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बच्चों काे पसंद आएगी ‘कृष 3’-राकेश रोशन

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-अजय ब्रह्मात्मज - ‘कृष 3’ आने में थोड़ी ज्यादा देर हो गई? क्या वजह रही? 0 ‘कृष 3’ की स्क्रिप्ट बहुत पहले लिखी जा चुकी थी। मैं खुश नहीं था। उसे ड्रॉप करने के बाद नई स्क्रिप्ट शुरू हुई। उसका भी 70 प्रतिशत काम हो गया तो वह भी नहीं जंचा। ऐसा लग रहा था कि हम जबरदस्ती कोई कहानी बुन रहे हैं। बहाव नहीं आ रहा था। भारत के सुपरहीरो फिल्म में गानों की गुंजाइश रहनी चाहिए। इमोशन और फैमिली ड्रामा भी पिरोना चाहिए। मुझे पहले फैमिली और बच्चों को पसंद आने लायक कहानी चुननी थी। उसके बाद ही सुपरहीरो और सुपरविलेन लाना था। फिर लगा कि चार साल हो गए। अब तो ‘कृष 3’ नहीं बन पाएगी। आखिरकार तीन महीने में कहानी लिखी गई, जो पसंद आई। 2010 के मध्य से 2011 के दिसंबर तक हमने प्री-प्रोडक्शन किया। - प्री-प्रोडक्शन में इतना वक्त देना जरूरी था क्या? 0 उसके बगैर फिल्म बन ही नहीं सकती थी। हम ने सब कुछ पहले सोच-विचार कर फायनल कर लिया। पूरी फिल्म को रफ एनीमेशन में तैयार करवाया। कह लें कि एनीमेटेड स्टोरी बोर्ड तैयार हुआ। अपने बजट में रखने के लिए  सब कुछ परफेक्ट करना जरूरी था। मेरे पास हालीवुड की तरह 300 मिलियन डॉलर तो ह

फिल्‍म समीक्षा : ग्रैंड मस्‍ती

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सस्‍ती मस्‍ती  -अजय ब्रह्मात्‍मज  वर्तमान दौर में एडल्ट कॉमेडी के प्रति नाक-भौं सिकोड़ने की जरूरत नहीं रह गई है। इंद्र कुमार निर्देशित 'ग्रैंड मस्ती' इसी रूप में प्रचारित की गई है। पहले से मालूम है कि फिल्म में क्या परोसा जाएगा? सामान्य जिंदगी में हर तबके के स्त्री-पुरुष खास अवसरों और पलों में अश्लील और एडल्ट लतीफों का आनंद लेते हैं। इस फिल्म को हम सिपल एडल्ट कॉमेडी की तरह ही देखें। एडल्ट कॉमेडी फिल्मों में सेक्स संबंधी हरकतें, प्रसंग और पहलू होते हैं। फिल्म के लेखक मिलाप झावेरी और तुषार हीरानंदानी ने पुरानी 'मस्ती' की स्टोरी लाइन को ही अपनाया है। उसे ही ग्रैंड करने की असफल कोशिश की है। चूंकि कहने या दिखाने के लिए लेखक-निर्देशक के पास ज्यादा कुछ नहीं है, इसलिए वे हंसाने के लिए बार-बार फूहड़ तरकीबें अपनाते हैं। सामान्य फिल्मों में ऐसे दृश्य और व्यवहार देखे जा चुके हैं। मुख्य रूप से रीतेश देशमुख, विवेक ओबरॉय और आफताब शिवदसानी पर यह फिल्म टिकी है। तीनों कलाकारों से निर्देशक लगातार ओछी, फूहड़ और निम्नस्तरीय हरकतें करवाते हैं। फिल्म में ऐसी हरकतों के उपादा

फिल्‍म समीक्षा : जिला गाजियाबाद

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-अजय ब्रह्मात्मज इसी हफ्ते रिलीज हुई 'काय पो चे' से ठीक उलट है 'जिला गाजियाबाद'। सब कुछ बासी, इतना बासी की अब न तो उसमें स्वाद रहा और न उबाल आता है। हाल-फिलहाल में हिट हुई सभी मसाला फिल्मों के मसाले लेकर बनाई गई एक बेस्वाद फिल्म ़ ़ ़ कोई टेस्ट नहीं, कोई एस्थेटिक नहीं। बस धूम-धड़ाका और गोलियों की बौछार। बीच-बीच में गालियां भी। निर्माता विनोद बच्चन और निर्देशक आनंद कुमार ने मानो तय कर लिया था कि अधपकी कहानी की इस फिल्म में वे हाल-फिलहाल में पॉपुलर हुई फिल्मों के सारे मसाले डाल देंगे। दर्शकों को कुछ तो भा जाए। एक्शन, आयटम नंबर, गाली-गलौज, बेड सीन, गोलीबारी, एक्शन दृश्यों में हवा में ठहरते और कुलांचे मारते लोग, मोटरसायकिल की छलांग, एक बुजुर्ग एक्टर का एक्शन, कॉलर डांस ़ ़ ़ 'जिला गाजियाबाद' में निर्माता-निर्देशक ने कुछ भी नहीं छोड़ा है। हालांकि उनके पास तीन उम्दा एक्टर थे - विवेक ओबेराय, अरशद वारसी और रवि किशन, लेकिन तीनों के किरदार को उन्होंने एक्शन में ऐसा लपेटा है कि उनके टैलेंट का कचूमर निकल गया है। तीनों ही कलाकार कुछ दृश्यों में शानदार

फिल्‍म समीक्षा : जयंता भाई की लव स्‍टोरी

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प्यार में भाईगिरी -अजय ब्रह्मात्‍मज हिंदी फिल्मों में गैंगस्टर और आम लड़की की प्रेम कहानी हम देखते रहे हैं। ऐसी फिल्मों में ज्यादातर लव स्टोरी का एंगल भर होता है, क्योंकि फिल्म का मुख्य उद्देश्य गैंगस्टर के आपराधिक जीवन के रोमांच पर रहता है। निर्देशक विनिल मार्कन नए रोमांच के साथ रोमांस के भी पर्याप्त दृश्य गढ़े हैं। मुंबई के उपनगर रिहाइशी इलाके में संयोग से आमने-सामने पड़ोसी की तरह रह रहे जयंता और सिमरन की लव स्टोरी अवश्रि्वसनीय होने के बावजूद रोचक लगती है। विवेक ओबेराय निस्संदेह योग्य और समर्थ अभिनेता हैं। निगेटिव इमेज की वजह से उनका काफी नुकसान हो चुका है। दर्शकों के बीच सी एक हिचक बनी हुई है। 'जयंताभाई की लव स्टोरी' देखते हुए विवेक ओबेराय की प्रतिभा की झलक मिलती है। रफ एवं रोमांटिक दोनों किस्म की भूमिकाओं में वे जंचते हैं। 'जयंताभाई की लव स्टोरी' में हम उन्हें स्पष्ट रूप से दो भूमिकाओं में देखते हैं। उन्होंने दोनों का ही सुंदर निर्वाह किया है। अगर सिमरन की भूमिका में कोई बेहतर अभिनेत्री रहती तो फिल्म अधिक प्रभावित करती। लेखक ने सिमरन के चरित्र

संग-संग : विवेक ओबेराय-प्रियंका अल्‍वा ओबेराय

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-अजय ब्रह्मात्मज  फिल्म अभिनेता विवेक ओबेरॉय की पत्नी हैं प्रियंका अल्वा। दो साल पहले उनकी शादी हुई। प्रियंका गैरफिल्मी परिवार से हैं। दोनों की पहली मुलाकात में किसी फिल्मी संयोग की तरह रोमांस जगा और वह जल्दी ही शादी में परिणत हो गया। आरंभ में विवेक ओबेरॉय के प्रति प्रियंका थोड़ी सशंकित थीं कि फिल्म स्टार वास्तव में असली प्रेमी और पति के रूप में न जाने कैसा होगा? फिल्म सितारों के रोमांस और प्रेम के इतने किस्से गढ़े और पढ़े जाते हैं कि प्रियंका की आशंका को असहज नहीं माना जा सकता। इस मुलाकात में दोनों ने दिल खोलकर अपनी शादी, रोमांस और दांपत्य जीवन पर बातें की हैं।   विवेक : अमेरिका के फ्लोरेंस में एक सेतु है। उसका नाम है सांटा ट्रीनीटा, जिसे सामान्य अंग्रेजी में होली ट्रीनीटी कहेंगे। हिंदू धर्म में ब्रह्मा, विष्णु और महेश की त्रिमूर्ति है। वैसे ही वह एक पवित्र त्रिमूर्ति सेतु है। हम पहली बार वहां मिले। उस सेतु ने हमे जोड़ दिया। सूर्यास्त के पहले हम दोनों बातें करने बैठे। यही कोई साढ़े पांच बजे का समय रहा होगा। इन्हें आते देखकर मन में एक अहंकार जागा कि यार मम्मी-पापा ने कहां फंसा द

फि‍ल्‍म समीक्षा : रक्‍त चरित्र

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-अजय ब्रह्मात्‍मज बदले से प्रेरित हिंसा लतीफेबाजी की तरह हिंसा भी ध्यान आकर्षित करती है। हम एकटक घटनाओं को घटते देखते हैं या उनके वृतांत सुनते हैं। हिंसा अगर बदले की भावना से प्रेरित हो तो हम वंचित, कमजोर और पीडि़त के साथ हो जाते हैं, फिर उसकी प्रतिहिंसा भी हमें जायज लगने लगती है। हिंदी फिल्मों में बदले और प्रतिहिंसा की भावना से प्रेरित फिल्मों की सफल परंपरा रही है। राम गोपाल वर्मा की रक्त चरित्र उसी भावना और परंपरा का निर्वाह करती है। राम गोपाल वर्मा ने आंध्रप्रदेश के तेलुगू देशम पार्टी के नेता परिताला रवि के जीवन की घटनाओं को अपने फिल्म के अनुसार चुना है। यह उनके जीवन पर बनी बायोपिक (बायोग्रैफिकल पिक्चर) फिल्म नहीं है। कानूनी अड़चनों से बचने के लिए राम गोपाल वर्मा ने वास्तविक चरित्रों के नाम बदल दिए हैं। घटनाएं उनके जीवन से ली है, लेकिन अपनी सुविधा के लिए परिताला रवि के उदय के राजनीतिक और वैचारिक कारणों को छोड़ दिया है। हिंदी फिल्म निर्देशकों की वैचारिक शून्यता का एक उदारहण रक्त चरित्र भी है। विचारहीन फिल्मों का महज तात्कालिक महत्व होता है। हालांकि यह फिल्म बांधती है और हमें

फिल्‍म समीक्षा : प्रिंस

एक्शन से भरपूर  -अजय ब्रह्मात्‍मज   हिंदी फिल्मों में प्रिंस की कहानी कई बार देखी जा चुकी है। एक तेज दिमाग लुटेरा, लुटेरे का प्रेम, प्रेम के बाद जिंदगी भी खूबसूरती का एहसास, फिर अपने आका से बगावत, साथ ही देशभक्ति की भावना और इन सभी के बीच लूट हथियाने के लिए मची भागदौड़ (चेज).. प्रिंस इसी पुराने फार्मूले को अपनाती है, लेकिन इसकी प्रस्तुति आज की है, इसलिए आज की बातें हैं। मेमोरी, चिप, कंप्यूटर, सॉफ्टवेयर आदि शब्दों का उपयोग संवादों और दृश्यों में ता है। यह फिल्म एक्शन प्रधान है। शुरू से आखिर तक निर्देशक कुकू गुलाटी ने एक्शन का रोमांच बनाए रखा है। फिल्म की कहानी कुछ खास नहीं है। एक नया मोड़ यही है कि प्रिंस की याददाश्त किसी ने चुरा ली है। छह दिनों में उसकी याददाश्त नहीं लौटी तो रोजाना अपने दिमाग में लगे चिप के क्रैश होने से वह सातवें दिन जिंदा नहीं रह सकता। समस्या यह है कि याददाश्त खोने के साथ वह अपनी आखिरी लूट के बारे में भी भूल गया है। उस लूट की तलाश देश की सरकार, विदेशों से कारोबार कर रहे अंडरव‌र्ल्ड सरगना और स्वयं प्रिंस को भी है। इसी तलाश में जमीन, आसमान, नदी, पहाड़ और इमारतें नापी ज

फ़िल्म समीक्षा : कु़र्बान

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धुंधले विचार और जोशीले प्रेम की कहानी -अजय ब्रह्मात्‍मज रेंसिल डिसिल्वा की कुर्बान मुंबइया फिल्मों के बने-बनाए ढांचे में रहते हुए आतंकवाद के मुद्दे को छूती हुई निकलती है। गहराई में नहीं उतरती। यही वजह है कि रेंसिल आतंकवाद के निर्णायक दृश्यों और प्रसंगों में ठहरते नहीं हैं। बार-बार कुर्बान की प्रेमकहानी का ख्याल करते हुए हमारी फिल्मों के स्वीकृत फार्मूले की चपेट में आ जाते हैं। आरंभ के दस-पंद्रह मिनटों के बाद ही कहानी स्पष्ट हो जाती है। रेंसिल किरदारों को स्थापित करने में ज्यादा वक्त नहीं लेते। अवंतिका और एहसान के मिलते ही जामा मस्जिद के ऊपर उड़ते कबूतर और शुक्रन अल्लाह के स्वर से जाहिर हो जाता है कि हम मुस्लिम परिवेश में प्रवेश कर रहे हैं। हिंदी फिल्मों ने मुस्लिम परिवेश को प्रतीकों, स्टारों और चिह्नों में विभाजित कर रखा है। इन दिनों मुसलमान किरदार दिखते ही लगने लगता है कि उनके बहाने आतंकवाद पर बात होगी। क्या मुस्लिम किरदारों को नौकरी की चिंता नहीं रहती? क्या वे रोमांटिक नहीं होते? क्या वे पड़ोसियों से परेशान नहीं रहते? क्या वे आम सामाजिक प्राणी नहीं होते? कथित रूप से सेक्युलर हिंदी फि