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करीबियों की नजर में गुलज़ार

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प्रस्‍तुति-अजय ब्रह्मात्‍मज गुलजार के बारे में उनके तीन करीबियों अशोक बिंदल,पवन झा और सलीम आरिफ की स्‍फुट बातों में उनके व्‍यक्तित्‍न की झलक मिलती है। फिलवक्‍त तीनों से उनका लगभग रोजाना संवाद होता है और वे उनके सफर के साथी हैं। अशोक बिंदल (मुंबई निवासी साहित्‍यप्रेमी और रेस्‍तरां बिजनेस में सक्रिय अशोक बिंदल का गुलज़ार से 20-22 साल पुराना परिचय है,जो पिछले सालों में सघन हुआ है।) सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे तक रोजाना आफिस में बैठते हैं। दोपहर में आधे घंटे का लंच और छोटे नैप के बाद फिर से आफिस आ जाते हैं। अभी उम्र की वजह से दो घंटे के बजाए एक घंटा ही टेनिस खेलते हैं। एक घंटा वाक या योगा करते हैं। रात को दस बजे तक रिटायर हो जाते हैं। सलाह देते हैं कि एक गजल लिखनी है तो कम से कम सौ गजल पढ़ो। उनके आसपास किताबें रहती हैं। उन्‍हें पढ़ते हैं। उनमें निशान लगे रहते हैं। किसी से भी मिलते समय वे उसे इतना कंफर्ट में कर देते हैं कि उसे सुकून होता है। 82 की उम्र में कोई इतना एक्टिव नहीं दिखता है। वे चलते हैं और हमें दौड़ना पड़ता है। नाराज नहीं होते। विनोदी स्‍वभाव के हैं। आ

संग-संग : ठहराव देती है शादी : सलीम आरिफ-लुबना सलीम

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-अजय ब्रह्मात्‍मज सलीम आरिफ और लुबना सलीम दोनों थिएटर की दुनिया में हैं। लखनऊ के सलीम ने दिल्ली स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से अभिनय का प्रशिक्षण लेने के बाद श्याम बेनेगल और डॉ. चंद्र प्रकाश द्विवेदी के साथ कॉस्टयूम और सेट डिजाइन पर काम किया। लुबना ने इप्टा के नाटकों से शुरुआत की और धारावाहिकों में भी मुख्य भूमिकाएं निभाई। संपर्क, पहचान और रिश्ता सलीम आरिफ: मैं श्याम बेनेगल का धारावाहिक भारत एक खोज कर रहा था तो लुबना की मम्मी मेरी को-डिजाइनर थीं। मैं इनके घर आता-जाता था। तब लुबना इप्टा के नाटक अंधे चूहे का रिहर्सल कर रही थीं। मेरे अम्मी-अब्बा से भी उनकी मुलाकात हुई। लुबना: मम्मी के कलीग थे सलीम। वह अकेले रहते थे। अकसर पापा उन्हें खाने को रोक लेते। मुझे अजीब लगता कि पापा एक यंग लडके से इतनी बात कैसे करते हैं। सलीम के अम्मी-अब्बा आए तो तय हुआ कि दावत होनी चाहिए। यह 1989 की बात है। तब मैं सेकंड ईयर में थी। एक महीने के बाद अम्मी का खत मेरे मम्मी-पापा के पास आया कि बिटिया हमें पसंद है। मेरे घर में सब चौंक गए। सलीम: अम्मी को लुबना व इनका परिवार काफी पसंद आया। मेरी शादी को लेकर वे सोच भी र

सोच और सवेदना की रंगपोटली मेरा कुछ सामान

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-अजय ब्रह्मात्‍मज खराशें, लकीरें, अठन्निया और यार जुलाहे की चार प्रस्तुतियों की पोटली है- 'मेरा कुछ सामान'। गुलजार की कहानियों, नज्मों और गीतों के इस रंगमचीय कोलाज को देखना इस दौर का समृद्ध रंग अनुभव है। 'मेरा कुछ सामान' इसी अनुभव को सजोने की निर्देशक सलीम आरिफ की सुंदर कोशिश है। इस हफ्ते 11 मई से दिल्ली में गुलजार के नाटकों का यह महोत्सव प्रारंभ हो रहा है। खराशें, लकीरें, अठन्निया और यार जुलाहे ़ ़ ़ चार शब्दों के चार शो ़ ़ ़ लेकिन थीम एक ही ़ ़ ़ गुलजार ़ ़ ़ कहानियों, गीतों, गजलों और नज्मों से छलकती गुलजार की चिता, सवेदना और छटपटाहट। गीतकार और निर्देशक गुलजार से परिचित प्रशसकों ने इन शामों में एक अलग मानवीय गुलजार को सुना और महसूस किया है। 'मोरा गोरा अंग लई ले' से लेकर '3 थे भाई' तक के गीतों से उन्होंने कई पीढि़यों के श्रोताओं और दर्शकों को लुभाया, सहलाया और रुलाया है। वही गुलजार इन नाटकों में आजादी के बाद देश में बदस्तूर जारी साप्रदायिकता के दर्द की पोटली खोलते हैं तो उनके सामानों में हमें लोगों के एहसास, जज्बात और सपनों की शक्ल नजर आती है। सलीम आरि