का नास्टैलजिक प्रभाव

फ़िल्म समीक्षा:युवराज

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पुरानी शैली की भावनात्मक कहानी युवराज देखते हुए महसूस होता रहा कि मशहूर डायरेक्टर अपनी शैली से अलग नहीं हो पाते। हर किसी का अपना अंदाज होता है। उसमें वह सफल होता है और फिर यही सफलता उसकी सीमा बन जाती है। बहुत कम डायरेक्टर समय के साथ बढ़ते जाते हैं और सफल होते हैं। सुभाष घई की कथन शैली, दृश्य संरचना, भव्यता का मोह, सुंदर नायिका और चरित्रों का नाटकीय टकराव हम पहले से देखते आ रहे हैं। युवराज उसी परंपरा की फिल्म है। अपनी शैली और नाटकीयता में पुरानी। लेकिन सिर्फ इसी के लिए सुभाष घई को नकारा नहीं जा सकता। एक बड़ा दर्शक वर्ग आज भी इस अंदाज की फिल्में पसंद करता है। युवराज तीन भाइयों की कहानी है। वे सहोदर नहीं हैं। उनमें सबसे बड़ा ज्ञानेश (अनिल कपूर) सीधा और अल्पविकसित दिमाग का है। पिता उसे सबसे ज्यादा प्यार करते हैं। देवेन (सलमान खान) हठीला और बदमाश है। उसे अनुशासित करने की कोशिश की जाती है, तो वह और अडि़यल हो जाता है। पिता उसे घर से निकाल देते हैं। सबसे छोटा डैनी (जाएद खान) को हवाबाजी अच्छी लगती है। देवेन और डैनी पिता की संपत्ति हथियाने में लगे हैं। ज्ञानेश रुपये-पैसों से अनजान होने के बावजू

युवराज भव्य सिनेमाई अनुभव देगा: सुभाष घई

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सुभाष घई का अंदाज सबसे जुदा होता है। इसी अंदाज का एक नजारा युवराज में दर्शकों को मिलेगा। युवराज के साथ अन्य पहलुओं पर प्रस्तुत है बातचात- आपकी युवराज आ रही है। इस फिल्म की झलकियां देख कर कहा जा रहा है कि यह सुभाष घई की वापसी होगी? मैं तो यही कहूंगा कि कहीं गया ही नहीं था तो वापसी कैसी? सुभाष घई का जन्म इस फिल्म इंडस्ट्री में हुआ है। उसका मरण भी यहीं होगा। हां, बीच के कुछ समय में मैं आने वाली पीढ़ी और देश के लिए कुछ करने के मकसद से फिल्म स्कूल की स्थापना में लगा था। पंद्रह साल पहले मैंने यह सपना देखा था। वह अभी पूरा हुआ। ह्विस्लिंग वुड्स की स्थापना में चार साल लग गए। पचहत्तर करोड़ की लागत से यह इंस्टीट्यूट बना है। मैं अपना ध्यान नहीं भटकाना चाहता था, इसलिए मैंने फिल्म निर्देशन से अवकाश ले लिया था। पिछले साल मैंने दो फिल्मों की योजना बनायी। एक का नाम ब्लैक एंड ह्वाइट था और दूसरी युवराज थी। पहली सीरियस लुक की फिल्म थी। युवराज कमर्शियल फिल्म है। मेरी ऐसी फिल्म का दर्शकों को इंतजार रहा है, इसलिए युवराज के प्रोमो देखने के बाद से ही सुभाष घई की वापसी की बात चल रही है। सुभाष घई देश के प्रमुख ए

ब्लैक एंड ह्वाइट:दुनिया और भी रंगों में जीती और मुस्कराती है

-अजय ब्रह्मात्मज चलिए पहले तारीफ करें शोमैन सुभाष घई की। उन्होंने अपनी ही लीक छोड़कर कुछ वास्तविक सी फिल्म बनाई है। आतंकवाद को भावुक दृष्टिकोण से उठाया है। उनकी शैली में खास बदलाव दिखता है, चांदनी चौक की रात और दिन के दृश्यों में उन्होंने दिल्ली को एक अलग रंग में पेश किया है। सुभाष घई की इस कोशिश से दूसरे फार्मूला फिल्मकार भी प्रेरित हों तो अच्छी बात होगी। नुमैर काजी (अनुराग सिन्हा) नाम का युवक अफगानिस्तान से भारत आता है। वह जेहादी है, उसका मकसद है दिल्ली के लाल किले में बम विस्फोट। उसे चांदनी चौक के निवासी गफ्फार नजीर के गुजरात के दंगों में उजड़ गए भाई के बेटे की पहचान दी गई है। अपने मकसद को पूरा करने के लिए नुमैर के पास हैं महज 15 दिन। दिल्ली में उसकी मदद के लिए कई लोगों का इंतजाम किया जाता है। नुमैर काजी की मुलाकात उर्दू के प्रोफेसर राजन माथुर (अनिल कपूर) से हो जाती है। राजन को नुमैर से सहानुभूति होती है। नुमैर सहानुभूति का फायदा उठाता है और उनके दिल और घर दोनों में अपनी जगह बना लेता है। उन्हीं के साथ रहने लगता है। राजन माथुर की फायरब्रांड बीवी रोमा (शेफाली शाह) पहले उसे पसंद नहीं क

अनुराग सिन्हा:उदित हुआ एक सितारा

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दूर-दूर तक अनुराग सिन्हा का फ़िल्म इंडस्ट्री से कोई रिश्ता नहीं है.वे हिन्दी फिल्मों के मशहूर सिन्हा के रिश्तेदार भी नहीं हैं.हाँ,फिल्मों से उनका परिचय पुराना है.अपने परिवार के साथ पटना के अशोक और मोना में फिल्में देख कर वे बड़े हुए हैं.मन के एक कोने में सपना पलता रहा कि फिल्मों में जाना है... एक्टिंग करनी है.आज वह सपना पूरा हो चुका है.अनुराग सिन्हा कि पहली फ़िल्म ७ मार्च को देश-विदेश में एक साथ रिलीज हो रही है.इस फ़िल्म में उनहोंने नाराज़ मुसलमान युवक नुमैर काजी की भूमिका निभाई है और फ़िल्म का नाम है ब्लैक एंड ह्वाइट . यह हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री की एक ऐतिहासिक घटना है.लंबे समय के बाद हिन्दी प्रदेश से आया कोई सितारा हिन्दी फिल्मों के आकाश में चमकने जा रहा है.गौर करें तो पायेंगे कि हिन्दी फिल्मों में हिन्दी प्रदेशों से सितारे नहीं आते.चवन्नी तो मानता है कि उन्हें आने ही नहीं दिया जाता.अगर कभी कोई मनोज बाजपेयी या आशुतोष राणा आ भी जाता है तो उसे किसी न किसी तरह किनारे करने या उसकी चमक धूमिल करने की कोशिश की जाती है.हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री के गलियारों में कुचले गए सपनों की दास्ताँ आम है.

सामाजिक मुद्दे मुझे छूते हैं: सुभाष घई

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-अजय ब्रह्मात्मज चर्चा है कि शोमैन सुभाष घई एक छोटी फिल्म ब्लैक एंड ह्वाइट लेकर आ रहे हैं? मैं छोटी नहीं, एक भिन्न फिल्म लेकर आ रहा हूं। वैसे, फिल्म छोटी या बड़ी रिलीज के बाद होती है। तारे जमीं पर को लोग छोटी फिल्म समझ रहे थे, लेकिन आज वह सबसे बड़ी हिट है। दर्शकों की स्वीकृति से फिल्म छोटी या बड़ी होती है। दरअसल, जब हम किसी फिल्म को छोटी फिल्म कहते हैं, तो उसका मतलब होता है रिअल लाइफ जैसी फिल्म, जिसमें आम जिंदगी के तनाव, संघर्ष और द्वंद्व रहते हैं। मेरी ज्यादातर फिल्में लार्जर दैन लाइफ थीं। उनमें ग्लैमर रहा, बड़े-बड़े स्टार रहे और बड़ी फिल्में रहीं। फिर इस बदलाव की वजह? जब मैंने इस फिल्म की कहानी सुनी, तो मुझसे कहानी ने कहा कि अगर आप रिअल में शूट करोगे, तो मैं चलूंगा। दरअसल, एक सच्चाई यह भी है कि हर फिल्म की कहानी ही भाषा, शैली, बजट, विस्तार, गहराई और भव्यता तय करती है। कुछ फिल्में भव्य होती हैं और कुछ गहरी होती हैं। ब्लैक ऐंड ह्वाइट गहरी फिल्म है। गहरी फिल्म को अगर आप छोटी कहेंगे, तो मुझे ऐतराज होगा। यह गहरी और विचारधारा की फिल्म है। इसे देखकर लोग कहेंगे कि घई ने ऐसी फिल्म क्यों बनाई