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फिल्‍म समीक्षा : बजाते रहो

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-अजय ब्रह्मात्‍मज दिल्ली में ठग रहते हैं। 'दिल्ली का ठग' से लेकर 'बजाते रहो' तक में हम उन्हें अलग-अलग रूपों में हिंदी फिल्मों में देखते रहे हैं। 'बजाते रहो' का ठग सबरवाल एक बैंक का मालिक है। वह चंद सालों में रकम बढ़ाने का झांसा देकर 15 करोड़ रुपए जमा करता है। देनदारी के समय रकम नहीं लौटा पाने की स्थिति में वह साफ मुकर जाता है। गाज एक कर्मचारी पर गिरती है। वे इस बेइज्जती को बर्दाश्त नहीं कर पाते। फिल्म की कहानी यहीं से शुरू होती है। सबरवाल काइयां, शातिर और मृदुभाषी ठग है। फ्रॉड और झांसे के दम पर उसने अपना बिजनेस फैला रखा है। कर्मचारी का परिवार मुसीबत में आने के बाद अनोखे किस्म से बदला लेता है। परिवार के सभी सदस्य मिल कर सबरवाल को चूना लगाने की युक्ति में जुट जाते हैं। वे अपनी तिकड़मों से इसमें सफल भी होते हैं। 'बजाते रहो' मजेदार कंसेप्ट की फिल्म है, लेकिन लेखक-निर्देशक ने इस कंसेप्ट को अधिक गहराई से नहीं चित्रित किया है। उनके पास समर्थ कलाकारों की अच्छी टीम थी। फिर भी आधे-अधूरे का एहसास बना रह जाता है। किरदारों की विस्तार नहीं दिया ग

चाहता हूं दर्शक खुद को टटोलें ‘मैक्सिमम’ देखने के बाद -कबीर कौशिक

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  -अजय ब्रह्मात्‍मज   हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के शोरगुल और ग्लैमर में भी कबीर कौशिक ने अपना एकांत खोज लिया है। एडवल्र्ड से आए कबीर अपनी सोच-समझ से खास परिपे्रक्ष्य की फिल्में निर्देशित करते रहते हैं। किसी भी बहाव या झोंके में आए बगैर वे वर्तमान में तल्लीन और समकालीन बने रहते हैं। ‘सहर’ से उन्होंने शुरुआत की। बीच में ‘चमकू’ आई। निर्माता से हुए मतभेद के कारण उन्होंने उसे अंतिम रूप नहीं दिया था। अभी उनकी ‘मैक्सिमम’ आ रही है। यह भी एक पुलिसिया कहानी है। पृष्ठभूमि सुपरिचित और देखी-सुनी है। इस बार कबीर कौशिक ने मुंबई पुलिस को देखने-समझने के साथ रोचक तरीके से पेश किया है।    कबीर फिल्मी ताम झाम से दूर रहते हैं। उनमें एक आकर्षक अकड़ है। अगर वेबलेंग्थ न मिले तो वे जिद्दी, एकाकी और दृढ़ मान्यताओं के निर्देशक लग सकते हैं। कुछ लोग उनकी इस आदत से भी चिढ़ते हैं कि वे फिल्म निर्देशक होने के बावजूद सूट पहन कर आफिस में बैठते हैं। यह उनकी स्टायल है। उन्हें इसमें सहूलियत महसूस होती है। बहरहाल, वीरा देसाई स्थित उनके दफ्तर में ‘मैक्सिमम’ और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री पर ढेर सारी बातें हुई पेश हैं कुछ प्

फिल्‍म समीक्षा : पप्‍पू कांट डांस साला

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-अजय ब्रह्मात्‍मज दो पृष्ठभूमियों से आए विद्याधर और महक संयोग से टकराते हैं। दोनों अपने सपनों के साथ मुंबई आए है। उनके बीच पहले विकर्षण और फिर आकर्षण होता है। सोच और व्यवहार की भिन्नता के कारण उनके बीच झड़प होती रहती है। यह झड़प ही उनके अलगाव का कारण बनता है और फिर उन्हें अपनी तड़प का एहसास होता है। पता चलता है कि वे एक-दूसरे की जिंदगी में दाखिल हो चुके हैं और साथ रहने की संतुष्टि चाहते हैं। ऐसी प्रेमकहानियां हिंदी फिल्मों के लिए नई नहीं हैं। फिर भी सौरभ शुक्ला की फिल्म पप्पू कांट डांस साला चरित्रों के चित्रण, निर्वाह और परिप्रेक्ष्य में नवीनता लेकर आई है। सौरभ शुक्ला टीवी के समय से ऐसी बेमेल जोडि़यों की कहानियां कह रहे हैं। उनकी कहानियों का यह स्थायी भाव है। नायक थोड़ा दब्बू, पिछड़ा, भिन्न, कुंठित, जटिल होता है। वह नायिका के समकक्ष होने की कोशिश में अपनी विसंगतियों से हंसाता है। इस कोशिश में उसकी वेदना और संवेदना जाहिर होती है। पप्पू कांट डांस साला की मराठी मुलगी महक और बनारसी छोरा विद्याधर में अनेक विषमताएं हैं, लेकिन मुंबई में पहचान बनाने की कोशिश में दोनों समांतर पटरियों पर च

फिल्‍म समीक्षा : भेजा फ्राय 2

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पिछली से कमजोर -अजय ब्रह्मात्‍मज सिक्वल की महामारी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में फैल चुकी है। भेजा फ्राय 2 उसी से ग्रस्त है। पिछली फिल्म की लोकप्रियता को भुनाने की कोशिश में नई फिल्म विफल रहती है। सीधी वजह है कि मुख्य किरदार भारत भूषण पिछली फिल्म की तरह सहयोगी किरदार को चिढ़ाने और खिझाने में कमजोर पड़ गए हैं। दोनों के बीच का निगेटिव समीकरण इतना स्ट्रांग नहीं है कि दर्शक हंसें। पिछली फिल्म में विनय पाठक को रजत कपूर और रणवीर शौरी का सहयोग मिला था। इस बार विनय पाठक के कंधों पर अकेली जिम्मेदारी आ गई है। उन्होंने अभिनेता के तौर पर हर तरह से उसे रोचक और जीवंत बनाने की कोशिश की है लेकिन उन्हें लेखक का सपोर्ट नहीं मिल पाया है। के के मेनन को भी लेखक ठीक से गढ़ नहीं पाए है। फिल्म भी कमरे से बाहर निकल गई है,इसलिए किरदारों को अधिक मेहनत करनी पड़ी है। बीच में बर्मन दा के फैन के रूप में जिस किरदार को जोड़ा गया है, वह चिप्पी बन कर रह गया है। फिल्म में और भी कमजोरियां हैं। क्रूज के सारे सीन जबरदस्ती रचे गए लगते हैं। संक्षेप में पिछली फिल्म जितनी नैचुरल लगी थी, यह उतनी ही बनावटी लगी है। इस

फिल्‍म समीक्षा : चलो दिल्‍ली

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-अजय ब्रह्मात्‍मज * मध्यवर्ग के मूल्य, आदर्श, प्रेम और उत्सवधर्मिता से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। चलो दिल्ली में निर्देशक शशांत शाह की यह कोशिश रंग लाई है। उन्होंने इस संदेश के लिए एक उच्चवर्गीय और एक मध्यवर्गीय किरदार के साथ जयपुर से दिल्ली का सफर चुना है। *मनु गुप्ता दिल्ली के चांदनी चौक के निवासी हैं। मनु गुप्ता की करोलबाग में लेडीज आयटम की दुकान है। वे गुटखे के शौकीन हैं और धारीदार अंडरवियर पहनते हैं। मिहिका बनर्जी मुंबई की एक कारपोरेट कंपनी की मालकिन हैं, जिनके अधीन 500 से अधिक लोग काम करते हैं। वह आधुनिक शहरी कारपोरेट कन्या हैं, जिनकी हर बात और काम में सलीका है। *बात तब बिगड़ती है, जब दोनों परिस्थितिवश एकही सवारी से जयपुर से दिल्ली के लिए निकलते हैं। मनु गुप्ता के लिए कोई भी घटना-दुर्घटना कोई बड़ी बात नहीं है, जबकि मिहिका बनर्जी हर बात पर भिनकती और झिड़कती रहती है। अलग-अलग परिवेश और उसकी वजह से भिन्न स्वभाव के दो व्यक्तियों का हमसफर होना ही हंसी के क्षण जुटाता है। *जयपुर से दिल्ली के सफर में कई ब्रेक लगते हैं। मनु और मिहिका को इलाके में प्रचलित हर सवारी का सहारा लेन

पाँव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे-लारा दत्‍ता

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-अजय ब्रह्मात्‍मज लारा दत्ता के जीवन में उत्साह का संचार हो गया है। हाल ही में महेश भूपति से उनकी शादी हुई है। 16 अप्रैल को उनका जन्मदिन था और इसी महीने 29 अप्रैल को उनके प्रोडक्शन हाउस भीगी बसंती की पहली फिल्म 'चलो दिल्ली' रिलीज हो रही है। उनसे बातचीत के अंश- इस सुहाने मोड़ पर कितने सुकून, संतोष और जोश में हैं आप? हर इंसान की जिंदगी में कभी न कभी ऐसा मोड़ आता है, जब वह खुद को सुरक्षित और संतुष्ट महसूस करता है। मैं अभी उसी मोड़ पर हूं। एक औरत होने के नाते कॅरिअर के साथ यह टेंशन बनी रहती है कि शादी तो करनी ही है। वह ठीक से हो जाए। लड़का अच्छा हो। ग्लैमरस कॅरिअर में आने से एक लाइफस्टाइल बन जाती है। हम खुद के लिए उसे तय कर लेते हैं। कोशिश रहती है कि ऐसा लाइफ पार्टनर मिले, जो साथ चल सके। मैं अभी बहुत खुश हूं। मेरी शादी एक ऐसे इंसान से हुई है, जो मुझे कंट्रोल नहीं करता। मेरे कॅरिअर और च्वाइस में उनका भरपूर सपोर्ट मिलता है। अभी लग रहा है कि मैं सब कुछ हासिल कर सकती हूं। मेरा ऑब्जर्वेशन है कि आपने टैलेंट का सही इस्तेमाल नहीं किया या यों कहें कि फिल्म इंडस्ट्री ने आप को वाजिब मौके नहीं