दरअसल : बदल रहे हैं प्रचार के तरीके
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-अजय ब्रह्मात्मज कुछ सालों पहले तक प्रचार के सामान्य तरीके थे। फिल्म आने के पहले टीवी पर प्रोमो आने लगते थे। सिनेमाघरों में ट्रेलर चलते थे। रिलीज के एक हफ्ते पहले से शहरों की दीवारों पर फिल्म के पोस्टर नजर आने लगते थे। मीडिया के साथ फिल्म यूनिट के सदस्यों की बातचीत रहती थी,जिसमें फिल्म के बारे में कुछ नहीं बताया जाता था। आज भी नहीं बताया जाता। फिल्म सिनेमाघरों में लगती थी। कंटेंट और क्वालिटी के दम पर फिल्म कभी गोल्डन जुबली तो कभी सिल्वर जुबली मना लेती थी। कुछ फिल्में डायमंड जुबली तक भी पहुंचती थीं। तब कोई नहीं पूछता और जानता था कि फिल्म का कलेक्शन कैसा रहा? सभी यही देखते थे कि फिल्म कितने दिन और हफ्ते चली। फिर एक समय आया कि 100 दिनों के सफल प्रदर्शन के पोस्टर लगने लगे। समय बदला तो प्रचार के तरीके भी बदले। बीच के संक्रमण दौर को छलांग कर अभी की बात करें तो यह आक्रामक और महंगा हो गया है। फिल्म आने के चार-पांच महीने पहले से माहौल तैयार किया जाता है। अभी सारा जोर जानकारी से अधिक जिज्ञासा पर रहता है। माना जाता है कि दर्शकों की क्यूरोसिटी बढ़ेगी तो वे सिनेमाघरों में आएंगे। क्यूरोस