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फिल्‍म समीक्षा : क्‍या दिल्‍ली क्‍या लाहौर

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  ओथे भी अपने, येथे भी अपने गुलजार की पंक्तियों और आवाज में आरंभ होती क्या दिल्ली क्या लाहौर विभाजन की पृष्ठभूमि रच देती है। सरहद की लकीर को स्वीकार करने के साथ कबड्डी खेलने का आह्वान करते शब्द वास्तव में विभाजन के बावजूद भाईचारे की जरूरत पर जोर देती है। हिंदी फिल्मों में विभाजन की पीड़ा,समस्या और त्रासदी पर गिनी-चुनी फिल्में ही बनी हैं। इस लिहाज से विजय राज का यह प्रयास उल्लेखनीय और सराहनीय है। फिल्म का कैनवास छोटा है। महज दो किरदारों के माध्यम से निर्देशक ने विभाजन के दंश को उकेरने की सफल कोशिश की है। रहमत अली ने जिंदगी के 32 साल दिल्ली में बिताए हैं। विभाजन के बाद वह लाहौर चला जाता है? वहां वह फौज में भर्ती हो जाता है। दूसरी तरफ समर्थ प्रताप शास्त्री 35 साल की आरंभिक जिंदगी बिताने के बाद दिल्ली चला आता है। उसे भारतीय सेना में बावर्ची की नौकरी मिल जाती है। समर्थ का ठिकाना दिल्ली का रिफ्यूजी कैंप है तो रहमत को लाहौर के मुहाजिर खाना में शरण मिली है। संयोग ऐसा बनता है कि दोनों सीमा पर एक-दूसरे से टकराते हैं। दोनों एक-दूसरे के दुश्मन हैं,क्योंकि दोन

फ़िल्म समीक्षा:जुगाड़

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-अजय ब्रह्मात्मज निर्माता संदीप कपूर ने चाहा होगा कि उनकी जिंदगी के प्रसंग को फिल्म का रूप देकर सच, नैतिकता और समाज में प्रचलित हो रहे जुगाड़ को मिलाकर दर्शकों को मनोरंजन के साथ संदेश दिया जाए। जुगाड़ देखते हुए निर्माता की यह मंशा झलकती है। उन्होंने एक्टर भी सही चुने हैं। सिर्फ लेखक और निर्देशक चुनने में उनसे चूक हो गई। इरादे और प्रस्तुति के बीच चुस्त स्क्रिप्ट की जरूरत पड़ती है। उसी से फिल्म का ढांचा तैयार होता है। ढांचा कमजोर हो तो रंग-रोगन भी टिक नहीं पाते। जुगाड़ दिल्ली की सीलिंग की घटनाओं से प्रेरित है। संदीप कपूर की एक विज्ञापन कंपनी है,जो बस ऊंची छलांग लगाने वाली है। सुबह होने के पहले विज्ञापन कंपनी के आफिस पर सीलिंग नियमों के तहत ताला लग जाता है। अचानक विज्ञापन कंपनी सड़क पर आ जाती हैं और फिर अस्तित्व रक्षा के लिए जुगाड़ आरंभ होता है। इस प्रक्रिया में दिल्ली के मिजाज, नौकरशाही और बाकी प्रपंच की झलकियां दिखती है। विज्ञापन कंपनी के मालिक संदीप और उनके दोस्त आखिरकार सच की वजह से जीत जाते हैं। रोजमर्रा की समस्याओं को लेकर रोचक, व्यंग्यात्मक और मनोरंजक फिल्में बन सकती हैं