दोनों हाथों में लड्डू : सुशांत सिंह राजपूत
-अजय ब्रह्मात्मज सुशांत सिंह राजपूत की ‘पीके’ इस महीने रिलीज होगी। ‘पीके’ में उनकी छोटी भूमिका है। दिबाकर बनर्जी की ‘ब्योमकेश बख्शी’ में हम उन्हें शीर्षक भूमिका में देखेंगे। झंकार के लिए हुई इस बातचीत में सुशांत सिंह राजपूत ने अपने अनुभवों, धारणाओं और परिवर्तनों की बातें की हैं। फिल्मों में अक्सर किरदारों के चित्रण में कार्य-कारण संबंध दिखाया जाता है। लेखक और निर्देशक यह बताने की कोशिश करते हैं कि ऐसा हुआ, इसलिए वैसा हुआ। मुझे लगता है जिंदगी उससे अलग होती है। यहां सीधी वजह खोज पाना मुश्किल है। अभी मैं जैसी जिंदगी जी रहा हूं और जिन द्वंद्वों से गुजर रहा हूं, उनका मेरे बचपन की परवरिश से सीधा संबंध नहीं है। रियल इमोशन अलग होते हैं। पर्दे पर हम उन्हें बहुत ही नाटकीय बना देते हैं। पिछली दो फिल्मों के निर्देशकों की संगत से मेरी सोच में गुणात्मक बदलाव आ गया है। पहले राजकुमार हिरानी और फिर दिबाकर बनर्जी के निर्देशन में समझ में आया कि पिछले आठ सालों से जो मैं कर रहा था, वह एक्टिंग नहीं कुछ और थी। मैं आप को प्वॉइंट देकर नहीं बता सकता कि मैंने क्या सीखा, लेकिन बतौर अभिनेता मेरा विकास हुआ।