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दरअसल : समीक्षकों की समस्याएं

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-अजय ब्रह्मात्मज     हर शुक्रवार को एक से अधिक फिल्में रिलीज होती हैं। महीने और साल में ऐसे अनेक शुक्रवार भी आते हैं,जब तीन से अधिक फिल्मों की रिलीज की घोषणा रहती है। हम समीक्षकों के लिए यह मुश्किल हफ्ता होता है। सोमवार से ही समीक्षकों की चिंता आरंभ हो जाती है। चिंता यह रहती है कि कैसे समय रहते हफ्ते की सारी फिल्में देख ली जाएं और उनके रिव्यू लिख दिए जाएं। वेब पत्रकारिता के आरंभ होने के साथ ही यह दबाव बढ़ गया था कि जल्दी से जल्दी फिल्मों के रिव्यू पोस्ट कर दिए जाएं। पहले जैसी मजबूरी नहीं रह गई थी कि अखबार सुबह आएगा,इसलिए शाम तक रिव्यू लिखे जा सकते हैं। फिल्मों के प्रिव्यू शो गुरुवार तक हो जाते थे। समीक्षकों के पास पर्याप्त समय रहता था। वे फिल्मों के संबंध में ढंग से विचार कर लेते थे। अपनी राय को निश्चित फॉर्म देते थे। रिव्यू भी रविवार को छपते थे,इसलिए फिल्मों के रिव्यू में जल्दबाजी की उक्तियां या सोद्देश्य उलटबांसियां नहीं होती थीं। अभी ऐसा लग सकता है कि तब सब कुछ धीमी गति से चलता रहा होगा। हां,गति धीमी थी,लेकिन दिशा स्पष्ट थी। इन दिनों तो फिल्में देख कर निकलो और आधे घंटे में रिव्य