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Showing posts from May, 2014

फिल्‍म समीक्षा : कुक्कू माथुर की झंड हो गई

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-अजय ब्रह्मात्मज कहीं की ईंट,कहीं का रोड़ा     जिगरी दोस्त पारिवारिक अपेक्षाओं और निजी आकांक्षाओं की वजह से अपनी-अपनी जिंदगी में मशगूल हो जाते हैं। अपनी जिंदगी में सुरक्षित और व्यवस्थित नहीं हो सका कुक्कू अपने दोस्त रोनी से छल करता है। इस कार्य में प्रभाकर उसकी मदद करता है। प्रभाकर आज के समय का ऐसा मददगार व्यक्ति है, जो जुगाड़ और प्रपंच के शॉर्टकट से सब कुछ हासिल करवा सकता है। इस शॉर्टकट के बुरे परिणाम भी सामने आते हैं। इस सफर में आखिरकार कुक्कू की आत्मा जागती है। वह अपने कुकर्मों को सुधारता है और फिर ़ ़ ़     अमन सचदेवा की फिल्म ‘कुक्कू माथुर की झंड हो गई’ की अवधारणा बहुत अच्छी है, मगर लेखक-निर्देशक इस अवधारणा को कागज पर उतारने में असफल हो गए हैं। हालांकि उन्होंने ऐसी फिल्मों के लिए आवश्यक सभी उपादान जोड़े हैं। सारी तिकड़में शामिल की हैं। शायद इसी ‘कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा’ की वजह से फिल्म अपनी बात नहीं कह पाती। कलाकारों में केवल प्रभाकर की भूमिका निभा रहे अमित स्याल ही संतुष्ट करते हैं। बाकी सभी कलाकारों का परफारमेंस बुरा है।     इस फिल्म के निर्माताओं में बिजॉय नांबियार का भी न

फिल्‍म समीक्षा : सिटीलाइट्स

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दुख मांजता है  -अजय ब्रह्मात्‍मज  माइग्रेशन (प्रव्रजन) इस देश की बड़ी समस्या है। सम्यक विकास न होने से आजीविका की तलाश में गावों, कस्बों और शहरों से रोजाना लाखों नागरिक अपेक्षाकृत बड़े शहरों का रुख करते हैं। अपने सपनों को लिए वहां की जिंदगी में मर-खप जाते हैं। हिंदी फिल्मों में 'दो बीघा जमीन' से लेकर 'गमन' तक हम ऐसे किरदारों को देखते-सुनते रहे हैं। महानगरों का कड़वा सत्य है कि यहां मंजिलें हमेशा आंखों से ओझल हो जाती हैं। संघर्ष असमाप्त रहता है। हंसल मेहता की 'सिटीलाइट्स' में कर्ज से लदा दीपक राजस्थान के एक कस्बे से पत्नी राखी और बेटी माही के साथ मुंबई आता है। मुंबई से एक दोस्त ने उसे भरोसा दिया है। मुंबई आने पर दोस्त नदारद मिलता है। पहले ही दिन स्थानीय लोग उसे ठगते हैं। विवश और बेसहारा दीपक को हमदर्द भी मिलते हैं। यकीनन महानगर के कोनों-अंतरों में भी दिल धड़कते हैं। दीपक को नौकरी मिल जाती है। एक दोस्त के बहकावे में आकर दीपक साजिश का हिस्सा बनता है, लेकिन क्या यह साजिश उसके सपनों को साकार कर सकेगी? क्या वह अपने परिवार के साथ सुरक्षित जिंदगी जी

श्रद्धांजलि - मेरे शिक्षक और लेखक जय दीक्षित

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-महेश भट्ट महेश भट्ट की ‘सर’,‘फिर तेरी कहानी याद आई’,‘नाराज’,‘नाजायज’ और ‘क्रिमिनल’ जैसी फिल्मों के लेखक जय दीक्षित हिंदी के मशहूर लेखक जगदंबा प्रसाद दीक्षित का फिल्मी नाम था। उनके उपन्यास  ‘मुर्दाघर’ और ‘कआ हुआ आसमान’ काफी चर्चित रहे। पिछले हफ्ते मंगलवार को जर्मनी में उनका निधन हो गया। उन्हें याद करते हुए महेश भट्ट ने यह श्रद्धांजलि लिखी है।     कहते हैं कि अगर आप नहीं चाहते कि मरने के साथ ही लोग आप को  भूल जाएं तो पढऩे लायक कुछ लिख जाएं या फिर लिखने लायक कुछ कर जाएं। मेरे शिक्षक, लेखक, दोस्त जय दीक्षित ने दोनों किया।     मेरे सेलफोन पर फ्रैंकफट में हुई उनकी मौन की खबर चमकी तो यही खयाल आया। जय दीक्षित की मेरी पहली याद अपने शिक्षक के तौर पर है। वे कक्षा में शुद्ध हिंदी में पढ़ा रहे थे। उनका सुंदर व्यक्तित्व आकर्षित कर रहा था। यह सातवें दशक की बात है। वे सेंट जेवियर्स कॉलेज में फस्र्ट ईयर के छात्रों को हिंदी पढ़ा रहे थे। उनमें एक अलग धधकता ठहराव था। बहुत बाद में समझ में आया कि वे दूसरे अध्यापकों से क्यों भिन्न थे? एक दिन अखबार में मैंने खबर पढ़ी कि सेंट जेवियर्स कॉलेज के एक प्रोफेसर क

अंधेरा है महानगरों की चकाचौंध में-हंसल मेहता

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-अजय ब्रह्मात्मज     हंसल मेहता और राजकुमार राव की जोड़ी की दूसरी फिल्म ‘सिटीलाइट््स’ आ रही है। पिछले साल की ‘शाहिद’ के लिए दोनों को राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। ‘सिटी लाइट’ का निर्माण महेश भट्ट और फॉक्स स्टार स्टूडियोज ने किया है। ‘सिटीलाइट्स’ में राजकुमार राव राजस्थान के दीपक की भूमिका में हैं, जो आजीविका के लिए मुंबई आता है। मुंबई जैसे महानगर में दीपक के सरवाइवल और संघर्ष की यह कहानी छोटे शहरों से सपनों के साथ बडे शहरों में आ रहे लाखों-करोड़ों युवकों की प्रतीकात्मक कहानी है।     हंसल मेहता से पहले इस फिल्म के निर्देशन के लिए अजय बहल को चुना गया था। उन्होंने ‘शाहिद’  देख रखी थी। उन्हें लगा कि हंसल ‘सिटीलाइट़्स’ की थीम के साथ न्याय कर सकते हैं। ऐसा लग सकता है कि हंसल मेहता ने ही इस फिल्म के लिए राजकुमार राव को चुना होगा। यहां तथ्य उल्टे हैं। राजकुमार राव पहले से फिल्म में थे। बाद में हंसल मेहता को बतौर निर्देशक बुलाया गया।     ‘शाहिद’ के लिए मिले पुरस्कार से फर्क तो पड़ा है। हंसल बताते हैं, ‘संयोग है कि हम दोनों को पुरस्कार मिले और अब ‘सिटीलाइट्स’ आ रही है। फिल्म इंडस्ट्री और बाकी लोग

भाते हैं अपने मिजाज से अलग किरदार-जिम्मी शेरगिल

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-अजय ब्रह्मात्मज     कबीर सदानंद की ‘फगली’ में जिम्मी शेरगिल दिल्ली पुलिस के हरियाणवी पुलिस इंस्पेक्टर की भूमिका निभा रहे हैं। अपने अंदाज और लहजे में उन्होंने हरियाणवी खूबियां उतार ली हैं। - ‘फगली’ में आप का हरियाणवी अंदाज आ रहा है? 0 दिल्ली पुलिस का एक ऑफिसर है। वह हरियाणवी है। भाषा, लहजा और अंदाज हरियाणा का है। वह थोड़ा सिरफिरा है। पुलिस रूलबुक उसे याद है। गंदी और बुरी स्थितियों में भी फायदा उठाने से नहीं हिचकता। वह इंटरेस्टिंग होने के साथ विचित्र भी है। कोई नहीं बता सकता है कि अगले पल ही वह क्या करेगा? वह अडिय़ल, चालाक और तेज दिमाग है। वह सिस्टम और पब्लिक के बीच का लिंक है। - मतलब सिस्टम की कमजोरियों और सूराखों से परिचित है और उसका फायदा उठाता है? 0 हां,एक हद तक। अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि कुछ पुलिस अधिकारी सारे नियम-कानून जानते हैं। कबीर ने इस किरदार को रोचक तरीके से प्रजेंट किया है। पुलिस के तौर-तरीकों को बारीकी से रखा गया है। - आप के अपने मिजाज से ऐसे किरदार मेल नहीं खाते तो फिर निभाने में दिक्कत होती होगी? 0 मजा आता है। जो आप नहीं होते हैं, उसे पर्दे पर निभाना हो,यह

आजाद सोच पर फुलस्टॉप के विरुद्ध - महेश भट्ट

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महेश भट्ट (महेश भट्ट का यह जरूरी लेख आज अमर उजाला में छपा है।) मुझे खुशफहमी नहीं है कि मेरी जो दृष्टि है, वही पूरी फिल्म इंडस्ट्री की दृष्टि है। मैं पूछता हूं कि हिंदुस्तानी सिनेमा का मयार विश्व सिनेमा में ऊंचा क्यों है? चीन जो आज हर मामले में आपसे आगे है, वह क्यों सिनेमा में पीछे है? वजह सीधी-सी है, हमारी आजादी। द राइट टू फ्री स्पीच। यह फिल्म इंडस्ट्री की धड़कन है। अगर आपने इंफ्रास्ट्रक्चर बना दिया, हर किस्म की तकनीक लगा दी, लेकिन फ्री स्पीच का गला घोंट दिया, तो इंडस्ट्री दम तोड़ देगी। चीन के पास सब कुछ है, मगर आजादी नहीं है। जो समाज अपने कलाकारों, लेखकों और निर्देशकों को जेहनी आजादी नहीं देता, वो शापित समाज है। इसके बाद आप कला और सिनेमा के विकास के लिए जितना चाहे पैसा लगा लीजिए, कुछ होने वाला नहीं है। मिडिल ईस्ट, सऊदी अरब और सिंगापुर में क्या कम पैसा है? चक्कर यह है कि आजाद सोच जहां होती है, वहीं सिनेमा या कला का जन्म होता है। 1998 में जब एनडीए सत्ता में थी, तो इन्होंने सिनेमा की आजादी को रोका था। इन्होंने मेरी फिल्म ‘जख्म’ के साथ क्या किया! यह फिल्म इनकी द

फिल्‍म स्‍मरण : सारांश

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सुकन्‍या वर्मा का यह लेख रिडीफ से लिया गया है। सुकन्‍या ने इतने बेहतरीन तरीके से महेश भट्ट की 'सारांश' के बारे में बताया है कि फिल्‍म की सारी विशेषताएं स्‍पष्‍ट हो जाती हैं। मूल लेख यहां है। चवन्‍नी के आग्रह पर अमित जैन,सुजीत सिन्‍हा,देदीप्‍य भानु ,इरशाद अली और स्मिता सिंह ने अपनी पसंद और राय रखी थी।  Mahesh Bhatt’s finest film Saaransh , which celebrates its 30th anniversary on May 25, isn’t comfort cinema but it is certainly a must-watch. A n elderly man wakes up early morning, draws out his desk and begins writing a letter to his son residing in the United States.  The mail isn’t a fancy exercise in eloquence but its simplicity conveys a father’s love, concern and commitment towards his only child until he's stirred up by a crushing realisation -- his young son is dead, he’s been dead for three months following a mugging incident on the streets of New York.  He may be no more but those he’s left behind aren’t exactly alive either. They merely exist min

फिल्‍म समीक्षा : कोचडयान

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तकनीक और टैलेंट का उपयोग -अजय ब्रह्मात्मज     चेन्नई, हैदराबाद और मुंबई ़ ़ ़ फिल्म निर्माण के हर केंद्र में मसाला एंटरटेनमेंट पर जोर है। अगर आप के पास पापुलर स्टार हैं तो किसी प्रकार के प्रयोग की जरूरत ही नहीं महसूस होती। रजनीकांत की बेटी सौंदर्या आर अश्विन ने ‘कोचडयान’ में इस सुरक्षा कवच को तोड़ दिया है। उन्होंने परफारमेंस कैप्चरिंग तकनीक में सुपरस्टार रजनीकांत को लेकर ‘कोचडयान’ का निर्देशन किया है। यहां रजनीकांत अपने अंदाज और स्टाइल में हैं,लेकिन एनिमेटेड रूप में। धैर्य, मेहनत और सोच से बनाई गई यह फिल्म भारतीय फिल्मों के इतिहास में एक नई पहल है। पहली कोशिश की हिम्मत की तारीफ होनी ही चाहिए। सौंदर्या ने ‘कोचडयान’ में तकनीक और टैलेंट का सही उपयोग किया है।     सौंदर्या आर अश्विन ने स्पष्ट किया था कि यह एक काल्पनिक कहानी है। कोचडयान और उनके बेटों राणा और धर्मा को लेकर गुंथी हुई कहानी में राष्ट्रप्रेम और प्रजाहित पर जोर दिया गया है। परिवेश के मुताबिक दो राष्ट्रों कलिंगपुर और कोट्टायपट्टनम के द्वेष और कलह के बीच राणा के योद्धा व्यक्तित्व,राजनीति और राष्ट्रप्रेम को भव्य तरीके से चित्र

फिल्‍म समीक्षा : हीरोपंथी / हिरोपंती

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सिर्फ और सिर्फ टाइगर श्रॉफ  -अजय ब्रह्मात्‍मज  जैकी श्रॉफ के बेटे टाइगर श्रॉफ को केंद्र में रख कर बनी निर्माता साजिद नाडियाडवाला की साबिर खान निर्देशित 'हीरोपंती' का एक ही मकसद है सिर्फ और सिर्फ टाइगर श्रॉफ की खूबियों को दिखाना। इन दिनों हिंदी फिल्मों में हीरो के परफॉर्मेस को जांचने-परखने का तरीका एक्शन और डांस रह गया है। ड्रामा और इमोशन के दृश्य उन्हें कम से कम दिए जाते हैं। 'हीरोपंती' में टाइगर श्रॉफ अपनी मचलती मांसपेशियों और चुस्त देहयष्टि के साथ मौजूद हैं। डांस सिक्वेंस में भी उनकी चपलता आकर्षित करती है। कमी है तो सिर्फ एक्टिंग में, संवाद अदायगी में स्पष्टता नहीं है और हर इमोशन में चेहरे का भाव एक सा ही बना रहता है। बतौर अभिनेता टाइगर को अभी काफी मेहनत करनी होगी। 'हीरोपंती' अंतर्निहित कमियों और खूबियों के साथ एंटरटेन करती है, क्योंकि लंबे समय के बाद पर्दे पर दिख रहे हीरो के स्टंट में विश्वसनीयता है। एक्शन के सभी दृश्यों में टाइगर श्रॉफ के आत्मविश्वास और दक्षता की झलक है। एक्शन डायरेक्टर ने इन दृश्यों को हैरतअंगेज नहीं रखा है। इसी प्रका

दरअसल :थिएटर, प्रशिक्षण और अभिनय

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-अजय ब्रह्मात्मज     आए दिन हिंदी फिल्मों के स्टार अपने इंटरव्यू में यह कहते मिल जाते हैं कि अभिनय जन्मजात प्रतिभा है। या तो आप अभिनय कर सकते हैं या नहीं कर सकते। अभ्यास या प्रशिक्षण से कोई अभिनेता नहीं बनता। वे अपना या अपने सरीखे दूसरे स्टारों का उदाहरण देने से भी नहीं हिचकते। एक बार मैं एक पापुलर अभिनेत्री का इंटरव्यू कर रहा था। उनसे भी अभिनय के कौशल पर बात चली। उन्होंने एनएसडी और थिएटर से आई कुछ अभिनेत्रियों का हवाला दिया अैर पूछा कि बताएं इतनी टैलेंटेड होने के बाद भी वे क्यों नहीं चल पाईं? उन्हें अभिनय की संपूर्ण जानकारी है, लेकिन दर्शक उन्हें नहीं अपनाते। उनसे बहस करना फिजूल था, क्योंकि वह प्रतिभा को पैसे और लोकप्रियता के अनुपात में आंक रही थीं।     सिद्ध अभिनेता और प्रसिद्ध स्टार में फर्क होता है। अमिताभ बच्चन प्रसिद्ध स्टार हैं, जबकि नसीरुद्दीन शाह सिद्ध अभिनेता हैं। नाम, शोहरत और कमाई में नसीरुद्दीन शाह और अमिताभ बच्चन की कोई तुलना नहीं हो सकती। इसके बावजूद 20-25 सालों के बाद दोनों की फिल्में देखने-दिखाने की बात होगी तो निस्संदेह शेल्फ पर नसीरुद्दीन शाह की अधिक फिल्में होंग

चांस लेना मेरी आदत है-प्रियंका चोपड़ा

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-अजय ब्रह्मात्मज     खिलाड़ी का जीवट, कलाकार की ऊर्जा और सीखने के लिए आतुर प्रियंका चोपड़ा अपनी जिंदगी और करिअर के उस मुकाम पर हैं, जहां से ली गई छलांग उड़ान साबित हो सकती है। बचपन में कभी उनका सपना था कि वह एरोनॉटिकल इंजीनियर बनें ताकि हवा से बातें कर सकें और आकाश में रहें। आज वह सचमुच सफलता के आकाश में कुलांचे मार रही हैं। कभी मुंबई तो कभी लास एंजेल्स ़ ़ ़ उन्होंने भारत और अमेरिका की दूरी को कदमों में समेट लिया है। वह फिल्मों में व्यस्त हैं। साथ ही गायकी के लिए पर्याप्त समय निकाल ले रही हैं। पिछले दिनों अमेरिका के टेम्पा शहर में आयोजित आईफा अवार्ड समारोह में उनकी सक्रियता दंग कर रही थी। सुबह से शाम तक विभिन्न इवेंट में सदा मुस्कराती और हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का प्रतिनिधित्व करती प्रियंका चोपड़ा के पांवों में ज्यों स्प्रिंग लग गए थे। 15वें आईफा अवार्ड समारोह की सफलता का श्रेय प्रियंका चोपड़ा को भी मिलना चाहिए।     पिछले दस सालों में उन्होंने कामयाबी और कंफीडेंस की लंबी दूरी तय की है। सिर्फ 17 साल की उम्र में मिस इंडिया और मिस वल्र्ड बनने के साथ बरेली की इस नादान लडक़ी की जिंदगी बदल ग

किस्‍मत पर कम हुआ यकीन-तिग्‍मांशु धूलिया

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-अजय ब्रह्मात्मज     निर्देशक तिग्मांशु धूलिया इन दिनों एक्टिंग कर रहे हैं। ‘बुलेट राजा’ के बाद उनकी कोई फिल्म फ्लोर पर नहीं गई है। खाली समय में वे एक्टिंग के ऑफर स्वीकार कर रहे हैं। यहां तक कि अपनी आगामी फिल्म ‘यारा’ में भी वे इरफान के साथ नजर आएंगे। पिछले दिनों उनसे इस अभिनय प्रसंग पर बातें हुई। -अभिनय में आप की सक्रियता बढ़ गई है इन दिनों। कोई खास वजह? 0 ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के बाद लोगों का ध्यान गया कि मैं एक्टिंग भी कर सकता हूं। अभी तक इसे करिअर बनाने का इरादा नहीं है। शुरू में दोस्तों के ऑफर या यों कहें कि डिमांड  ठुकरा नहीं सका। फिलहाल निखिल आडवाणी की फिल्म ‘हीरो’ में शम्मी कपूर वाली भूमिका निभा रहा हूं। अनुराग कश्यप निर्देशित धारावाहिक में भी दिखूंगा, जिसमें अमिताभ बच्चन हैं। उसमें अमित जी ईमानदार बिजनेसमैन बने हैं। मैं उस धारावाहिक में होम मिनिस्टर बना हूं। भ्रष्ट राजनीतिज्ञ हूं। अभी जून से आरंभी हो रही अपनी  ‘यारा’ में छोटी भूमिका निभा रहा हूं। -एक्टिंग की तरफ रुझान कैसे हुआ? 0 मुझे एक्टिंग के ऑफर मिलते रहे हैं। मुझे करना नहीं था। हंसल मेहता की ‘शाहिद’ में सुनील वोहरा

देश को उम्मीद दी है नरेन्द्र मोदी ने-आमिर खान

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-अजय ब्रह्मात्मज अपने कामकाज के बीच आमिर खान ने चुनाव परिणामों में रुचि दिखाई। उन्होंने आज दोपहर में आ रहे परिणामों को टीवी पर देखा और नरेन्द्र मोदी को मिले स्पष्ट बहुमत पर खुशी जतायी। उन्होंने बातचीत में यह उम्मीद जाहिर की कि नरेन्द्र मोदी अपने वादों को पूरा करेंगे और पूरे देश को प्रगति की राह पर ले चलेंगे। - मोदी के नेतृत्व में भाजपा को मिले स्पष्ट बहुमत पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है? 0 नरेन्द्र मोदी ने देश को एक उम्मीद दी है। चुनाव प्रचार के दौरान पिछले कुछ महीनों में उन्होंने मतदाताओं उम्मीदें जगा दी हैं। प्रगति और विकास का उन्होंने नारा दिया है। नौकरियां देने का वादा है। आर्थिक प्रगति का वादा है। उनके ये वादे मतदाताओं को अच्छे लगे। युवकों, मजदूरों और व्यापारियों के मन में उन्होंने भारत की एक तस्वीर बसाई है। मतदाताओं को उनकी खींची यह तस्वीर अच्छी लगी। ये सारे वायदे बहुत अच्छे हैं। भ्रष्टाचार मिटाने और खुशहाली लाने के वादे पर लोगों ने भरोसा दिखाया है। उन्हें स्पष्ट बहुमत मिला है। वे फैसले ले सकते हैं। - इस बार मतदान का प्रतिशत बढ़ा।  चुनाव आयोग के ब्रांड ऐंबेसडर के तौर पर वोट देने

फिल्‍म समीक्षा : द एक्‍सपोज

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सातवें दशक की चकाचौंध  -अजय ब्रह्मात्‍मज  हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का सातवां दशक। अभी एंग्री यंग मैन अमिताभ बच्चन का पदार्पण नहीं हुआ था। फिल्म स्टार, फिल्में, प्रोड्यूसर और डायरेक्टर का अलग ढर्रा था। चमकदार और रंगीन होने के साथ हिंदी सिनेमा में चकाचौंध अभी आई ही थी। हीरोइनें साड़ी छोड़कर विदेशी परिधानों में दिखने लगी थीं। ऐसे ही परिवेश की कहानी है 'द एक्सपोज'। हिमेश रेशमिया उर्फ रवि कुमार को केंद्र में रख कर बनाई गई इस फिल्म के सारे किरदार सप्तर्षि की तरह हैं। ध्रुवतारा या स्टार एक ही हैं हिमेश रेशमिया। लेखक और निर्देशक का पूरा ध्यान हिमेश रेशमिया पर टिका है। उनकी वेशभूषा, चाल-ढाल, संवाद अदायगी, लुक और अंदाज को हर तरह से सजाने-संवारने की सफल कोशिश की गई है। फिल्म की दोनों हीरोइनों जारा और चांदनी की खूबसूरत और मादक अंदाज में पेश किया गया है। चूंकि माहौल ही फिल्म इंडस्ट्री की रौनक का है, इसलिए वे सभी फिल्म की कहानी में उपयुक्त लगते हैं। फिल्म में निर्माता-निर्देशक के तौर पर आए किरदारों को ठोस चरित्र दिए गए हैं। इनके अलावा बाकी किरदारों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दि

दरअसल : दरकिनार होती करीना कपूर

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-अजय ब्रह्मात्मज     सफल फिल्मों का हिस्सा होने के बावजूद करीना कपूर सफलता की हकदार नहीं हो सकीं। उन्हें याद करते समय उनकी असफल फिल्में पहले याद आ जाती हैं। वह ‘3 इडियट’, ‘गोलमाल 3’, ‘बॉडीगार्ड’ और ‘रा ़ वन’ की हीरोइन थीं, लेकिन इन फिल्मों की सफलता का श्रेय आमिर खान, अजय देवगन, सलमान खान और शाहरुख खान को ही मिलता रहेगा। करीना कपूर को फिलवक्त हम ‘हीरोइन’, ‘एक मैं और एक तू’, ‘सत्याग्रह’ और ‘गोरी तेरे गप्यार में’ जैसी असफल फिल्मों के साथ जोड़ कर देख रहे हैं। देखते ही देखते सेंटर स्टेज से करीना कपूर दरकिनार हो गई हैं। लगता है चर्चा और फिल्मों से गायब हो रही करीना कपूर का ध्यान कहीं और है।     ‘जब वी मेट’ की तत्काल सफलता के बाद ‘टशन’ में सैफ अली खान से हुई उनकी मुलाकात करिअर को नया मोड़ दे गई। इस मोड़ से आगे का रास्ता ढलान का दिख रहा है। सैफ से दोस्ती और शादी के इस दौर में करीना कपूर ने फिल्मों पर फोकस नहीं किया। करिअर के प्रति करीना आरंभ से लापरवाह रही हैं। इस दौर में उनकी लापरवाही और बढ़ गई। समकालीन अभिनेत्रियों में अधिक सक्षम, योग्य, गुणी और भावप्रवीण होने के बावजूद उन्होंने कभी म

दरअसल : अमेरिका में आईफा

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-अजय ब्रह्मात्मज         पूरी दुनिया में मनोरंजन जगत से जुड़े लोगों ने पिछले दिनों दो तस्वीरों को बड़े गौर से देखा। एक तस्वीर मैं जॉन टै्रवोल्टा हिंदी फिल्मों की अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा के साथ ठुमके लगा रहे थे। दूसरी तस्वीर में केविन स्पेसी दीपिका पादुकोण के साथ लुंगी डांस कर रहे थे। दोनों ही घटनाएं अप्रत्याशित थीं। तारीफ करनी होगी कि जॉन ट्रैवोल्टा और केविन स्पेसी ने बगैर किसी ना-नुकूर के दोनों वक्त मंच पर पूरे जोश के साथ नृत्यों में हिस्सा लिया। उनकी ये तस्वीरें मीडिया में विभिन्न माध्यमों से फ्लैश हुईं। सहसा यकीन नहीं हुआ कि ऐसा भी हो सकता है,लेकिन ऐसा हुआ। पिछले दिनों अमेरिका के फ्लोरिडा स्टेट के टेम्पा शहर में 15वां आईफा अवार्ड समारोह आयोजित किया गया था। हालीवुड के दोनों नामवर कलाकार उसी समारोह के खास अतिथि थे।         आईफा हिंदी फिल्मों के अवार्ड और समारोह का अनोखा आयोजन है। यह साल में एक बार दुनिया के किसी भी देश के प्रमुख शहर में आयोजित होता है। स्थानीय प्रशासन और नागरिकों की मदद से संपन्न आईफा अवार्ड समारोहों में मुख्य रूप से विदेशों में बसे हिंदी फिल्मों के प्रेमी अपने

पुरानी बातचीत : हंसल मेहता

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  फिल्‍मों के इतिहास और फिल्‍मकारों के विकास के अध्‍ययन में रुचि रखने वाले चवन्‍नी के पाठकों के लिए हसंल मेहता का यह इंटरव्यू दिल पर मत ले यार के समय यह इंटरव्यू किया गया था। तब इतनी लंबी बातें कर लेना मुश्‍िकल नहीं था। अब न तो जवाब मिलते हैं और न सवाल सूझते हैं। पढ़ने के बाद फीडबैक अवश्‍य दें। यहां या मेल करें। chavannichap@gmail.com -      ' दिल पे मत ले यार ' का आयडिया कब आया ? 0      जब मैं ' जयते ' बना रहा था उस वक्त बहुत सारी कहानियां दिमाग में थीं. हमारे कुछ लेखक कई सारे विषयों पर सोच रहे थे कि किस तरह की फिल्म बनाई जा सकती है. मुझे आर वी पंडित ने कहा था कि मैं कहानी चुनूं , जो प्रासंगिक हो , ऐसी कहानी हो जो जिंदगी से जुड़ी हो. उस वक्त शहर की हालत गंभीर थी. खून-खराबा , गैंगवार जौसी चीजें अपने चरम पे थी. उसी वक्त एक आयडिया दिमाग में आया. और ' जयते ' की कहानी उभरकर आई. और ' जयते ' बना दिया. पर कहीं लगता था कि एक कहानी छूटी हुई है जो अच्छी है. एक समय ऐसा आया जब मैंने सोचा कि उसको लेकर टेलीविजन पर ही कुछ कर दिया जा