Posts

Showing posts with the label गैंग्‍स ऑफ वासेपुर

naman ramchandran on anurag kashyap

Image
नमन रामचंद्रन का यह लेख अनुराग कश्‍यप के निर्देशन और उनकी फिल्‍म गैंग्‍स ऑफ वासेपुर को समझने की नई दृष्टि देता है। यह लेख पत्रिका के sight and sound मार्च अंक में छपा है। अनुराग के आलोचकों और प्रशंसकों दोनों के निमित्‍त है यह लेख्‍ा... Naman Ramachandran Friday, 22 February 2013 from our March 2013 issue Keeping Bollywood routines at ironic distance, Anurag Kashyap’s sprawling, scintillating gangster saga could be the international breakout that Indian cinema has been waiting for. Anurag Kashyap first came to prominence in filmmaking circles for writing Ram Gopal Varma’s Satya (1998), one of Indian cinema’s best examples of the gangster genre. However, his feature-directing debut, the visceral abduction drama Paanch (2003), went unreleased; his next film, Black Friday (2004), a procedural about the 1993 Mumbai bomb blasts, was initially banned in India and re

छोटी फिल्मों को मिले पुरस्कार

Image
-अजय ब्रह्मात्मज     हिंदी फिल्मों के निमित्त तीन बड़े पुरस्कारों की घोषणा हो चुकी है। इस बार सभी पुरस्कारों की सूची गौर से देखें तो एक जरूरी तब्दीली पाएंगे। जी सिने अवार्ड, स्क्रीन अवार्ड और फिल्मफेअर अवार्ड तीनों ही जगह ‘बर्फी’ और ‘कहानी’ की धूम रही। इनके अलावा ‘इंग्लिश विंग्लिश’, ‘विकी डोनर’, ‘पान सिंह तोमर’ और ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के कलाकारों और तकनीशियनों को पुरस्कृत किया गया है। अपेक्षाकृत युवा और नई प्रतिभाओं को मिले सम्मान से जाहिर हो रहा है कि दर्शकों एवं निर्णायकों की पसंद बदल रही है। उन पर दबाव है। दबाव है कथ्य और उद्देश्य का। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री दावा और यकीन करती है कि मनोरंजन और मुनाफा ही सिनेमा के अंतिम लक्ष्य हैं। खास संदर्भ में यह धारणा सही होने पर भी कहा जा सकता है कि सिनेमा सिर्फ मनोरंजन और मुनाफा नहीं है।     पुरस्कारों की सूची पर नजर डालें तो इनमें एक ‘बर्फी’ के अलावा और कोई भी 100 करोड़ी फिल्म नहीं है। 100 करोड़ी फिल्मों के कलाकारों और तकनीशियनों को पुरस्कार के योग्य नहीं माना गया है। ‘जब तक है जान’, ‘राउडी राठोड़’ और ‘दबंग-2’ के छिटपुट रूप से कुछ परस्कार, मिल

बच्चन सिनेमा और उसकी ईर्ष्यालु संतति-गिरिराज किराडू

Image
चवन्‍नी के पाठकों के लिए यह लेख जानकीपुल से कट-पेस्‍ट किया जा रहा है.... अनुराग कश्यप ने सिनेमा की जैसी बौद्धिक संभावनाएं जगाई थीं उनकी फ़िल्में उन संभावनाओं पर वैसी खरी नहीं उतर पाती हैं. 'गैंग्स ऑफ वासेपुर'  का भी वही हाल हुआ. इस फिल्म ने सिनेमा देखने वाले बौद्धिक समाज को सबसे अधिक निराश किया है. हमारे विशेष आग्रह पर कवि-संपादक-आलोचक  गिरिराज किराडू  ने इस फिल्म का विश्लेषण किया है, अपने निराले अंदाज में- जानकी पुल. ============================================ [ गैंग्स ऑफ वासेपुर  की 'कला' के बारे में बात करना उसके फरेब में आना है, उसके बारे में उस तरह से बात करना है जैसे वह चाहती है कि उसके बारे में बात की जाए. समीरा मखमलबाफ़ की 'तख़्त-ए-सियाह' के बाद फिल्म पर लिखने का पहला अवसर है. गर्मियों की छुट्टियाँ थीं, दो बार (एक बार सिंगल स्क्रीन एक बार मल्टीप्लेक्स) देखने जितना समय था और सबसे ऊपर जानकीपुल संपादक का हुक्म था] अमिताभ बच्चन अपनी फिल्मों में 'बदला' लेने में नाकाम नहीं होता. तब तो बिल्कुल नहीं जब वह बदला लेने के लिए अपराधी बन जाय.

फिल्‍म समीक्षा : गैंग्‍स ऑफ वासेपुर-रवीश कुमार

 (चेतावनी- स्टाररहित ये समीक्षा काफी लंबी है समय हो तभी पढ़ें, समीक्षा पढ़ने के बाद फिल्म देखने का फैसला आपका होगा ) डिस्क्लेमर लगा देने से कि फिल्म और किरदार काल्पनिक है,कोई फिल्म काल्पनिक नहीं हो जाती है। गैंग्स आफ वासेपुर एक वास्तविक फिल्म है। जावेद अख़्तरीय लेखन का ज़माना गया कि कहानी ज़हन से का़ग़ज़ पर आ गई। उस प्रक्रिया ने भी दर्शकों को यादगार फिल्में दी हैं। लेकिन तारे ज़मीन पर, ब्लैक, पिपली लाइव,पान सिंह तोमर, विकी डोनर, खोसला का घोसला, चक दे इंडिया और गैंग्स आफ वासेपुर( कई नाम छूट भी सकते हैं) जैसी फिल्में ज़हन में पैदा नहीं होती हैं। वो बारीक रिसर्च से जुटाए गए तमाम पहलुओं से बनती हैं। जो लोग बिहार की राजनीति के कांग्रेसी दौर में पनपे माफिया राज और कोइलरी के किस्से को ज़रा सा भी जानते हैं वो समझ जायेंगे कि गैंग्स आफ वासेपुर पूरी तरह एक राजनीतिक फिल्म है और लाइसेंसी राज से लेकर उदारीकरण के मछलीपालन तक आते आते कार्पोरेट,पोलिटिक्स और गैंग के आदिम रिश्तों की असली कहानी है। रामाधीर सिंह, सुल्तान, सरदार जैसे किरदारों के ज़रिये अनुराग ने वो भी दिखा दिया है जो इस फिल

फिल्‍म समीक्षा : गैंग्‍स ऑफ वासेपुर-गौरव सोलंकी

Image
गौरव सेलंकी के ब्‍नॉग रोटी कपड़ा और सिनेमा से साभार वासेपुर की हिंसा हम सबकी हिंसा है जिसने कमउम्र फ़ैज़लों से रेलगाड़ियां साफ़ करवाई हैं  मैं नहीं जानता कि आपके लिए ‘ गैंग्स ऑफ वासेपुर ’ गैंग्स की कहानी कितनी है, लेकिन मेरे लिए वह उस छोटे बच्चे में मौज़ूद है, जिसने अपनी माँ को अपने दादा की उम्र के एक आदमी के साथ सोते हुए देख लिया है, और जो उस देखने के बाद कभी ठीक से सो नहीं पाया, जिसके अन्दर इतनी आग जलती रही कि वह काला पड़ता गया, और जब जवान हुआ, तब अपने बड़े भाई से बड़ा दिखता था। फ़िल्म उस बच्चे में भी मौज़ूद है, जिसके ईमानदार अफ़सर पिता को उसी के सामने घर के बगीचे में तब क्रूरता से मार दिया गया, जब पिता उसे सिखा रहे थे कि फूल तोड़ने के लिए नहीं, देखने के लिए होते हैं। थोड़ी उस बच्चे में, जिसकी नज़र से फ़िल्म हमें उसके पिता के अपने ही मज़दूर साथियों को मारने के लिए खड़े होने की कहानी दिखा रही है। थोड़ी उस बच्चे में, जो बस रोए जा रहा है, जब बाहर उसके पिता बदला लेने का जश्न मना रहे हैं। थोड़ी कसाइयों के उस बच्चे में, जिस पर कैमरा ठिठकता है, जब उसके और उसके आसपास के घरों में स

फिल्‍म समीक्षा : गैंग्‍स ऑफ वासेपुर

Image
पर्दे पर आया सिनेमा से वंचित समाज -अजय ब्रह्मात्‍मज इस फिल्म का केवल नाम ही अंग्रेजी में है। बाकी सब कुछ देसी है। भाषा, बोली, लहजा, कपड़े, बात-व्यवहार, गाली-ग्लौज, प्यार, रोमांस, झगड़ा, लड़ाई, पॉलिटिक्स और बदला.. बदले की ऐसी कहानी हिंदी फिल्मों में नहीं देखी गई है। जिन दर्शकों का इस देश से संबंध कट गया है। उन्हें इस फिल्म का स्वाद लेने में थोड़ी दिक्कत होगी। उन्हें गैंग्स ऑफ वासेपुर भदेस, धूसर, अश्लील, हिंसक, अनगढ़, अधूरी और अविश्वसनीय लगेगी। इसे अपलक देखना होगा। वरना कोई खास सीन, संवाद, फायरिंग आप मिस कर सकते हैं। अनुराग कश्यप ने गैंग्स ऑफ वासेपुर में सिनेमा की पारंपरिक और पश्चिमी सोच का गर्दा उड़ा दिया है। हिंदी फिल्में देखते-देखते सो चुके दर्शकों के दिमाग को गैंग्स ऑफ वासेपुर झंकृत करती है। भविष्य के हिंदी सिनेमा की एक दिशा का यह सार्थक संकेत है। देश के कोने-कोने से अपनी कहानी कहने के लिए आतुर आत्माओं को यह फिल्म रास्ता दिखाती है। इस फिल्म में अनुराग कश्यप ने सिनेमाई साहस का परिचय दिया है। उन्होंने वासेपुर के ठीक सच को उसके खुरदुरेपन के साथ अनगिनत किरदारों क

नजरअंदाज होने की आदत पड़ गई थी- विनीत सिंह

Image
गैंग्‍स ऑफ वासेपुर के दानिश खान उर्फ विनीत सिंह बैग में कुछ कपडे और जेहन में सपने लेकर मुंबई आ गया. न रहने का कोई खास जुगाड़ था न किसी को जानता था. शुरूआत ऐसे ही होती है. पहले सपने होते हैं जिसे हम हर रोज़ देखते है,फिर वही सपना हमसे कुछ करवाता है, इसलिए सपना देखना ज़रूरी है. लेकिन सपना देखते वक़्त हम सिर्फ वही देखते हैं जो हम देखना चाहते हैं और जो हमें ख़ुशी देता है इसलिए सब कुछ बड़ा आसान लगता है. पर मुंबई जैसे शहर में जब  हकीकत से से दो-दो हाथ होता है तब काम आती है आपकी तयारी. क्यूंकि  यहाँ किसी डायरेक्‍टर या प्रोड्यूसर से मिलने में ही महीनो लग जाते हैं काम मिलना तो बहुत बाद की बात है.  बताने या कहने में दो-पांच साल एक वाक्य में निकल जाता है लेकिन ज़िन्दगी में ऐसा नहीं होता भाईi, वहां लम्हा-लम्हा करके जीना पड़ता है और मुझे बारह साल लग गए गैंग्स ऑफ़ वासेपुर  तक पहुँचते-पहुँचते. मेरी शुरुआत हुई एक टैलेंट हंट से जिसका नाम ही सुपरस्‍टार था. मै उसके फायनल राउंड का विजेता हुआ तो लगा कि गुरु काम हो गया. अब मेरी गाडी तो निकल पड़ी लेकिन बाहर से आये किसी बन्दे या बंदी के साथ

फिर से अनुराग कश्‍यप-2

Image
-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछली बार अनुराग कश्‍यप से हुई बातचीत का पहला अंश पोस्‍ट किय था। यह उस बातचीत का दूसरा और अंतिम अंश है। आप की प्रतिक्रिया और जिज्ञासा मुझे जोश देती है अनुराग कश्‍यप से बार-बार बात करने के लिए। आप के सवालों का इंतजार रहेगा। -लेकिन बिहार में सब अच्‍छा ही नहीं हो रहा है। वहां के सुशासन का स्‍याह चेहरा भी है। 0 वह हमें नहीं पता है। बिहार के लोग अच्‍छी तरह बता सकते हैं,क्‍योंकि वे वहां फंसे हुए हैं। कहानी का हमें पता चलेगा तो उस पर भी फिल्‍म बना सकते हैं। अच्‍छा या गलत जो भी आसपास हो रहा है,उसे सिनेमा में दर्ज किया जाना चाहिए। पाइंट ऑफ व्‍यू कोई भी हो सकता है। हमें अच्छी कहानी मिलेगी तो अच्छी फिल्म बनाएंगे।  - वासेपुर में सिनेमा का कितना इंफलुएंश है। 0 वासेपुर देखा जाए तो पूरे इंडियन सोसायटी का एक छोटा सा वर्सन है। वासेपुर कहीं न कहीं वही है। - इस फिल्म के पीछे जो गॉड फादर वाली बात की जाती है ? 0 ये कहानी वासेपुर की है। इस कहानी का ‘ गॉड फादर ’ से कुछ लेना देना नहीं है। लोग बिना पिक्चर देखे हुए बात करते हैं तो लोगों के हिसाब से क्या जवाब दूं। कहानी

मेरे पास खोने के लिए कुछ नहीं था-नवाजुद्दीन सिद्दिकी

Image
  -अजय ब्रह्मात्मज     (कई सालों तक नवाजुद्दीन सिद्दिकी गुमनाम चेहरे के तौर पर फिल्मों में दिखते रहे। न हमें उनके निभाए किरदार याद रहे और न वे खुद कभी लाइमलाइट में आए। उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री में पहचान बनाने की लंबी राह पकड़ी थी। शोहरत तो आंखों से ओझल रही। वे अपने वजूद के लिए पगडंडियों से अपनी राह बनाते आगे बढ़ते रहे। उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी। वे अनवरत चलते रहे। और अब अपनी खास शख्सियत और अदाकारी से नवाजुद्दीन सिद्दिकी ने सब कुछ हासिल कर लेने का दम दिखाया है। पिछले पखवाड़े कान फिल्म फेस्टिवल में उनकी दो फिल्में ‘मिस लवली’ और ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ प्रदर्शित की गई। इंटरनेशनल फेस्टिवल में मिली सराहना से उनके किसान माता-पिता और गंवई घरवालों का सीना चौड़ा हुआ होगा।)     दिल्ली से तीन घंटे की दूरी पर मुजफ्फरनगर जिले में बुढ़ाना गांव है। वहीं किसान परिवार में मेरा जन्म हुआ। घर में खेती-बाड़ी का काम था। पढ़ाई-लिखाई से किसी को कोई वास्ता नहीं था। अपने खानदान में मैंने पहली बार स्कूल में कदम रखा। उन दिनों जब पिता से पांच रुपए लेकर पेन खरीदा तो उनका सवाल था कि इसमें ऐसा क्या है कि पांच

फिर से अनुराग कश्‍यप

अनुराग से यह बातचीत उनके कान फिल्‍म फेस्विल जाने के पहले हुई थी। उस दिन वे बहुत व्‍यस्‍त थे। बड़ी मुश्किल से देश-विदेश के पत्रकारों से बातचीत और इंटरव्‍यू के बीच-बीच में मिले समय में यह साक्षात्‍कार हो पाया। इसका पहला अंश यहां दे रहा हूं। दूसरी कड़ी में आगे का अंश पोस्‍ट करूंगा।  - कान में चार फिल्मों का चुना जाना बड़ी खबर है, लेकिन फिल्म इंडस्ट्री ने अनसुना कर दिया। कोई हलचल ही नहीं है? 0 क्या कर सकते हैं। कुछ लोगों के व्यक्तिगत संदेश आए हैं। कुछ नहीं कह सकते। हमारी इंडस्ट्री ऐसी ही है। मेनस्ट्रीम की कोई फिल्म चुनी गई रहती तो बड़ी खबर बनती। इंडस्ट्री कभी हमारी कामयाबी को सेलिब्रेट नहीं करती। - हर छोटी बात पर ट्विट की बाढ़ सी आ जाती है। इस बार वहां भी शून्य ब सन्नाटा छाया है? 0 उन्हें लगता होगा कि हम योग्य फिल्ममेकर नहीं हैं। ये कौन से लोग हैं, जिनकी फिल्में जा रही हैं? इनसे अच्छी फिल्में तो हम बनाते हैं। इंडस्ट्री का यह भी तो भावना है। इंडस्ट्री का एक ही मानना है कि मैं जो फिल्में बनाता हूं। वह बहुत ही डार्क और वाहियात होती हैं। उन्हें यह भी लगता होगा कि ऐसी फिल्में कैसे चुन