Posts

Showing posts with the label संजय मिश्रा

छोटी फिल्मों में कैरेक्टर मिलते हैं,बड़ी फिल्मों से पैसे - संजय मिश्रा

Image
छोटी फिल्मों में कैरेक्टर मिलते हैं - संजय मिश्रा  - अजय ब्रह्मात्मज संजय मिश्रा की ‘ अंग्रेजी में कहते हैं ' हाल ही में दर्शकों को पसंद आई.सीमित बजट की   यह फिल्म सफल रही है.ऐसी फिल्मों में लीड भूमिका निभाने के साथ ही संजय मिश्रा मुख्यधारा की फिल्मों के भी चहेते कलाकार हैं. - आप जैसे कलाकारों पर फिल्म इंडस्ट्री की निर्भरता बढ़ी है.आप इसे कैसे लेते हैं ? 0 मैं इसे फिल्म इंडस्ट्री की निर्भरता नहीं कहूंगा. हां , स्वतंत्र निर्माता हमें चुन रहे हैं. हालाँकि वे भी फिल्मों में आ जाते हैं तो फिल्म इंडस्ट्री का हिस्सा हो जाते हैं. इनके पास फिल्म बनाने की तमन्ना रहती है. इनके पास 40-50 करोड़ नहीं होत , इसलिए ये छोटी फिल्मों में निवेश करते हैं.ये लोग दो से चार करोड़ रुपए में फिल्में बनाना चाहते हैं. ‘ मसान ’ और ‘ आखिन देख फिल्मों से इन्हें प्रेरणा मिलती है. मुझे यह अच्छा लगता है कि स्वतंत्र निर्माता आ रहे हैं. कॉर्पोरेट तो एक ही विचार को लेकर चलते हैं कि उन्हें फायदा चाहिए. स्वंतंत्र निर्माता अलग-अलग विषयों और विचारों को लेकर आते हैं. - मुख्य धारा की फिल्मों में भी आ

फिल्म समीक्षा : अंग्रेजी में कहते हैं

Image
फिल्म समीक्षा बत्रा साहब की प्रेमकहानी अंग्रेजी में कहते हैं  - अजय ब्रह्मात्मज  हरीश व्यास की बनारस की पृष्ठभूमि पर बनी 'अंग्रेजी में कहते हैं' संजय मिश्रा की अदाकारी के लिए देखी जानी चाहिए। अभिनेता संजय मिश्रा के दो रूप हैं। एक रूप में वे मुख्यधारा की मसाला फिल्मों में हंसाने के काम आते हैं।  इन फिल्मों में का हीरो कोई भी हो,दर्शकों को संजय मिश्रा का इंतज़ार रहता है। दूसरे रूप में वे तथाकथित छोटी फिल्मों में दर्शकों को रुलाते हैं। यूँ कहें कि आम दर्शकों के दर्द को परदे पर बखूबी उतारते हैं। 'अंग्रेजी में कहते हैं' में वे पोस्टल डिपार्टमेंट के मामूली कर्मचारी हैं। इस फिल्म में उनका नाम यशवंत बत्रा है। अगर बत्रा की जगह वे व्यास,मिश्रा या पांडेय होते या श्रीवास्तव,सिंह या चौधरी भी होते तो तो फिल्म बनारस का सही प्रतिनिधित्व करती है। तात्पर्य यह की हिंदी फिल्मों के निर्देशकों पर पंजाबी किरदारों का इतना दवाब रहता है की 'अंग्रेजी में कहते हैं' जैसी फिल्मों के नायक का सरनेम वे नहीं बदल पाते। मनो नायक बनने और इश्क़ करने का हक़ केवल पंजाबियों को है।  उनका

फिल्‍म समीक्षा - अनारकली ऑफ आरा

Image
फिल्‍म रिव्‍यू ’ मर्दों ’ की मनमर्जी की उड़े धज्जी अनारकली ऑफ आरा     -अमित कर्ण 21 वीं सदी में आज भी बहू , बेटियां और बहन घरेलू हिंसा , बलात संभोग व एसिड एटैक के घने काले साये में जीने को मजबूर हैं। घर की चारदीवारी हो या स्‍कूल-कॉलेज व दफ्तर चहुंओर ‘ मर्दों ’ की बेकाबू लिप्‍सा और मनमर्जी औरतों के जिस्‍म को नोच खाने को आतुर रहती है। ऐसी फितरत वाले बिहार के आरा से लेकर अमेरिका के एरिजोना तक पसरे हुए हैं। लेखक-निर्देशक अविनाश दास ने उन जैसों की सोच वालों पर करारा प्रहार किया है। उन्‍होंने आम से लेकर कथित ‘ नीच ’ माने जाने वाले तबके तक को भी इज्‍जत से जीने का हक देने की पैरोकारी की है। इसे बयान करने को उन्‍होंने तंज की राह पकड़ी है। इस काम में उन्हें कलाकारों , गीतकारों , संगीतकारों व डीओपी का पूरा सहयोग मिला है। उनकी नज़र नई पीढ़ी के ग़ुस्से और नाराज़गी से फिल्‍म को लैस करती है। अविनाश दास ने अपने दिलचस्‍प किरदारों अनारकली , उसकी मां , रंगीला , हीरामन , धर्मेंद्र चौहान , बुलबुल पांडे व अनवर से कहानी में एजेंडापरक जहान गढा है। हरेक की ख्‍वाहिशें , महत्‍वाकांक्षाएं व ला

तारणहार बनते कैरेक्‍टर कलाकार

Image
-अमित कर्ण हाल की कुछ फिल्‍मों पर नजर डालते हैं। खासकर ‘ बजरंगी भाईजान ’ , ‘ दिलवाले ’ , ‘मसान’, ‘ बदलापुर ’ , ‘ मांझी- द माउंटेनमैन ’ , ‘ हंटर ’ , पर। उक्‍त फिल्‍मों में एक कॉमन पैटर्न है। वह यह कि उन्‍हें लोकप्रिय करने में जितनी अहम भूमिका नामी सितारों की थी, उससे कम उन फिल्‍मों के ‘कैरेक्‍टर आर्टिस्‍ट‘ की नहीं थी। ‘ बजरंगी भाईजान ’ और ‘ बदलापुर ’ से नवाजुद्यीन सिद्यीकी का काम गौण कर दें तो वे फिल्‍में उस प्रतिष्‍ठा को हासिल नहीं कर पाती, जहां वे आज हैं। ‘मसान’ के किरदार आध्‍यात्मिक सफर की ओर ले जा रहे होते हैं कि बीच में पंकज त्रिपाठी आते हैं। शांत और सौम्‍य चित्‍त इंसान के किरदार में दिल को छू जाते हैं। ‘ दिलवाले ’ में शाह रुख-काजोल की मौजूदगी के बावजूद दर्शक बड़ी बेसब्री से संजय मिश्रा का इंतजार कर रहे होते हैं। थोड़ा और पीछे चलें तो ‘नो वन किल्‍ड जेसिका’ में सिस्‍टम के हाथों मजबूर जांच अधिकारी और ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्‍स’ में दत्‍तों के भाई बने राजेश शर्मा की अदाकारी अाज भी लोगों के जहन में है। ‘विकी डोनर’ की बिंदास दादी कमलेश गिल और सिंगल मदर बनी डॉली अहलूवालिय

फिल्‍म समीक्षा : दिलवाले

Image
कार और किरदार -अजय ब्रह्मात्‍मज         रोहित शेट्टी की ‘ दिलवाले ’ और आदित्‍य चोपड़ा की ‘ दिवाले दुल्‍हनिया ले जाएंगे ’ में दिलवाले के अलावा एक संवाद की समानता है-बड़े-बड़ शहरों में एसी छोटी-छोटी बाते होती रहती है सैनोरीटा। इसे बोलते हुए शाह रुख खान दर्शकों को हंसी के साथ वह हसीन सिनेमाई याद भी देते हें,जो शाह रुख खान और काजोल की जोड़ी के साथ जुड़ी हुई है। ऐसा कहा और लिखा जाता है कि पिछले 20 सालों में ऐसी हॉट जोड़ी हिंदी फिल्‍मों में नहीं आई। निश्चित ही इस फिल्‍म के खयाल में भी यह जोड़ी रही होगी। ज्‍यादातर एक्‍शन और कॉमेडी से लबरेज फिल्‍में बनाने में माहिर रोहित शेट्टी ने इसी जोड़ी की उपयोगिता के लिए फिल्‍म में उनके रोमांटिक सीन और गाने रखे हैं। तकनीकी प्रभावो से वे शाह रुख और काजोल को जवान भी दिखाते हैं। हमें अच्‍छा लगता है। हिंदी स्‍क्रीन के दो प्रमियों को फिर से प्रेम करते,गाने गाते और नफरत करते देखने का आनंद अलग होता है।     रोहित शेट्टी की फिल्‍मों में कार भी किरदार के तौर पर आती हैं। कारें उछलती हैं,नाचती हैं,टकराती हैं,उड़ती है,कलाबाजियां खाती हैं,और