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हिन्दी टाकीज:सिनेमा देखने का सुख - विपिन चन्द्र राय

हिन्दी टाकीज-४६ मुझे सिनेमची भी कह सकते हैं। सिनेमा देखने की लत उम्र के किस पड़ाव में लगी, याद नहीं, पर पचासवें पड़ाव तक कायम है और आगे भी कायम रहेगा। असल में मेरे पिताजी नगर दंडाधिकारी थे, सो उन्हें पास मिलता था। वे फिल्म नहीं देखते थे तो पास का सदुपयोग करना मेरा ही दायित्व बनता था। वैसा मैं करता भी था, शान से जाता था, गेटकीपर सलाम बजाता था और वीआइपी सीट पर मुझे बिठा देता था। यहां तक कि इंटरवल में मूंगफली भी ला देता था। मैं मूंगफली फोड़ता हुआ सिनेमा दर्शन का सुख उठाता था। क्या आंनद दायक दिन थे वे, बीते दिनो की याद जेहन में समायी हुई हैं। मेरे छोटे से कस्बे जमालपुर में दो सिनेमा हाल अवंतिका और रेलवे था। उसमें प्रत्येक शनिवार को सिनेमा देखना मेरी दिनचर्या में शामिल था। सिनेमा बदले या वही हो, दोबारा देख लेता था। मुंगेर में तीन सिनेमा हाल था विजय, वैद्यनाथ और नीलम। उस जमाने में नीलम सबसे सुंदर हाल था। मुंगेर जाता तो बिना सिनेमा देखे वापस आने का सवाल नहीं था। पास जो उपलब्ध रहता था। उस जमाने में मनोरंजन का एकमात्र सर्वसुलभ साधन सिनेमा ही था। बस इसलिए वही देखता था। ढेर सारी फिल्में दे

हिन्दी टाकीज:सिनेमा के सम्मोहन से मुझे मुक्ति नहीं मिल सकी-विनोद अनुपम

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हिन्दी टाकीज-४२ हिन्दी फिल्मों के सुधि लेखक विनोद अनुपम ने आखिरकार चवन्नी का आग्रह स्वीकार किया और यह पोस्ट भेजी । विनोद अनुपम उदहारण हैं कि फिल्मों पर बेहतर लिखने के लिए मुंबई या दिल्ली में रहना ज़रूरी नहीं है। वे लगातार लिख रहे हैं और आम दर्शकों और पाठकों के बीच सिनेमा की समझ बढ़ा रहे हैं। उन्होंने अपने परिचय में लिखा है...जब पहली ही कहानी सारिका में छपी तो सोचा भी नहीं था, कभी सिनेमा से इस कदर रिश्ता जुड़ सकेगा। हालांकि उस समय भी महत्वाकांक्षा प्रेमचंद बनने की नहीं थी, हां परसाई बनने की जरूर थी। इस क्रम में परसाई जी को खूब पढ़ा और खूब व्यंग्य भी लिखे। यदि मेरी भाषा में थोड़ी भी रवानी दिख रही हो तो निश्चय ही उसका श्रेय उन्हें ही जाता है। कहानियां काफी कम लिखीं, शायद साल में एक। शापितयक्ष (वर्तमान साहित्य), एक और अंगुलिमाल (इंडिया ठूडे) ट्यूलिप के फूल (उद्भावना), स्टेपनी (संडे इंडिया), आज भी अच्छी लग जाती है, लेकिन बाकी की दर्जन भर कहानियों के बारे में यही नहीं कह सकता। सिनेमा देखने की आदत ने, सिनेमा समझने की जिद दी, और इस जिद ने 85 से 90 के दौर में बिहार में काम कर रहे प्रकाश झा से जुड़न