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फिल्म समीक्षा : बत्ती गुल मीटर चालू

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फिल्म समीक्षा बत्ती गुल मीटर चालू -अजय ब्रह्मात्मज श्रीनारायण सिंह की पिछली फिल्म ‘टॉयलेट एक प्रेमकथा' टॉयलेट की ज़रुरत पर बनी प्रेरक फिल्म थी.लोकप्रिय स्टार अक्षय कुमार की मौजूदगी ने फिल्म के दर्शक बढ़ा दिए थे.पीछ फिल्म की सफलता ने श्रीनारायण सिंह को फिर से एक बार ज़रूरी मुद्दा उठाने के लिए प्रोत्साहित किया.इस बार उन्होंने अपने लेखको सिद्धार्थ-गरिमा के साथ मिल कर बिजली के बेहिसाब ऊंचे बिल को विषय बनाया.और पृष्ठभूमि और परिवेश के लिए उत्तराखंड का टिहरी गढ़वाल शहर चुना. फिल्म शुरू होती है टिहरी शहर के तीन मनचले(एसके,नॉटी और सुंदर ) जवानों के साथ.तीनो मौज-मस्ती के साथ जीते है. एसके(शाहिद कपूर) चालाक और स्मार्ट है.और पेशे से वकील है.नॉटी(श्रद्धा कपूर) शहर की ड्रेस डिज़ाइनर है.वह खुद को मनीष मल्होत्रा से कम नहीं समझती.छोटे शहरों की हिंदी फिल्मों में सिलाई-कटाई से जुड़ी नौजवान प्र्र्धि में मनीष मल्होत्रा बहुत पोपुलर हैं.भला हो हिंदी अख़बारों का. आशंकित हूँ की कहीं ‘सुई धागा' में वरुण धवन भी खुद को मनीष मल्होत्रा न समझते हों.खैर,तीसरा सुंदर(दिव्येन्दु शर्मा) अपना व्यवसाय ज़माने की

फिल्म समीक्षा : मंटो

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फिल्म समीक्षा मंटो -अजय ब्रह्मात्मज नंदिता दास की ‘मंटो' 1936-37 के आसपास मुंबई में शुरू होती है. अपने बाप द्वारा सेठों के मनोरंजन के लिए उनके हवाले की गयी बेटी चौपाटी जाते समय गाड़ी में देविका रानी और अशोक कुमार की ‘अछूत कन्या' का मशहूर गीत ‘मैं बन की चिड़िया’ गुनगुना रही है.यह फिल्म का आरंभिक दृश्यबंध है. ‘अछूत कन्या' 1936 में रिलीज हुई थी. 1937 में सआदत हसन मंटो की पहली फिल्म ‘किसान कन्या’ रिलीज हुई थी. मंटो अगले 10 सालों तक मुंबई के दिनों में साहित्यिक रचनाओं के साथ फिल्मों में लेखन करते रहे. उस जमाने के पोपुलर स्टार अशोक कुमार और श्याम उनके खास दोस्त थे. अपने बेबाक नजरिए और लेखन से खास पहचान बना चुके मंटो ने आसान जिंदगी नहीं चुनी. जिंदगी की कड़वी सच्चाइयां उन्हें कड़वाहट से भर देती थीं. वे उन कड़वाहटों को अपने अफसानों में परोस देते थे.इसके लिए उनकी लानत-मलामत की जाती थी. कुछ मुक़दमे भी हुए. नंदिता दास ने ‘मंटो’ में उनकी जिंदगी की कुछ घटनाओं और कहानियों को मिलाकर एक मोनोग्राफ प्रस्तुत किया है. इस मोनोग्राफ में मंटो की जिंदगी और राइटिंग की झलक मात्र है. इस फिल

फिल्म समीक्षा : चश्मे बद्दूर

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-अजय ब्रह्मात्मज 'हिम्मतवाला' के रीमेक की साजिद खान की लस्त-पस्त कोशिश के बाद डेविड धवन की रीमेक 'चश्मेबद्दूर' से अधिक उम्मीद नहीं थी। डेविड धवन की शैली और सिनेमा से हम परिचित हैं। उनकी हंसी की धार सूख और मुरझा चुकी है। पिछली फिल्मों में वे पहले जैसी चमक भी नहीं दिखा सके। गोविंदा का करियरग्राफ गिरने के साथ डेविड धवन का जादू बिखर गया। 'चश्मे बद्दूर' के शो में घुसने के समय तक आशंका बरकरार रही, लेकिन यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि डेविड धवन की 'चश्मेबद्दूर' एक अलग धरातल पर चलती है और हंसाती है। पुरानी फिल्म के प्रति नॉस्टेलजिक होना ठीक है। सई परांजपे की 'चश्मे बद्दूर' अच्छी और मनोरंजक फिल्म थी। रीमेक में मूल के भाव और अभिनय की परछाइयों को खोजना भूल होगी। यह मूल से बिल्कुल अलग फिल्म है। डेविड धवन ने मूल फिल्म से तीन दोस्त और एक लड़की का सूत्र लिया है और उसे नए ढंग से अलहदा परिवेश में चित्रित कर दिया है। 'चश्मे बद्दूर' की अविराम हंसी के लिए सबसे पहले साजिद-फरहाद को बधाई देनी होगी। उनकी पंक्तियां कमाल करती हैं। उन पंक्त

फिल्म समीक्षा : मौसम

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कठिन समय में प्रेम -अजय ब्रह्मात्मज पंकज कपूर की मौसम मिलन और वियोग की रोमांटिक कहानी है। हिंदी फिल्मों की प्रेमकहानी में आम तौर पर सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं की पृष्ठभूमि नहीं रहती। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक और गंभीर अभिनेता जब निर्देशक की कुर्सी पर बैठते हैं तो वे अपनी सोच और पक्षधरता से प्रेरित होकर अपनी सृजनात्मक संतुष्टि के साथ महत्वपूर्ण फिल्म बनाने की कोशिश करते हैं। हिंदी फिल्मों के लोकप्रिय ढांचे और उनकी सोच में सही तालमेल बैठ पाना मुश्किल ही होता है। अनुपम खेर और नसीरुद्दीन शाह के बाद अब पंकज कपूर अपने निर्देशकीय प्रयास में मौसम ले आए हैं। पंकज कपूर ने इस प्रेमकहानी के लिए 1992 से 2002 के बीच की अवधि चुनी है। इन दस-ग्यारह सालों में हरेन्द्र उर्फ हैरी और आयत तीन बार मिलते और बिछुड़ते हैं। उनका मिलना एक संयोग होता है, लेकिन बिछुड़ने के पीछे कोई न कोई सामाजिक-राजनीतिक घटना होती है। फिल्म में पंकज कपूर ने बाबरी मस्जिद, कारगिल युद्ध और अमेरिका के व‌र्ल्ड ट्रेड सेंटर के आतंकी हमले का जिक्र किया है। पहली घटना में दोनों में से कोई भी शरीक नहीं है। दूसरी घटना में हैरी

फिल्म समीक्षा:नॉट ए लव स्टोरी

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अनचाही हत्या में फंसे प्रेमी -अजय ब्रह्मात्मज निर्देशक राम गोपाल वर्मा का डिस्क्लेमर है कि यह फिल्म किसी सच्ची घटना या व्यक्ति से प्रभावित नहीं है, लेकिन हम सभी जानते हैं कि यह किस घटना और व्यक्ति से प्रभावित है। राम गोपाल वर्मा ने किरदारों के नाम और पेशे बदल दिए हैं। कहानी वही रखी है। एक महात्वाकांक्षी लड़की हीरोइन बनने के सपने लेकर मुंबई पहुंचती है और अनजाने ही एक क्रूर हादसे का हिस्सा बन जाती है। राम गोपाल वर्मा ने प्राकृतिक रोशनी में वास्तविक लोकेशन पर अपने कलाकारों को पहुंचा दिया है और डिजिटल कैमरे से सीमित संसाधनों में यह फिल्म पूरी की है। मुंबई से दूर बैठे युवा निर्देशक गौर करें। नॉट ए लव स्टोरी देखकर लगता है कि अगर आप के पास एक पावरफुल कहानी है और सशक्त अभिनेता हैं तो कम से कम लागत में भी फिल्में बनाई जा सकती हैं। राम गोपाल वर्मा ने इस फिल्म के लिए पेशेवर कैमरामैन को भी नहीं चुना। उन्होंने प्रशिक्षित और उत्साही युवा फोटोग्राफरों को यह जिम्मेदारी सौंप कर सुंदर काम निकाला है। रामू की यह फिल्म युवा फिल्मकारों को प्रयोग करने का आश्वासन देती है। चूंकि फिल्म प्रेम, हत्या और

फिल्‍म समीक्षा : चलो दिल्‍ली

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-अजय ब्रह्मात्‍मज * मध्यवर्ग के मूल्य, आदर्श, प्रेम और उत्सवधर्मिता से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। चलो दिल्ली में निर्देशक शशांत शाह की यह कोशिश रंग लाई है। उन्होंने इस संदेश के लिए एक उच्चवर्गीय और एक मध्यवर्गीय किरदार के साथ जयपुर से दिल्ली का सफर चुना है। *मनु गुप्ता दिल्ली के चांदनी चौक के निवासी हैं। मनु गुप्ता की करोलबाग में लेडीज आयटम की दुकान है। वे गुटखे के शौकीन हैं और धारीदार अंडरवियर पहनते हैं। मिहिका बनर्जी मुंबई की एक कारपोरेट कंपनी की मालकिन हैं, जिनके अधीन 500 से अधिक लोग काम करते हैं। वह आधुनिक शहरी कारपोरेट कन्या हैं, जिनकी हर बात और काम में सलीका है। *बात तब बिगड़ती है, जब दोनों परिस्थितिवश एकही सवारी से जयपुर से दिल्ली के लिए निकलते हैं। मनु गुप्ता के लिए कोई भी घटना-दुर्घटना कोई बड़ी बात नहीं है, जबकि मिहिका बनर्जी हर बात पर भिनकती और झिड़कती रहती है। अलग-अलग परिवेश और उसकी वजह से भिन्न स्वभाव के दो व्यक्तियों का हमसफर होना ही हंसी के क्षण जुटाता है। *जयपुर से दिल्ली के सफर में कई ब्रेक लगते हैं। मनु और मिहिका को इलाके में प्रचलित हर सवारी का सहारा लेन

फिल्‍म समीक्षा : थैंक यू

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टाइमपास कामेडी -अजय ब्रह्मात्‍मज प्रियदर्शन और डेविड धवन की तरह अनीस बजमी का भी एक फार्मूला बन गया है। उनके पास कामेडी के दो-तीन समीकरण हैं। उन्हें ही वे भिन्न किरदारों और कलाकारों के साथ अलग-अलग फिल्मों में दिखाते रहते हैं। थैंक यू में अनीस बज्मी ने नो एंट्री की मौज-मस्ती और विवाहेतर संबंध के हास्यास्पद नतीजों को कनाडा की पृष्ठभूमि में रखा है। वहां फ्लर्ट स्वभाव के पतियों को रास्ते पर लाने के लिए सलमान खान थे। यहां अक्षय कुमार हैं। नो एंट्री में बिपाशा बसु का आयटम गीत था। थैंक यू में मलिका सहरावत रजिया की धुनों पर ठुमके लगाती दिखती हैं। अनीस बज्मी की फिल्में टाइमपास होती हैं। डेविड धवन के विस्तार के रूप में उन्हें देखा जा सकता है। उनकी फिल्में लिखते-लिखते अनीस बज्मी निर्देशन में उतरे और फिर आजमाए फार्मूले से कमोबेश कामयाब होते रहे हैं। थैंक यू में तीन दोस्त हैं। उनकी फितरत में फ्लर्टिग है। मौका मिलते ही वे दूसरी लड़कियों के चक्कर में पड़ जाते हैं। अपनी बीवियों को दबा, समझा और बहकाकर उन्होंने अय्याशी के रास्ते खोज लिए हैं। बीवियों को शक होता है तो उन्हें रास्ते पर लाने के ल

फिल्‍म समीक्षा :आयशा

-अजय ब्रह्मात्‍मज सोनम कपूर सुंदर हैं और स्टाइलिश परिधानों में वह निखर जाती हैं। समकालीन अभिनेत्रियों में वह अधिक संवरी नजर आती हैं। उनके इस कौशल का राजश्री ओझा ने आयशा में समुचित उपयोग किया है। आयशा इस दौर की एक कैरेक्टर है, जिसकी बनावट से अधिक सजावट पर ध्यान दिया गया है। हम एक ऐसे उपभोक्ता समाज में जी रहे हैं, जहां साधन और उपकरण से अधिक महत्वपूर्ण उनके ब्रांड हो गए हैं। आयशा में एक मशहूर सौंदर्य प्रसाधन कंपनी का अश्लील प्रदर्शन किया गया है। कई दृश्यों में ऐसा लगता है कि सिर्फ प्रोडक्ट का नाम दिखाने केउद्देश्य से कैमरा चल रहा है। इस फिल्म का नाम आयशा की जगह वह ब्रांड होता तो शायद सोनम कपूर की प्रतिभा नजर आती। अभी तो ब्रांड, फैशन और स्टाइल ही दिख रहा है। जेन आस्टिन ने 200 साल पहले एमा की कल्पना की थी। राजश्री ओझा और देविका भगत ने उसे 2010 की दिल्ली में स्थापित किया है। जरूरत के हिसाब से मूल कृति की उपकथाएं छोड़ दी गई हैं और किरदारों को दिल्ली का रंग दिया गया है। देश के दर्शकों को आयशा देख कर पता चलेगा कि महानगरों में लड़कियों और लड़कों का ऐसा झुंड रहता है, जो सिर्फ शादी, डे

फिल्म समीक्षा:राजनीति

राजनीतिक बिसात की चालें -अजय ब्रह्मात्मज भारत देश के किसी हिंदी प्रांत की राजधानी में प्रताप परिवार रहता है। इस परिवार केसदस्य राष्ट्रवादी पार्टी के सक्रिय नेता हैं। पिछले पच्चीस वर्षो से उनकी पार्टी सत्ता में है। अब इस परिवार में प्रांत के नेतृत्व को लेकर पारिवारिकअंर्तकलह चल रहा है। भानुप्रताप के अचानक बीमार होने और बिस्तर पर कैद हो जाने से सत्ता की बागडोर केलिए हड़कंप मचता है। एक तरफ भानु प्रताप केबेटे वीरेन्द्र प्रताप की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हैं तो दूसरी तरफ भानुप्रताप के छोटे भाई चंद्र प्रताप को मिला नेतृत्व और उनके बेटे पृथ्वी और समर की कशमकश है। बीच में बृजलाल और सूरज कुमार जैसे उत्प्रेरक हैं। प्रकाश झा ने राजनीति केलिए दमदार किरदार चुने हैं। राजनीतिक बिसात पर उनकी चालों से खून-खराबा होता है। एक ही तर्कऔर सिद्धांत है कि जीत के लिए जरूरी है कि दुश्मन जीवित न रहे। प्रकाश झा की राजनीति मुख्य रूप से महाभारत के किरदारों केस्वभाव को लेकर आज के माहौल में बुनी गई कहानी है। यहां कृष्ण हैं। पांडवों में से भीम और अर्जुन हैं। कौरवों में से दुर्योधन हैं। और कर्ण हैं। साथ में कुंती हैं और

फिल्म समीक्षा:बम बम बोले

-अजय ब्रह्मात्मज प्रियदर्शन के निर्देशकीय व्यक्तित्व के कई रूप हैं। वे अपनी कामेडी फिल्मों की वजह से मशहूर हैं, लेकिन उन्होंने कांजीवरम जैसी फिल्म भी निर्देशित की है। कांजीवरम को वे दिल के करीब मानते हैं। बम बम बोले उनकी ऐसी ही कोशिश है। यह ईरानी फिल्मकार माजिद मजीदी की 1997 में आई चिल्ड्रेन आफ हेवन की हिंदी रिमेक है। प्रियदर्शन ने इस फिल्म का भारतीयकरण किया है। यहां के परिवेश और परिस्थति में ढलने से फिल्म का मूल प्रभाव बदल गया है। पिनाकी और गुडि़या भाई-बहन हैं। उनके माता-पिता की हालत बहुत अच्छी नहीं है। चाय बागान और दूसरी जगहों पर दिहाड़ी कर वे परिवार चलाते हैं। गुडि़या का सैंडल टूट गया है। पिनाकी उसे मरम्मत कराने ले जाता है। सैंडिल की जोड़ी उस से खो जाती है। दोनों भाई-बहन फैसला करते हैं कि वे माता-पिता को कुछ नहीं बताएंगे और एक ही जोड़ी से काम चलाएंगे। गुडि़या सुबह के स्कूल में है। वह स्कूल से छूटने पर दौड़ती-भागती निकलती है, क्योंकि उसे भाई को जूते देने होते हैं। भाई का स्कूल दोपहर में आरंभ होता है। कई बार गुडि़या को देर हो जाती है तो पिनाकी को स्कूल पहुंचने में देर होती है। जूते खर

जागने और बदलने की ललकार : रण

एक नई कोशिश चवन्‍नी पर दूसरे समीक्षकों की समीक्षा देने की बात लंबे समय से दिमाग में थी,लेकिन अपने समीक्षक गण कोई उत्‍साह नहीं दिखा रहे थे। पिछले दिनों गौरव सोलंकी से बात हुई तो उन्‍होंने उत्‍साह दिखाया। वायदे के मुताबिक उनका रिव्‍यू आ भी गया।यह तहलका में प्रकाशित हुआ है। कोशिश है कि हिंदी में फि‍ल्‍मों को लकर लिखी जा रही संजीदा बातें एक जगह आ जाएं। अगर आप को कोई रिव्‍यू या लेख या और कुछ चवन्‍नी के लिए प्रासंगिक लगे तो प्‍लीज लिंक या मेल भेज दे।पता है chavannichap@gmail.com फिल्म समीक्षा फिल्म रण निर्देशक राम गोपाल वर्मा कलाकार अमिताभ बान , रितेश देशमुख , सुदीप , गुल पनाग रण कोई नई बात नहीं कहती. यह जिस मिशन को लेकर चलती है , वह कोई खोज या चमत्कार नहीं है और यही बात रण को खास बनाती है. वह सुबह के जितनी नई होने का दावा नहीं करती , लेकिन जागने के लिए आपको उससे बेहतर कोई और ललकारता भी नहीं. यह उन न्यूज चैनलों के बारे में है जो ख़बरों के नाम पर हमारे शयनकक्षों में चौबीस घंटे सेक्स , अपराध और फिल्मी गपशप की सच्ची झूठी , मसालेदार कहानियां सप्लाई कर रहे हैं और उन मनोहर कहानियों का आनंद ले

फिल्‍म समीक्षा : इश्किया

उत्‍तर भारतीय परिवेश की रोमांचक कथा -अजय ब्रह्मात्‍मज अभिषेक चौबे की पहली फिल्म इश्किया मनोरंजक फिल्म है। पूर्वी उत्तरप्रदेश की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म के दो मुख्य किरदार मध्यप्रदेश केहैं। पुरबिया और भोपाली लहजे से फिल्म की भाषा कथ्य के अनुकूल हो गई है। हिंदी फिल्मों में इन दिनों अंग्रेजी का चलन स्वाभाविक मान लिया गया है। लिहाजा अपने ही देश की भाषाएं फिल्मों में परदेसी लगती हैं। अभिषेक चौबे ने निर्भीक होकर परिवेश और भाषा का सदुपयोग किया है। इश्किया वास्त व में हिंदी में बनी फिल्म है, यह हिंदी की फिल्म नहीं है। खालू जान और बब्बन उठाईगीर हैं। कहीं ठिकाना नहीं मिलने पर वे नेपाल भागने के इरादे से गोरखपुर के लिए कूच करते हैं। रास्ते में उन्हें अपराधी मित्र विद्याधर वर्मा के यहां शरण लेनी पड़ती है। वहां पहुंचने पर उन्हें मालूम होता है कि विद्याधर वर्मा तो दुनिया से रूखसत कर गए। हां, उनकी बीवी कृष्णा हैं। परिस्थितियां ऐसी बनती हैं कि खालूजान और बब्बन को कृष्णा के यहां ही रूकना पड़ता है। इस बीच कृष्णा, खालू जान और बब्बन के अंतरंग रिश्ते बनते हैं। सब कुछ तात्कालिक है। न कोई समर्पण है और

फिल्‍म समीक्षा : वीर

उन्नीसवीं सदी में 'बॉलीवुड' रोमांस -अजय ब्रह्मात्‍मज सलमान खान, शक्तिमान तलवार, शैलेष वर्मा, कृष्ण राघव, गुलजार, साजिद-वाजिद और आखिरकार अनिल शर्मा ़ ़ ़ इन सभी में किस एक को वीर के लिए दोषी माना जाए? या सभी ने मिल कर एक महत्वाकांक्षा से मुंह मोड़ लिया। रिलीज के पहले फिल्म ने पीरियड का अच्छा भ्रम तैयार किया था। लग रहा था कि सलमान खान की पहल पर हमें एक खूबसूरत, सारगर्भित, भव्य और नाटकीय पीरियड फिल्म देखने का अवसर मिलेगा। यह अवसर फिल्म शुरू होने के चंद मिनटों के अंदर ही बिखर गया। फिल्म में वीर और यशोधरा का लंदन प्रवास सिर्फ प्रभाव और फिजूलखर्ची के लिए रखा गया है।वीर अपनी संपूर्णता में निराश करती है। कुछ दृश्य, कोई एक्शन, कहीं भव्यता, दो-चार संवाद और अभिनय की झलकियां अच्छी लग सकती हैं, लेकिन कतरों में मिले सुख से बुरी फिल्म देखने का दुख कम नहीं होता। फिल्म शुरू होते ही वॉयसओवर आता है कि अंग्रेजों ने पिंडारियों को इतिहास में जगह नहीं दी, लेकिन उन्हें अफसाना बनने से नहीं रोक सके। इस फिल्म में उस अफसाने के चित्रण ने दर्शकों को पिंडारियों के सच से बेगाना कर दिया। लेखक और नि

फिल्‍म समीक्षा : प्‍यार इंपासिबल

पासिबल है प्‍यार सामान्य सूरत का लड़का और खूबसूरत लड़की ़ ़ ़ दोनों के बीच का असंभावित प्यार ़ ़ ़ इस विषय पर दुनिया की सभी भाषाओं में फिल्में बन चुकी हैं। उदय चोपड़ा ने इसी चिर-परिचित कहानी को नए अंदाज में लिखा है। कुछ नए टर्न और ट्विस्ट दिए हैं। उसे जुगल हंसराज ने रोचक तरीके से पेश किया है। फिल्म और रोचक हो जाती, अगर उदय चोपड़ा अपनी भूमिका को लेकर इतने गंभीर नहीं होते। वे अपने किरदार को खुलने देते तो वह ज्यादा सहज और स्वाभाविक लगता। अलीशा का दीवाना है अभय, लेकिन वह अपनी भावनाओं का इजहार नहीं कर पाता। वह इंटेलिजेंट है, लेकिन बात-व्यवहार में स्मार्ट नहीं है। यही वजह है कि पढ़ाई पूरी होने तक वह आई लव यू नहीं बोल पाता। सात सालों के गैप के बाद अलीशा उसे फिर से मिलती है। इन सात सालों में वह एक बेटी की मां और तलाकशुदा हो चुकी है। वह सिंगापुर में सिंगल वर्किंग वीमैन है। इस बीच अभय ने अपने सेकेंड लव पर ध्यान देकर एक उपयोगी साफ्टवेयर प्रोग्राम तैयार किया है, लेकिन उसे कोई चुरा लेता है। उस व्यक्ति की तलाश में अभय भी सिंगापुर पहुंच जाता है। परिस्थितियां कुछ ऐसी बनती है कि वह अलीशा क

फिल्‍म समीक्षा : राकेट सिंह

बिजनेस के पाठ पढ़ाती राकेट सिंह.... -अजय ब्रह्मात्‍मज निर्माता आदित्य चोपड़ा फिर से शिमित अमीन और जयदीप साहनी के साथ फिल्म लेकर आ रहे हों तो उम्मीदों का बढ़ना स्वाभाविक है। तीनों ने 'चक दे इंडिया' जैसी फिल्म दी थी, जो आज मुहावरा बन चुकी है। इस बार उनके साथ शाहरुख खान नहीं हैं, लेकिन रणबीर कपूर तो हैं। लगातार दो फिल्मों की कामयाबी से उनके प्रशंसकों की संख्या बढ़ चुकी है। शिमित अमीन की फिल्मों में महिला किरदारों के लिए अधिक गुंजाइश नहीं रहती। वे दिखती तो हैं, लेकिन सपोर्टिव रोल में ही रहती हैं। राकेट सिंह-द सेल्समैन आफ द ईयर बिजनेस की नैतिकता पर फोकस करती है। दिल का साफ और खुद को तेज दिमाग समझने वाला हरप्रीत सिंह पढ़ने-लिखने में होशियार नहीं है। 38 प्रतिशत से बी काम की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह किसी तरह सेल्समैन की नौकरी खोज पाता है। इस नौकरी में उसकी नैतिकता और ईमानदारी आड़े आ जाती है। कंपनी के मालिक उसे जीरो घोषित कर देते हैं और उसकी ईमानदारी की सजा देते हैं। हरप्रीत हार नहीं मानता। वह युक्ति भिड़ाता है और उस कंपनी में रहते हुए अपनी कंपनी खड़ी कर लेता है। चोरी-छिपे चल रहे इस का

फिल्‍म समीक्षा : रेडियो

-अजय ब्रह्मात्‍मज हिमेश रेशमिया की भिन्नता के कारण उनकी फिल्मों को लेकर उत्सुकता रहती है। रेडियो में वे नए रूप और अंदाज में हैं। उनकी एक्टिंग में सुधार आया है। उन्होंने अपनी एक्टिंग रेंज के हिसाब से कहानी चुनी है या यों कहें कि निर्देशक ईशान त्रिवेदी ने उनकी खूबियों और सीमाओं का खयाल रखते हुए स्क्रिप्ट लिखी है। अगर हिमेश रेशमिया से बड़ी उम्मीद न रखें तो फिल्म निराश नहीं करती। विवान और पूजा का दांपत्य जीवन सामान्य नहीं चल रहा है। उन्हें लगता है कि वे दोस्त ही अच्छे थे। परस्पर सहमति से वे तलाक ले लेते हैं, लेकिन एक-दूसरे के संपर्क में रहते हैं। इस बीच विवान की मुलाकात शनाया से होती है। शनाया धीरे-धीरे विवान की प्रोफेशनल और पर्सनल जिंदगी में आ जाती है। दोनों मिल कर रेडियो पर मिस्ट्री गर्ल नामक शो आरंभ करते हैं, जिसमें शनाया विवान की रहस्यपूर्ण प्रेमिका बनती है। विवान को पता भी नहीं चलता और वह वास्तव में शनाया से प्रेम करने लगता है। विवान की जिंदगी में आ चुकी शनाया को उसकी तलाकशुदा बीवी पहचान लेती है। आखिरकार विवान अपने प्रेम को स्वीकार करने के साथ उसका इजहार भी करता

फ़िल्म समीक्षा : कु़र्बान

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धुंधले विचार और जोशीले प्रेम की कहानी -अजय ब्रह्मात्‍मज रेंसिल डिसिल्वा की कुर्बान मुंबइया फिल्मों के बने-बनाए ढांचे में रहते हुए आतंकवाद के मुद्दे को छूती हुई निकलती है। गहराई में नहीं उतरती। यही वजह है कि रेंसिल आतंकवाद के निर्णायक दृश्यों और प्रसंगों में ठहरते नहीं हैं। बार-बार कुर्बान की प्रेमकहानी का ख्याल करते हुए हमारी फिल्मों के स्वीकृत फार्मूले की चपेट में आ जाते हैं। आरंभ के दस-पंद्रह मिनटों के बाद ही कहानी स्पष्ट हो जाती है। रेंसिल किरदारों को स्थापित करने में ज्यादा वक्त नहीं लेते। अवंतिका और एहसान के मिलते ही जामा मस्जिद के ऊपर उड़ते कबूतर और शुक्रन अल्लाह के स्वर से जाहिर हो जाता है कि हम मुस्लिम परिवेश में प्रवेश कर रहे हैं। हिंदी फिल्मों ने मुस्लिम परिवेश को प्रतीकों, स्टारों और चिह्नों में विभाजित कर रखा है। इन दिनों मुसलमान किरदार दिखते ही लगने लगता है कि उनके बहाने आतंकवाद पर बात होगी। क्या मुस्लिम किरदारों को नौकरी की चिंता नहीं रहती? क्या वे रोमांटिक नहीं होते? क्या वे पड़ोसियों से परेशान नहीं रहते? क्या वे आम सामाजिक प्राणी नहीं होते? कथित रूप से सेक्युलर हिंदी फि

फिल्‍म समीक्षा : तुम मिले

पुनर्मिलन का पुराना फार्मूला -अजय ब्रह्मात्‍मज पहले प्राकृतिक हादसों की पृष्ठभूमि पर काफी फिल्में बनती थीं। बाढ़, सूखा, भूकंप और दुर्घटनाओं में परिवार उजड़ जाते थे, किरदार बिछुड़ जाते थे और फिर उनके पुनर्मिलन में पूरी फिल्म निकल जाती थी। परिवारों के बिछुड़ने और मिलने का कामयाब फार्मूला दशकों तक चला। कुणाल देशमुख ने पुनर्मिलन के उसी फार्मूले को 26-7 की बाढ़ की पृष्ठभूमि में रखा है। मुंबई आ रही फ्लाइट के बिजनेस क्लास में अपनी सीट पर बैठते ही अक्षय को छह साल पहले बिछड़ चुकी प्रेमिका की गंध चौंकाती है। वह इधर-उधर झांकता है तो पास की सीट पर बैठी संजना दिखाई पड़ती है। दोनों मुंबई में उतरते हैं और फिर 26 जुलाई 2005 की बारिश में अपने ठिकानों के लिए निकलते हैं। बारिश तेज होती है। अक्षय पूर्व प्रेमिका संजना के लिए फिक्रमंद होता है और उसे खोजने निकलता है। छह साल पहले की मोहब्बत के हसीन, गमगीन और नमकीन पल उसे याद आते हैं। कैसे दोनों साथ रहे। कुछ रोमांटिक पलों को जिया। पैसे और करिअर के मुद्दों पर लड़े और फिर अलग हो गए। खयालों में यादों का समंदर उफान मारता है और हकीकत में शहर लबालब हो रहा है।

फिल्म समीक्षा:हरि पुत्तर

माहौल खराब करती है हरि पुत्तर जैसी फिल्में फिल्म के निर्माता-निर्देशक ने हैरी पाटर से मिलता जुलता नाम हरि पुत्तर रखकर भले ही चर्चा पा ली हो, लेकिन इस फिल्म की जितनी भ‌र्त्सना की जाए कम है। बच्चों के लिए ऐसी अश्लील, फूहड़ और विवेकहीन फिल्म की कल्पना किसी अपराध से कम नहीं। भारत में बच्चों के लिए बनाई जाने वाली फिल्मों की वैसे ही कमी है। लेकिन हरि पुत्तर जैसी फिल्में माहौल को और भी गंदा व खराब करती हैं। विदेशी फिल्म से प्रेरणा लेकर बनाई गई इस फिल्म को घटिया ढंग से लिखा और फिल्मांकित किया गया है। हरि अपने माता-पिता के साथ इंग्लैंड रहने चला गया है। वहां एक दिन परिवार के सभी लोग भूल से उसे छोड़कर पिकनिक पर निकल जाते हैं। कहानी यह है कि कैसे वह गुप्त मिशन में लगे अपने पिता के प्रोजेक्ट की चिप की रक्षा करता है? यह फिल्म रोचक बन सकती थी लेकिन इसे देखकर तो यही लगता है कि हम बच्चों को कामेडी के नाम पर क्या परोस रहे हैं? सारिका और जैकी श्राफ ने इतना बुरा काम कभी नहीं किया। बाल कलाकार जैन खान को दी गई हिदायतें ही फूहड़ है, इसलिए उनके अभिनय में फूहड़ता दिखती है। सौरभ शुक्ला और विजय राज के बुरे अभिन

सुपर स्टार: पुराने फार्मूले की नई फिल्म

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-अजय ब्रह्मात्मज यह रोहित जुगराज की फिल्म है। निश्चित रूप से इस बार वे पहली फिल्म जेम्स की तुलना में आगे आए हैं। अगर कोई कमी है तो यही है कि उन्होंने हमशक्लों के पुराने फार्मूले को लेकर फिल्म बनायी है। कुणाल मध्यवर्गीय परिवार का लड़का है। बचपन से फिल्मों के शौकीन कुणाल का सपना है कि वह फिल्म स्टार बने। उसके दोस्तों को भी लगता है कि वह एक न एक दिन स्टार बन जाएगा। अभी तक उसे तीसरी लाइन में चौथे स्थान पर खड़े होकर डांस करने का मौका मिला है। कहानी में टर्न तब आता है,जब उसके हमशक्ल करण के लांच होने की खबर अखबारों में छपती है। पूरे मुहल्ले को लगता है कि कुणाल को फिल्म मिल गयी है। कुणाल वास्तविकता जानने के लिए फिल्म के दफ्तर पहुंचता है तो सच्चाई जान कर हैरत में पड़ जाता है। नाटकीय मोड़ तब आता है,जब कुणाल से कहा जाता है कि वह करण के बदले फिल्म में काम करे। प्रोड्यूसर पिता की समस्या है कि करण को एक्टिंग-डांसिंग कुछ भी नहीं आती और उन्होंने फिल्म के लिए बाजार से पैसे उगाह लिए हैं। कुणाल राजी हो जाता है। कहानी आगे बढ़ती है। एक और जबरदस्त मोड़ आता है,जब करण की मौत हो जाती है और कुणाल को रियल लाइफ म