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Showing posts from May, 2015

फिल्‍म समीक्षा - वेलकम टू कराची

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-अजय ब्रह्मात्‍मज भारत और पाकिस्तावन के बीच पल रहे दुराग्रहों और पूर्वाग्रहों को तोड़ती कुछ फिल्मों की कड़ी में ‘वेलकम 2 कराची’ को भी रखा जा सकता है। दोनों देशों के बीच किरदारों के मेल-मिलाप, हंसी-मजाक और हास्यास्पद प्रसंगों से मौजूद तनाव को कम करने के साथ समझदारी भी बढ़ सकती है। ‘फिल्मिस्तान’ ने यह काम बहुत खूबसूरती के साथ किया था। अफसोस कि ‘वेलकम 2 कराची’ का विचार तो नेक, कटाक्ष और मजाक का था, लेकिन लेखक-निर्देशक की लापरवाही से फिल्म फूहड़ और कमजोर हो गई। कई बार फिल्में पन्नों से पर्दे तक आने में बिगड़ जाती हैं।                                        याद करें तो कभी इस फिल्मं में इरफान खान थे। अभी जो भूमिका जैकी भगनानी ने निभाई है, उसी भूमिका को इरफान निभा रहे थे। क्या उन्होंने इसी स्क्रिप्ट के लिए हां की थी या जैकी के आने के बाद स्क्रिप्ट बदली गई और उसका यह हाल हो गया? सोचने की बात है कि हर कलाकार किसी और का विकल्पय नहीं हो सकता। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के बेपरवाह रवैए की ओर भी यह फिल्म इंगित करती है। कैसे स्वार्थ और लोभ में विचारों की हत्या हो जाती है? कई बार सफल निर्माता की सोच म

दरअसल : रेड कार्पेट पर ल‍हराती अभिनेत्रियां

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-अजय ब्रह्मात्‍मज     हर साल मई के दूसरे हफ्ते में फ्रांस के कान शहर में कान फिल्‍म समारोह का आयोजन होता है। विश्‍व भर से नामी फिल्‍मकरों की फिल्‍मों का विभिन्‍न खंडों और श्रेणियों में प्रदर्शन किया जाता है। माना जाता है कि वहां प्रदर्शित फिल्‍में कलात्‍मक दृष्टि से श्रेष्‍ठ और दर्शनीय होती हैं। भारत से इस साल दो फिल्‍में नीरज घेवन की ‘ मसान ’ और गुरविंदर सिंह की ‘ चौथी कूट ’ गई हैं। अफसोस की बात है कि भारतीय मीडिया में इन फिल्‍मों का नहीं के बराबर कवरेज या उल्‍लेख हुआ है। कान फिल्‍म समारोह का नाम लें तो सभी यही बताते मिलेंगे कि इस साल कट्रीना कैफ भी गई थीं। उन्‍होंने रेड कार्पेट पर रेड ड्रेस पहनी थी। उनके अलावा ऐश्‍वर्श्‍या राय और सोनम कपूर भी वहां थीं। सुना है कि मल्लिका सहरावत भी पहुंच गई थीं। इस साल तो ऐश्‍वर्या राय बच्‍चन की आगामी फिल्‍म ‘ जज्‍बा ’ का फर्स्‍ट लुक भी वहां रिवील किया गया। बस,वास्‍जविकता की जानकारी नहीं रहेगी।     दरअसल,कान फिल्‍म समारोह फिल्‍मों का वार्षिक मेला है,जहां फिल्‍मों के साथ दुनिया भर के वितरक और खरीददार भी पहुंचते हैं। सभी अपने देशों और बाजार क

कान में मसान को मिले दो पुरस्‍कार

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-अजय ब्रहमत्‍मज पिछले रविवार को समाप्‍त हुए कान फिल्‍म समारोह में भारत से ‘ अन सर्टेन रिगार्ड ’ खंड में गई नीरज घेवन की ‘ मसान ’ को दो पुरस्‍कार मिले। नीरज को संभावनाशील निर्देशक का पुरस्‍कार मिला और फिल्‍म को समीक्षको के इंटरनेशनल संगठन फिपरेसी का पुरस्‍कार मिला। परंपरा और आधुनिकता के साथ बाकी स्थितियों की वजह से अपनी-अपनी जिंदगियों के चौमुहाने पर खड़े दीपक,देवी,पाठक,झोंटा और अन्‍य किरदारों की कहानी है ‘ मसान ’ । इसे नीरज घेवन ने निर्देशित किया है। भारत और फ्रांस के निर्माताओं के सहयोग से बनी इस फिल्‍म की पूरी शुटिं बनारस शहर और उसके घाटों पर हुई है। मराठी मूल के नीरज घेवन परवरिश और पढ़ाई-लिखाई हैदराबाद और पुणे में हुई। नीरज खुद को यूपीवाला ही मानते हैं। बनारस और उत्‍तर भारत की भाषा,संस्‍कृति और बाकी चीजों में उनकी रुचि और जिज्ञासा बनी रही। उन्‍होंने बनारस के बैकड्राप पर एक कहानी सोच और लिख रखी थी। वे अच्‍छी-खासी नौकरी कर रहे थे और उनकी शादी की भी बात चल रही थी,लेकिन तभी फिल्‍मों में उनकी रुचि बढ़ी। वे अनुराग कश्‍यप के संपर्क में आए। अनुराग के साथ वे ‘ गैंग्‍स ऑफ व

मुकेश छाबड़ा की कहानी पिता ताराचंद छाबड़ा की जुबानी

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मुकेश छाबड़ा के जन्‍मदिन वर चवन्‍नी का तोहफा उनके पिता के सौजन्‍य से...  कास्टिंग डायरेक्‍टर मुकेश छाबड़ा के पिता ताराचंद छाबड़ा ने अपने बेटे के बारे में उनके बचपन के दिनों और परवरिश के बारे में विस्‍तार से लिखा है। यह पिता का वात्‍सल्‍य मात्र नहीं है। यह एक व्‍यक्ति के व्‍यक्तित्‍व बनने की कहानी भी है। फादर्स डे से पहले ही हम एक पिता के इन शब्‍दों को शेयर करें तो समझ बढ़ेगी कि कैसे संतान के बचपन की  की रुचि भविष्‍य में पेशे में भी बदल सकती है और वह भी खुशगवार... .. लेखक- ताराचंद छाबड़ा तारीख 27 मई , वर्ष 1980. कपूर हॉस्पिटल , पूसा रोड , नई दिल्ली. सुबह 6 बजे एक डॉक्टर के मेरे पास आईं , मैं उनकी ओर एकटक देख रहा था. मैंने पूछा कि क्या हुआ , लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. फिर दूसरी , तीसरी और चौथी डॉक्टर आईं. सबकी आंखों में नींद भरी थी. लग रहा था कि सबको नींद से जगाकर बुलाया गया है. लगभग आधे घंटे के बाद मुुझे बताया गया कि बच्चा उल्टा है और डॉक्टरों ने मिलकर यह डिलीवरी करवायी है. मुझसे कहा गया कि एक कप चाय लेकर आइए , लड़का हुआ है. मैंने अपनी चिंता जाहिर की कि

आज भी लगता है डर : अनुष्का शर्मा

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यंग लॉट की अनुष्का शर्मा नित नई सफलता हासिल कर रही हैं। बतौर अभिनेत्री तो वे स्थापित नाम बन चुकी हैं ही, निर्माता के तौर पर भी वे अपनी एक अलग जगह बनाने में जुटी हुई हैं। उनकी अगली पेशकश ‘दिल धड़कने दो’ है। उन्होंने साझा की अदाकारी के सफर और फिल्मों को लेकर अपने अनुभव : -अजय ब्रह्मात्मज -फिल्मों को लेकर आप को चूजी कहा जा सकता है? जी हां। मेरी पूरी प्राथमिकता सही फिल्में व फिल्मकारों के चयन पर केंद्रित रहती हैं। अनुराग कश्यप भी उनमें से एक थे। तभी ‘बैंड बाजा बारात’ के बाद ही ‘बॉम्बे वेल्वेट’ मेरे पास आई तो मैंने मना नहीं कर सकी। इनफैक्ट मैं उस फिल्म में कास्ट होने वाली पहली कलाकार थी। मेरे बाद धीरे-धीरे सब आए। मैं कमर्शियल फिल्में देने वालों के संग भी काम कर रही हूं और जो लीक से हटकर बना रहे हैं, उनके साथ भी। अनुराग जैसे फिल्मकार किसी भी आम या खास चीज को एक अलग तरीके से एडैप्ट कर लेते हैं। मिसाल के तौर पर ‘देवदास’ को उन्होंने ‘देव डी’ बना दिया। ‘देव डी’ का नायक डिप्रेस होकर पागल नहीं हो जाता। वह चंद्रमुखी के साथ चला जाता है। वह एंगल मुझे बहुत भाया था। मुझे खुद भी मोनोटनी से नफरत है।

अहंकार की स्पेलिंग मुझे नहीं मालूम : अमिताभ बच्चन

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  -‘पीकू’ को लोगों का बेशुमार प्यार मिला। आप के संग-संग आप के सहयोगी कलाकारों का परफॉरमेंस भी काफी सराहा और स्वीकार किया गया। क्या इतनी बड़ी सफलता की उम्मीद थी? नहीं, बिल्कुल नहीं। हमें तो किसी फिल्म से उम्मीद नहीं रहती। फिर भी कहीं न कहीं इसकी उम्मीद जरूर थी कि जिस तरह की साधारण कहानी है, उसकी सरलता अगर लोगों को अपनी जिंदगी से ही संबंधित लगे तो एक तसल्ली होगी। बहरहाल, जब फिल्म बन रही थी तो उतनी उम्मीद नहीं थी, लेकिन लोगों ने इसे जिस तरह अपनाया है और जिस किसी ने इसकी प्रशंसा की। हमसे बातें की, सबने यही कहा कि सर आपने हमारी जिंदगी का ही एक टुकड़ा निकाल कर दर्शाया है। कोई कह रहा है उन्हें उनके दादाजी की याद आ गई तो कोई कह रहा उन्हें उनके नानाजी की याद आ गई। बहुत सी लड़कियां कह रही हैं कि उन्हें उनके पिताजी की याद आ रही है। यानी कहीं न कहीं एक घनिष्ठता सी बन गई है। -कई लोगों को भास्कोर में अपने पिताजी और  दादाजी महसूस हुए हैं? जी बिल्कुल। ऐसा हर परिवार में होता है। अच्छी बात यह कि फिल्म के तार परिवार से जुड़ गए हैं। हमें तो बड़ी खुशी है कि फिल्म बॉक्स ऑफिस पर अच्छा कर रह

हिमांशु शर्मा का इंटरव्‍यू

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गजेन्‍द्र सिंह भाटी ने 'तनु वेड्स मनु रिटर्न्‍स' के लेखक हिमांशु शर्मा का विस्‍तृत इंटरव्‍यू किया है। उनके ब्‍लॉग फिलम सिनेमा से इसे साभार लिया गया है चवन्‍नी के पाठकों के लिए। -गजेन्‍दं सिंह भाटी ‘ क्वीन ’ के बाद कंगना रणौत को पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा। उन्हें शीर्ष कलाकारों ने निजी तौर पर बधाई दी। अपनी कतार में आने का आभास दिया। लेकिन ‘ तनु वेड्स मनु ’ न होती तो ‘ क्वीन ’ भी न होती और कंगना को सकारात्मक छवि नहीं मिलती। एक बाग़ी , खिलंदड़ , वर्जित कार्य करने वाले ऐसी नायिका पहले यूं न दिखी। बदल रहे वक्त में हिमांशु शर्मा ने तनु का पात्र सही टाइमिंग से लिखा। हालांकि फिल्म के अंत को लेकर आपत्तियां हैं लेकिन शुरुआत के लिए ही सही फिल्म उपलब्धि थी। बहुत समय बाद लोकगीतों वाली मिठास “ तब मन्नू भय्या का करिहैं ” गाने में चखी गई। कानपुर या अन्य उत्तर भारतीय शहरों के मध्यम वर्गीय लोगों और उनके संतोषों का चित्रण भी मौलिक तरीके से पेश हुआ। बाद में निर्देशक आनंद राय के साथ हिमांशु की लेखनी ‘ रांझणा ’ लेकर आई। ब