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गुरविंदर सिंह से मुलाकात -गजेन्‍द्र सिंह भाटी

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चवन्‍नी के पाठकों के लिए गजेंद्र सिंह भाटी के ब्‍लॉग फिलम सिनेमा से यह कट-पेस्‍ट....  तीन राष्ट्रीय परस्‍कार जीतने वाली फिल्म 'अन्ने घोड़े दा दान' के निर्देशक गुरविंदर सिंह से मुलाकात   59वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में युवा निर्देशक गुरविंदर सिंह की फिल्म 'अन्ने घोड़े दा दान' को तीन पुरस्कार मिले। उऩ्हें बेस्ट फिल्म और बेस्ट पंजाबी फिल्म का अवॉर्ड मिला, वहीं बेस्ट सिनेमैटोग्राफी के लिए सत्य राय नागपाल को पुरस्कार मिला। गुरविंदर विश्व सिनेमा में भारतीय और खासकर पंजाबी भाषा के योगदान को कटिबद्ध हैं, संभवतः वह गजब की फिल्में लेकर आएंगे। मिलिए गुरविंदर से और मौका मिले उनकी ये फिल्म जरूर देखें। ये पंजाबी भाषा की पहली ऐसी फिल्म है जो विश्व सिनेमा कही जा सकती है। भारत का मान बढ़ाने वाली फिल्म। घोर आर्ट है। इतना कि जहां रोना चाहिए, वहां दर्शक हंसते हैं। दिल्ली के गुरविंदर सिंह 'फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे' से फिल्ममेकिंग में ग्रेजुएशन कर चुके हैं। वहीं पढ़ते हुए उन्होंने पंजाबी साहित्यकार गुरदयाल सिंह के उपन्यास '

फिल्‍म समीक्षा : अन्‍हे घोरे दा दान

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  ऐसा भी है पंजाब  अन्हे घोरे दा दान (पंजाबी फिल्म) गुरविंदर सिंह निर्देशित अन्हे घोरे दा दान पंजाबी भाषा में बनी फिल्म है। इसका निर्माण नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कारपोरेशन ने किया है। पंजाब के मशहूर साहित्यकार गुरदयाल सिंह की कहानी पर आधारित इस फिल्म में हिंदी फिल्मों में देखे पंजाब के सरसों के खेत और बल्ले-बल्ले करते हुए भांगड़ा में मस्त किरदार नहीं हैं। कुहासे में लिपटी नीरवता उदास करती है। किरदारों की खामोश हरकतों से खीझ होती है। समझ में आता है कि समाज और गांव के हाशिए पर मौजूद किरदार आनी विवशता और लाचारी के गवाह भर हो सकते हैं। उनके अंदर प्रतिरोध है,लेकिन सामाजिक और शासकीय तंत्र के अकुंश ने उन्हें दीन-हीन अवस्था में डाल दिया है। फिल्म में उनकी स्थिति पर विलाप नहीं है। उनकी जिजीविषा और रोजमर्रा जिंदगी की व्यस्तता में ही उनके संषर्ष की दास्तान है। अनहे घोरे का दान दृश्यात्मक फिल्म है। कम संवादों में ही गांव के श्लथ किरदारों के मनाभावों को उकेरने में फिल्म सफल रही है। फिल्म का धूसर रंग नैरेटिव के मर्म को प्रभावशाली तरीके से बढ़ाता है। कलाकारों ने अपने-अपने किरदार