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फिल्‍म समीक्षा : अग्‍ली

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- अजय ब्रह्मात्‍मज  अग्ली अग्ली है सब कुछ अग्ली अग्ली हैं सपने अग्ली अग्ली हैं अपने अग्ली अग्ली हैं रिश्ते अग्ली अग्ली हैं किस्तें अग्ली अग्ली है दुनिया अब तो बेबी सबके संग हम खेल घिनौना खेलें मौका मिले तो अपनों की लाश का टेंडर ले लें बेबी लाश का टेंडर ले लें क्योंकि अग्ली अग्ली है सब कुछ।     अनुराग कश्यप की फिल्म 'अग्ली' के इस शीर्षक गीत को चैतन्य की भूमिका निभा रहे एक्टर विनीत कुमार सिंह ने लिखा है। फिल्म निर्माण और अपने किरदार को जीने की प्रक्रिया में कई बार कलाकार फिल्म के सार से प्रभावित और डिस्टर्ब होते हैं, लेकिन उनमें से कुछ ही भूमिका निभाने की उधेड़बुन को यों प्रकट कर पाते हैं। दरअसल, इस गीत के बोल में अनुराग कश्यप की फिल्म का सार है। फिल्म के थीम को गीतकार गौरव सोलंकी ने भी अपने गीतों में सटीक अभिव्यक्ति दी है। वे लिखते हैं, जिसकी चादर हम से छोटी, उसकी चादर छीन ली, जिस भी छत पर चढ़ गए हम, उसकी सीढ़ी तोड़ दी...या फिल्म के अंतिम भाव विह्वल दृश्य में बेटी के मासूम सवालों में उनके शब्द संगदिल दर्शकों के सीने में सूइयों की तरह चुभते हैं। इन दि

अग्‍ली के लिए लिखे गौरव सोलंकी के गीत

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अनुराग कश्‍यप की फिल्‍म अग्‍ली के गीत गौरव सोलंकी ने लिखे हैं। मेरा सामान उनके ब्‍लाग्‍ा का नाम है। उन्‍हें आप फेसबुक और ट्विटर पर भी पा सकते हैं। खुशमिजाज गौरव सोलंकी मुंबइया लिहाज से सोशल नहीं हैं,लेकिन वे देश-दुनिया की गतिविधियों से वाकिफ रहते हैं। इन दिनों वे एडवर्ल्‍ड में आंशिक रूप से सक्रिय हैं। और एक फिल्‍म स्क्रिप्‍ट भी लिख रहे हैं। प्रस्‍तुत हैं अग्‍ली के गीत... सूरज है कहां सूरज है कहाँ ,  सर में आग रे ना गिन तितलियां ,  अब चल भाग रे मेरी आँख में   लोहा है क्या मेरी रोटियों में काँच है गिन मेरी उंगलियां क्या पूरी पाँच हैं ये मेरी बंदूक देखो, ये मेरा संदूक है घास जंगल जिस्म पानी  कोयला मेरी भूख हैं   चौक मेरा गली मेरी,  नौकरी वर्दी मेरी   धूल धरती सोना रद्दी,  धूप और सर्दी मेरी   मेरी पार्किंग है,  ये मेरी सीट है तेरा माथा है ,  ये मेरी ईंट है तेरी मिट्टी से मेरी मिट्टी तक आ रही हैं जो ,  सारी रेलों से रंग से ,  तेरे रिवाज़ों से तेरी बोली से ,  तेरे मेलों से कीलें चुभती हैं चीलें दिखती हैं लकड़ियां गीली नहीं हैं तेल है, तीली यहीं है मेरा झंडा

स्‍नेहा खानवलकर : एक ‘टैं टैं टों टों’ लड़की -गौरव सोलंकी

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चवन्‍नी के पाठकों के लिए रोटी,कपड़ा और सिनेमा से साभार  वह एक लड़की थी, स्कूलबस के लम्बे सफ़र में चेहरा बाहर निकालकर गाती हुई,   रंगीला का कोई गाना और इस तरह उस संगीत की धुन पर कोर्स की कविताएं याद करती हुई,   जिन्हें स्कूल के वाइवा एग्ज़ाम में सुना जाता था। वाइवा पूरी क्लास के सामने होता था। ऐसे ही एक दिन वह टीचर के पास खड़ी थी और कविता उस संगीत से इतना जुड़ गई थी कि पहले उसे उसी धुन पर कविता गुनगुनानी पड़ रही थी और तभी बिना धुन के टीचर के सामने दोहरा पा रही थी।   टीचर ने पूछा- यह क्या फुसफुसा रही हो? - मैम,   म्यूजिक से याद की है poem .. - तो वैसे ही सुनाओ... और तब ‘ याई रे ’ की धुन पर वह अंग्रेज़ी कविता उस क्लास में सुनाई गई। डाँट पड़ी। लड़की को चुप करवाकर बिठा दिया गया। लेकिन घर में ऐसा नहीं होता था। कभी कोई मेहमान आता,   कोई फ़ंक्शन होता या लम्बे पिकनिक पर जाते तो गाना सुनाने को कहा जाता था। तब शाबासी मिलती थी। उसके चचेरे भाई-बहन भी गाते थे। गाते हुए अच्छे से चेहरे और हाथों की हरकतें कर दो तो घरवाले बहुत ख़ुश होते थे- अरे,   आशा से अच्छा गाया है तुमने

फिल्‍म समीक्षा : गैंग्‍स ऑफ वासेपुर-गौरव सोलंकी

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गौरव सेलंकी के ब्‍नॉग रोटी कपड़ा और सिनेमा से साभार वासेपुर की हिंसा हम सबकी हिंसा है जिसने कमउम्र फ़ैज़लों से रेलगाड़ियां साफ़ करवाई हैं  मैं नहीं जानता कि आपके लिए ‘ गैंग्स ऑफ वासेपुर ’ गैंग्स की कहानी कितनी है, लेकिन मेरे लिए वह उस छोटे बच्चे में मौज़ूद है, जिसने अपनी माँ को अपने दादा की उम्र के एक आदमी के साथ सोते हुए देख लिया है, और जो उस देखने के बाद कभी ठीक से सो नहीं पाया, जिसके अन्दर इतनी आग जलती रही कि वह काला पड़ता गया, और जब जवान हुआ, तब अपने बड़े भाई से बड़ा दिखता था। फ़िल्म उस बच्चे में भी मौज़ूद है, जिसके ईमानदार अफ़सर पिता को उसी के सामने घर के बगीचे में तब क्रूरता से मार दिया गया, जब पिता उसे सिखा रहे थे कि फूल तोड़ने के लिए नहीं, देखने के लिए होते हैं। थोड़ी उस बच्चे में, जिसकी नज़र से फ़िल्म हमें उसके पिता के अपने ही मज़दूर साथियों को मारने के लिए खड़े होने की कहानी दिखा रही है। थोड़ी उस बच्चे में, जो बस रोए जा रहा है, जब बाहर उसके पिता बदला लेने का जश्न मना रहे हैं। थोड़ी कसाइयों के उस बच्चे में, जिस पर कैमरा ठिठकता है, जब उसके और उसके आसपास के घरों में स

फिल्‍म समीक्षा : शांघाई-गौरव सोलंकी

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यह रिव्‍यू गौरव सोलंकी के ब्‍लॉग रोटी कपड़ा और मकान से चवन्‍नी के पाठकों के लिए... शंघाई' हमारी राष्ट्रीय फ़िल्म है  एक लड़का है , जिसके सिर पर एक बड़े नेता देश जी का हाथ है। शहर के शंघाई बनने की मुहिम ने उसे यह सपना दिखाया है कि प्रगति या ऐसे ही किसी नाम वाली पिज़्ज़ा की एक दुकान खुलेगी और ‘ समृद्धि इंगलिश क्लासेज ’ से वह अंग्रेजी सीख लेगा तो उसे उसमें नौकरी मिल जाएगी। अब इसके अलावा उसे कुछ नहीं दिखाई देता। जबकि उसकी ज़मीन पर उसी की हड्डियों के चूने से ऊंची इमारतें बनाई जा रही हैं, वह देश जी के अहसान तले दब जाता है। यह वैसा ही है जैसी कहानी हमें ‘ शंघाई ’ के एक नायक (नायक कई हैं) डॉ. अहमदी सुनाते हैं। और यहीं से और इसीलिए एक विदेशी उपन्यास पर आधारित होने के बावज़ूद शंघाई आज से हमारी ‘ राष्ट्रीय फ़िल्म ’ होनी चाहिए क्योंकि वह कहानी और शंघाई की कहानी हमारी ‘ राष्ट्रीय कथा ’ है। और उर्मि जुवेकर और दिबाकर इसे इस ढंग से एडेप्ट करते हैं कि यह एडेप्टेशन के किसी कोर्स के शुरुआती पाठों में शामिल हो सकती है। लेकिन कपड़े झाड़कर खड़े मत होइए, दूसरी राष्ट्रीय चीजों की तरह

आपने अपना शैतान खुद गढ़ा है-डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी

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-गौरव सोलंकी चर्चित टीवी धारावाहिक चाणक्य और फिल्म पिंजर बनाने वाले डॉ चंद्र प्रकाश द्विवेदी का नया धारावाहिक ‘उपनिषद् गंगा’ हाल ही में दूरदर्शन पर शुरू हुआ है. फिल्म रचना और दर्शन सहित कई विषयों पर बातचीत के दौरान वे गौरव सोलंकी को बता रहे हैं कि क्यों उन्हें इतिहास इतना आकर्षित करता है. ‘चाणक्य’ और ‘पिंजर’ बनाने वाले डॉ. चन्द्र प्रकाश द्विवेदी का नया धारावाहिक ‘उपनिषद गंगा’ पिछले इतवार से दूरदर्शन पर शुरू हुआ है. उनकी फ़िल्म ‘मोहल्ला अस्सी’ भी इसी साल रिलीज होने वाली है. डॉ. द्विवेदी से मेरी मुलाकात उनके घर में होती है, जिसमें विभिन्न मुद्राओं में बुद्ध की अनेक मूर्तियां हैं और उनसे भी ज्यादा सकारात्मकता. उनके साथ समय बिताना भारत के अतीत की छांह में बैठने जैसा है, किसी और समय में पहुंचने जैसा है जिसमें आपको लगेगा कि आप किसी शांत जंगल में एक तालाब के किनारे बैठे हैं और बाहर जो शोर हो रहा है, वह किसी और समय की बात है. वे ऐसे गिने-चुने व्यक्तियों में से हैं जो अपने काम की बजाय वेदांत पर बात करते हुए ज्यादा खुश दिखते हैं. वे बताते हैं कि कैसे अपने सर्जक होने का अहंकार करने के लिए हम सब बह