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पन्ने से परदे तक – कहानी पिंजर और मोहल्ला अस्सी की : डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी

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भारतीय साहित्य की दोंनों बहु चर्चित कृतियों का फिल्म के लिए लेखन कुछ आसान भी था और कठिन भी. आसान इसलिए की दोंनों के पास एक पुख्ता ज़मीन थी.कथा की.चरित्रों की.चरित्रों   के विकास और उत्थन पतन की.और कथा के प्रवाह और चरित्रों में परिवर्तन की. मुश्किल इसलिए की दोंनों की कथा का विस्तार और काल खंड विस्तृत था.दोंनों ही अपने समाज के इतिहास को अपने अंक में संजोये एक विशिष्ट काल और समाज की यात्रा पर ले जाते हैं. पहले बात पिंजर की अमृता प्रीतम की पिंजर में कथा का काल लगभग बारह साल से अधिक का है. मूल कहानी सियाम ( वर्तमान थाईलेंड ) से प्रारंभ होती है.लगभग सन १९३५ का सियाम.कहानी की नायिका पूरो (उर्मिला मातोंडकर ) के पिता (कुलभूषण खरबंदा ) अपने परिवार सहित सियाम में रहते हैं.सन १९३५ के सियाम की पुनर्रचना खर्चीला भी था और सियाम के इतिहास और स्थापत्य का मेरा अध्ययन भी नहीं था.इसलिए विचार आया कि क्यों न परिवार की स्थापना अमृतसर में की जाये.यह आसान भी था और सियाम की तुलना में कम खर्चीला.१९३५ के अमृतसर की छबियाँ भी उपलब्ध थी और ऐसे बहुत से लोगों को ढूँढा भी जा सकता था जिन्होंने उस

मोहल्‍ला अस्‍सी

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बनारस के अस्‍सी घाट पर सनी देओल का उल्‍लास। यह तस्‍वीर डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी की अगली फिल्‍म मोहलला अस्‍सी की है। इस फिल्‍म की शूटिंग पिछले साल ही रिकार्ड समय में पूरी हो गई थी। निर्माता की लापरवाही से यह अनोखी फिल्‍म अभी तक अटकी पड़ी है। काशीनाथ सिंह के उपन्‍यास 'काशी का अस्‍सी' पर आधारित इस फिल्‍म का हिंदी पट्टी में बेसब्री से इंतजार है।

मोहल्‍ला अस्‍सी : गालियों और चाय की चुस्कियों...

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मोहल्‍ला अस्‍सी पर तहलका के अतुल चौरसिया की रपट... गालियों और चाय की चुस्कियों में लिपटी सभ्यता को पर्दे पर उतारने की कोशिश बनारस के अस्सी घाट पर वरिष्ठ साहित्यकार काशीनाथ सिंह की बहुचर्चित किताब काशी का अस्सी पर आधारित फिल्म मोहल्ला अस्सी की शूटिंग से लौटे अतुल चौरसिया फिल्म और साहित्य के प्रति फिल्म के निर्देशक चंद्रप्रकाश द्विवेदी, काशीनाथ सिंह और कहानी के वास्तविक एवं फिल्मी पात्रों का नजरिया साझा कर रहे हैं (लेख में आई कुछ गालियां काशी का अस्सी पुस्तक से संदर्भश: ली गई हैं) बुलेट जैसी निर्जीव मशीन की मां-बहन से किसी का नितांत अंतरंग रिश्ता जुड़ते देखकर ही यह एहसास विश्वास में बदल जाता है कि हम 'सुबहे बनारस' के शहर में हैं, जिसकी धमनियों में गंगा, गलियां और गालियां रक्त के समान ही प्रवाहित होती हंै. चंदुआ सट्टी से लंका की तरफ बढ़ते ही जाम ने अपना मुंह सुरसा की तरह फैला रखा है. नये लोग और दिल्ली-बेंगलुरु के असर में जीने वाले शहर के इस तुमुल कोलाहल पर मुंह बिचकाते दिखते हैं लेकिन सात समंदर पार से यहां आने वाले अंग्रेज और अंग्रेजिनों के माथों पर कोई शिकन तक नहीं दिखती. उनकी नि

जिया रजा बनारस-डा चंद्रप्रकाश द्विवेदी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज अमृता प्रीतम के उपन्यास 'पिंजर' पर फिल्म बना चुके डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने अगली फिल्म के लिए काशीनाथ सिंह की रचना 'काशी का अस्सी' का चुनाव किया है। उनसे बातचीत के अंश- [आप लंबे अंतराल के बाद शूटिंग करने जा रहे हैं?] काम तो लगातार कर रहा हूं। बीते चार सालों में मैंने टीवी के लिए उपनिषद गंगा की शूटिंग की। लिख भी रहा था। हां, फिल्म के सेट पर लंबे समय के बाद जा रहा हूं। [नई फिल्म की कहानी क्या है?] बनारस के बैकड्राप में यह पूरे देश की कहानी है। यह व्यंग्य है। हम कुछ मूल्यों को लेकर जीवन जीते हैं। उन मूल्यों के लिए लड़ते रहते हैं, फिर ऐसा मुकाम आता है, जब उन मूल्यों का ही समझौता करना पड़ता है। इसमें बनारसी अक्खड़पन है। मस्ती और चटखीला उल्लास है। यह जीवन के उत्सव की कहानी है। फिल्म के लिए सनी देओल, रवि किशन, निखिल द्विवेदी, मुकेश तिवारी, सौरभ शुक्ला, दयाशंकर पांडे के साथ रंगमंच के अनेक कलाकारों का चुनाव हो चुका है। बनारस की प्रतिभाएं भी दिखेगी। [तो क्या इस फिल्म की शूटिंग बनारस में भी करेंगे?] बनारस के रंग और छटा के बिना यह फिल्म पूरी नहीं हो सकती। बनारस