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दरअसल : तारीफों की टर्र-टर्र

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-अजय ब्रह्मात्मज     इन दिनों कई फिल्मों की रिलीज के समय अचानक सोशल मीडिया नेटवर्क पर फिल्मी हस्तियों की सिफारिशें आरंभ हो जाती हैं। बरसाती मेढकों की तरह प्रशंसक टरटराने लगते हैं। फेसबुक और ट्विटर पर इनकी टर्र-टर्र ऐसी गूंजती है कि हर तरफ तारीफ बरसने लगती है। छोटी फिल्मों के लिए यह अच्छी बात होती है। माहौल बन जाता है। इस माहौल में दर्शक मिल जाते हैं। हाल ही में ‘फिल्मिस्तान’  और ‘द वल्र्ड बिफोर हर’ इसके उदाहरण रहे।     ‘फिल्मिस्तान’ 2012 की फिल्म है। उस साल यह अनेक फेस्टिवल में दिखाई गई। 2012 के लिए इसे 2013 में पुरस्कार भी मिला, लेकिन वितरकों के अभाव में ‘फिल्मिस्तान’ समय पर रिलीज नहीं हो सकी। भला हो श्याम श्रॉफ और उनकी श्रृंगार फिल्म्स का। उन्हें फिल्म अच्छी लगी तो वितरण का रास्ता आसान हो गया। फिर यूटीवी का भी समर्थन मिल गया। ‘फिल्मिस्तान’ हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की प्रमुख हस्तियों को दिखाई गई। सभी ने तारीफ के पुल बांधे। शाबिर हाशमी और इनामुल हक के साथ तस्वीरें खिचवाई गईं। बताया गया कि यह श्रेष्ठ सिनेमा है। इस श्रेष्ठ सिनेमा को एक साल से ज्यादा समय तक गुमनाम क्यों रहना पड़ा? देखें तो