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धोबी घाट का एक सबटेक्सचुअल पाठ - राहुल सिंह

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युवा कथाकार-आलोचक राहुल सिंह वैसे तो पेशे से प्राध्यापक हैं, लेकिन प्राध्यापकीय मिथ को झुठलाते हुए पढते-लिखते भी हैं। खासकर समसामयिकता राहुल के यहां जरूरी खाद की तरह इस्तेमाल में लायी जाती है। चाहे उनकी कहानियां हों या आलोचना, आप उनकी रचनाशीलता में अपने आसपास की अनुगूंजें साफ सुन सकते हैं। अभी हाल ही में प्रदर्शित ‘धोबीघाट’ पर राहुल ने यह जो आलेख लिखा है, अपने आपमें यह काफी है इस स्थापना के सत्यापन के लिए। आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है, क्या यह अलग से कहना होगा! धोबी घाट का एक सबटेक्सचुअल पाठ राहुल सिंह अरसा बाद किसी फिल्म को देखकर एक उम्दा रचना पढ़ने सरीखा अहसास हुआ। किरण राव के बारे में ज्यादा नहीं जानता लेकिन इस फिल्म को देखने के बाद उनके फिल्म के अवबोध (परसेप्शन) और साहित्यिक संजीदगी (लिटररी सेन्स) का कायल हो गया। मुझे यह एक ‘सबटेक्स्चुअल’ फिल्म लगी जहाँ उसके ‘सबटेक्सट’ को उसके ‘टेक्सट्स’ से कमतर करके देखना एक भारी भूल साबित हो सकती है। मसलन फिल्म का शीर्षक ‘धोबी घाट’ की तुलना में उसका सबटाईटल ‘मुम्बई डायरीज’ ज्यादा मानीखेज है। सनद रहे, डायरी नहीं डायरीज। डायरीज में जो बहुवचनात्मकता