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फिल्म समीक्षा : गली गुलियाँ

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फिल्म समीक्षा गली गुलियाँ -अजय ब्रह्मात्मज दिल्ली के चांदनी चौक की तंग गलियों में से एक गली गुलियाँ  से गुजरें तो एक  पुराने जर्जर मकान में खुद्दुस मिलेगा. बिखरे बाल, सूजी आंखें,मटमैले पजामे-कमीज़ में बदहवास खुद्दुस बाहरी दुनिया से कटा हुआ इंसान है. उसने अपनी एक दुनिया बसा ली है. गली गुलियाँ में उसने जहां-तहां सीसीटीवी कैमरे लगा रखे हैं. वह अपने कमरे में बैठा गलियों की गतिविधियों पर नजर रखता है. वह एक बेचैनी व्यक्ति है. उसे एक बार पीछे के मकान से मारपीट और दबी सिसकियों की आवाज सुनाई पड़ती है. गौर से सुनने पर उसे लगता है कि बेरहम पिता अपने बेटे की पिटाई करता है. खुद्दुस उसके बारे में विस्तार से नहीं जान पाता. उसकी बेचैनी बढ़ती जाती है. वह अपनी  बेचैनी को खास दोस्त गणेशी से शेयर करता है. अपने कमरे में अकेली जिंदगी जी रहे खुद्दुस  का अकेला दोस्त गणेशी ही उसकी नैतिक  और आर्थिक मदद करता रहता है. वह उसे डांटता-फटकारता और कमरे से निकलने की हिदायत देता है.खुद्दुस एक बार हाजत में बंद होता है तो वही उसे छुदाता है.पता चलता है कि गली गुलियाँ से निकल चुके अपने ही छोटे भाई से उसकी नहीं निभत