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फिल्‍म समीक्षा : ओह माय गॉड

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प्रपंच तोड़ती, आस्था जगाती -अजय ब्रह्मात्मज परेश रावल गुजराती और हिंदी में 'कांजी वर्सेस कांजी' नाट सालों से करते आए हैं। उनके शो में हमेशा भीड़ रहती है। हर शो में वे कुछ नया जोड़ते हैं। उसे अद्यतन करत रहते हैं। अब उस पर 'ओह माय गॉड' फिल्म बन गई। इसे उमेश शुक्ला ने निर्देशित किया है। फिल्म की जरूरत के हिसाब से स्क्रिप्ट में थोड़ी तब्दीली की गई है। नाटक देख चुके दर्शकों को फिल्म का अंत अलग लगेगा। वैसे नाटक में इस अंत की संभावना जाहिर की गई है। उमेश शुक्ल के साथ परेश रावल और अक्षय कुमार के लिए 'ओह माय गॉड' पर फिल्म बनाना साहसी फैसला है। धर्मभीरू देश केदर्शकों के बीच ईश्वर से संबंधित विषयों पर प्रश्नचिह्न लगाना आसान नहीं है। फिल्म बड़े सटीक तरीके से किसी भी धर्म की आस्था पर चोट किए बगैर अपनी बात कहती है। फिल्म का सारा फोकस ईश्वर के नाम पर चल रहे ताम-झाम और ढोंग पर है। धर्मगुरू बने मठाधीशों के धार्मिक प्रपंच को उजागर करती हुई 'ओह माय गॉड' दर्शकों को स्पष्ट संदेश देती है कि ईश्वर की आराधना की रुढि़यों और विधि-विधानों से निकलने की जरूरत है।

फ‍िल्‍म समीक्षा : खाप

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ऑनर किलिंग का मुद्दा -अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले कुछ समय से खबरों में आए खाप और ऑनर किलिंग के विषय पर अजय सिन्हा की खाप जरूरी मुद्दे का छूती है। उत्तर भारत के कुछ इलाकों में प्रचलित खाप व्यवस्था में जारी पुराने रीति-रिवाज को निशाना बनाती पर फिल्म बखूबी स्थापित करती है कि ऑनर किलिंग के नाम पर चल रहा अत्याचार एक जुर्म है। खाप की समस्या है कि कथ्य की आरंभिक सघनता बाद में बरकरार नहीं रहती। गांव से शहर आने के बाद कहानी की तीव्रता कम होती है। और मुद्दा हल्का हो जाता है। अजय सिन्हा ने सिर्फ सगोत्र विवाह को ऑनर किंलिंग की वजह बताया है, जबकि ऑनर किलिंग ज्यादा बड़ी समस्या है। इसमें अमीर-गरीब, जातियों और धर्मो की भिन्नता आदि भी शामिल हैं। खाप पंचायतों के पक्ष में कही गई बातों से ऐसा लगता है कि निर्देशक संतुलन बनाने की कोशिश कर रहे हैं। फिल्म का कथ्य यहीं कमजोर पड़ जाता है। सामाजिक विसंगति पर आरंभ हुई फिल्म साधारण इमोशनल ड्रामे में बदल जाती है। खाप मुख्य रूप से सहयोगी कलाकारों के दम पर टिकी है। ओम पुरी, गोविंद नामदेव और मनोज पाहवा ने अपने किरदारों को अच्छी तरह निभाया है। खास कर मनोज पाहवा