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फिल्‍म समीक्षा : क्‍या कूल हैं हम 3

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फूहड़ता की अति -अजय ब्रह्मात्‍मज कुछ फिल्‍में मस्‍ती और एडल्‍ट कामेडी के नाम पर जब संवेदनाएं कुंद करती हैं तो दर्शक के मुह से निकलता है- -क्‍या फूल हैं हम ? फूल यहां अंग्रेजी का शब्‍द है,जिसका अर्थ मूर्ख ही होता है। उमेश घडगे निर्देशित ‘ क्‍या कूल हैं हम ’ ‘ एडल्‍ट कामेडी ’ के संदर्भ में भी निराश करती है। हिंदी फिल्‍म इंडस्‍ट्री के परिचित नाम मुश्‍ताक शेख और मिलाप झवेरी इसके लेखन से जुड़े हैं। अभी अगले हफ्ते फिर से मिलाप झावेरी एक और एडल्‍ट कामेडी लेकर आएंगे,जिसका लेखन के साथ निर्देशन भी उन्‍होंने किया है। ‘ क्‍या कूल हैं हम ’ की तीसरी कड़ी के रूप में आई इस फिल्‍म में इस बार रितेश देशमुख की जगह आफताब शिवदासानी आ गए हैं। फिल्‍म की फूहड़ता बढ़ाने में उनका पूरा सहयोग रहा है। कन्‍हैया और रॉकी लूजर किस्‍म के युवक हैं। जिंदगी में असफल रहे दोनों दोस्‍तों को उनके तीसरे दोस्‍त मिकी से थाईलैंड आने का ऑफर मिलता है। मिकी वहां पॉपुलर हिंदी फिल्‍मों के सीन लेकर सेक्‍स स्‍पूफ तैयार करते हैं। पोर्न फिल्‍मों के दर्शक एक वीडियो से वाकिफ होंगे। मिकी का तर्क है कि वह ऐसी फिल्‍मों से

फिल्‍म समीक्षा : क्‍या सुपर कूल हैं हम

फूहड़ एडल्ट कामेडी -अजय ब्रह्मात्‍मज सचिन यार्डी की क्या सुपर कूल हैं हम अपने उद्देश्य में स्पष्ट है। उन्होंने घोषित रूप से एक एडल्ट कामेडी बनाई है। एडल्ट कामेडी के लिए जरूरी नटखट व्यवहार,द्विअर्थी संवाद,यौन उत्कंठा बढ़ाने के हंसी-मजाक और अश्लील दृश्य फिल्म में भरे गए हैं। उनके प्रति लेखक-निर्देशक ने किसी प्रकार की झिझक नहीं दिखाई है। पिछले कुछ सालों में इस तरह की फिल्मों के दर्शक भी तैयार हो गए हैं। जस्ट वयस्क हुए युवा दर्शकों के बीच ऐसी फिल्मों का क्रेज किसी लतीफे के तरह प्रचलित हुआ है। संभव है ऐसे दर्शकों को यह फिल्म पर्याप्त मनोरंजन दे। आदि और सिड संघर्षरत हैं। आदि एक्टर बनना चाहता है और सिड की ख्वाहिश डीजे बनने की है। दोनों अपनी कोशिशों में लगातार असफल हो रहे हैं। कुछ सिक्वेंस के बाद उन्हें अपनी फील्ड में स्ट्रगल की परवाह नहीं रहती। वे लड़कियों के पीछे पड़ जाते हैं। लेखक-निर्देशक उसके बाद से उनके प्रेम की उच्छृंखलताओं में रम जाते हैं। वही इस फिल्म का ध्येय भी है। क्या सुपर कूल हैं हम में स्तरीय कामेडी की उम्मीद करना फिजूल है। फूहड़ता और द्विअर्थी संवादों की झड़ी लगी रहती है। फ

फिल्‍म समीक्षा : शोर

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मुंबई की सेंट्रल लाइन के सपने -अजय ब्रह्मात्‍मज राज निदिमोरू और कृष्णा डीके की शोर छोटे स्केल पर बनी सारगर्भित फिल्म है। बाद में एकता कपूर के जुड़ जाने से फिल्म थोड़ी बड़ी दिखने लगी है। अगर इस फिल्म को एक बड़े निर्माता की फिल्म के तौर पर देखेंगे तो निराशा होगी। राज और कृष्णा की कोशिश के तौर पर इसका आनंद उठा सकते हैं। *हर फिल्म का अपना मिजाज और स्वरूप होता है। अगर दर्शकों के बीच पहुंचने तक वह आरंभिक सोच और योजना के मुताबिक पहुंचे तो दर्शक भी उसे उसी रूप में स्वीकार कर लेते हैं। इधर एक नया ट्रेंड चल रहा है कि फिल्म बनती किसी और नजरिए से है और उसकी मार्केटिंग का रवैया कुछ और होता है। शोर ऐसे ही दो इरादों के बीच फंसी फिल्म है। *शोर में तीन कहानियां हैं। एक कहानी में विदेश से आया एक उद्यमी मुंबई में आकर कुछ करना चाहता है। दूसरी कहानी में मुंबई की सेंट्रल लाइन के उपनगर के तीन उठाईगीर हैं, जो कुछ कर गुजरने की लालसा में रिस्क लेते हैं। तीसरी कहानी एक युवा क्रिकेटर की है। तीनों कहानियों के किरदारों का साबका अपराध जगत से होता है। अपराधियों के संसर्ग में आने से उनकी सोच में तब्दीली आती