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Showing posts from September, 2010

कश्यप बंधु की कामयाबी

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कश्यप बंधु की कामयाबी दस सितंबर को अभिनव सिंह कश्यप की फिल्म दबंग देश-विदेश में रिलीज हुई और पहले ही दिन दर्शकों की भीड़ की वजह से हिट मान ली गई। ईद के मौके पर रिलीज हुई सलमान खान की इस फिल्म के प्रति पहले से दर्शकों की जिज्ञासा बढ़ी थी। संयोग ऐसा रहा कि फिल्म ने आम दर्शकों को संतुष्ट किया। यह फिल्म मल्टीप्लेक्स के साथ सिंगल स्क्रीन थिएटर में भी चल रही है। दबंग की कामयाबी ने अभिनव को पहली ही फिल्म से सफल निर्देशकों की अगली कतार में लाकर खड़ा कर दिया है। ताजा खबर है कि उन्हें अगली फिल्मों के लिए पांच करोड़ से अधिक के ऑफर मिल रहे हैं। शायद आप जानते हों कि अभिनव चर्चित निर्देशक अनुराग कश्यप के छोटे भाई हैं। अनुराग भी अलग किस्म से सफल हैं, लेकिन उन्हें पांच फिल्मों के बाद भी दबंग जैसी कॉमर्शियल कामयाबी नहीं मिली है। वे ऐसी सफलता की बाट जोह रहे हैं, लेकिन दूसरे स्तर पर उनकी कामयाबी भी कई फिल्मकारों के लिए ईष्र्या का कारण बनी हुई है। वे अपनी विशेष फिल्मों की वजह से मशहूर हैं। जिस हफ्ते अभिनव की फिल्म दबंग देश-विदेश में रिलीज हुई। ठीक उन्हीं दिनों अनुराग की फिल्म दैट गर्ल इन येलो बूट्स वेनिस

बदलता दौर, बदलते नायक-मंजीत ठाकुर

भारत में सिनेमा जब शुरु हुआ, तो फिल्में मूल रुप से पौराणिक आख्यानों पर आधारित हुआ करती थीं। लिहाजा, हमारे नायक भी मूल रुप से हरिश्चंद्र, राम या बिष्णु के किरदारों में आते थे। पहली बोलती फिल्म ‘ आलम आरा ’ (1931) के पहले ही हिंदी सिनेमा की अधिकांश परिपाटियाँ तय हो चुकी थीं, लेकिन जब पर्दे पर आवाज़ें सुनाई देने लगीं तो अभिनेताओं के चेहरों और देह-भाषा के साथ अभिनय में गले और स्वर की अहमियत बढ़ गई। 1940 का दशक हिंदी सिनेमा का एक संक्रमण-युग था। वह सहगल , पृथ्वीराज कपूर , सोहराब मोदी , जयराज , प्रेम अदीब , किशोर साहू , मोतीलाल , अशोक कुमार सरीखे छोटी-बड़ी प्रतिभाओं वाले नायकों का ज़माना था तो दूसरी ओर दिलीप कुमार , देव आनंद , किशोर कुमार और भारत भूषण जैसे नए लोग दस्तक दे रहे थे। पारसी और बांग्ला अभिनय की अतिनाटकीय शैलियां बदलते युग और समाज में हास्यास्पद लगने लगीं , उधर बरुआ ने बांग्ला ‘ देवदास ’ में नायक की परिभाषा को बदल दिया। अचानक सहगल और सोहराब मोदी जैसे स्थापित नायक अभिनय-शैली में बदलाव की वजह से भी पुराने पड़ने लगे। मोतीलाल और अशोक कुमार पुराने और नए अभिनय के बीच क

दरअसल:प्रतिभा और प्रतिमा

हिंदी फिल्मों समेत पॉपुलर कल्चर के सभी क्षेत्रों में इन दिनों प्रतिमाओं की तूती बोल रही है। इन्हें आइकॉन कहा जा रहा है और उन पर केंद्रित रिपोर्ट, फीचर और समाचार लिखे जा रहे हैं। इस भेड़चाल में प्रतिभाएं कहीं पीछे रह गई हैं। उनकी किसी को चिंता नहीं है। सभी प्रतिमाओं के पीछे भाग रहे हैं। कहते हैं आज का बाजार इन्हीं प्रतिमाओं की वजह से चल रहा है। फिल्मों की बात करें, तो अभी ऐसी अनेक प्रतिमाएं मिल जाएंगी, जिनमें मौलिक प्रतिभा नहीं है। ऐसी प्रतिमाएं किसी न किसी तरह चर्चा में बनी रहती हैं। कहा और माना जाता है कि मीडिया और पीआर का पूरा तंत्र ऐसी प्रतिमाओं को पहले क्रिएट करता है और फिर उन्हें भुनाता है। किसी जमाने में पेपर टाइगर हुआ करते थे। इन दिनों पेपर आइकॉन हो गए हैं। इनका सारा प्रभाव कागजी होता है। कई ऐसे फिल्म स्टार हैं, जिन्हें हम दिन-रात देखते, सुनते और पढ़ते रहते हैं, लेकिन महीनों-सालों से उनकी कोई फिल्म नहीं आई है। कभी कोई आ भी गई, तो दर्शक उसे देखने नहीं गए। फिर आश्चर्य होता है कि क्या सचमुच पाठक ऐसे स्टार्सं के बारे में पढ़ना चाहते हैं या किसी प्रपंच के तहत वे अखबारों और टीवी के पर

एवरेस्ट से आगे जाना है मुझे..: करीना कपूर

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-अजय ब्रह्मात्‍मज बताएं खुशी की बात है कि दस साल आपके करियर को हो रहे हैं। इसमें बहुत सारे मोमेंट्स रहे होंगे जो सेलब्रेशन के रहे होंगे, कुछ एक डिप्रेशन के भी रहे होंगे। कुछ एक ऐसे भी होंगे,जहां लगा होगा कि छोड दें इंडस्ट्री। ऐसा भी लगा होगा कभी कि नहीं अभी कुछ करना है। कैसे देखती हैं दस वर्षो के अपने सफर को? इंडस्ट्री की बच्ची हूं मैं, क्योंकि कपूर खानदान की हूं। बचपन से परिवार में सभी को फिल्मों में काम करते देखा है। सिनेमा से मेरा प्यार और लगाव फैमिली की वजह से है। डिप्रेशन के मोमेंट्स नहीं आए कभी। स्ट्रगल जरूर था। मेरा स्ट्रगल कुछ अलग तरीके का था। बाकी लडकियों का स्ट्रगल जहां खत्म होता है, मैंने वहीं से शुरू किया है। मेरी बहन करिश्मा पहले से थी। लोग जानते थे कि करिश्मा की बहन है। पहले ही से लोगों के दिमाग में बैठ गया था। रिफ्यूजी ने मेरे करियर को शुरू में ही टॉप पर डाल दिया था। अरे ये तो स्टार है, ये ये है, ये वो है। फिल्में नहीं चलीं तो भी लोगों का प्यार बना रहा। प्रेस ने कुछ और लिखना शुरू कर दिया। मेरे लिए बडी बात है कि इंडस्ट्री से ही हूं। मैं घबराई नहीं। मैंने वो जो पैशन था, जो

फिल्‍म समीक्षा : वी आर फैमिली

-अजय ब्रह्मात्‍मज क्या आप ने स्टेपमॉम देखी है? यह फिल्म 1998 में आई थी। कुछ लोग इसे क्लासिक मानते हैं। 12 सालों के बाद करण जौहर ने इसे हिंदी में वी आर फेमिली नाम से प्रोड्यूस किया है। सौतेली मां नाम रखने से टायटल डाउन मार्केट लगता न? बहरहाल, करण जौहर ने इसे आधिकारिक तौर पर खरीदा और हिंदी में रुपांतरित किया है। इस पर चोरी का आरोप नहीं लगाया जा सकता,फिर भी इसे मौलिक नहीं कहा जा सकता। इसका निर्देशन सिद्धार्थ मल्होत्रा ने किया है। इसमें काजोल और करीना कपूर सरीखी अभिनेत्रियां हैं और अर्जुन राजपाल जैसे आकर्षक अभिनेता हैं। हिंदी में ऐसी फिल्में कम बनती हैं, जिन में नायिकाएं कहानी की दिशा तय करती हों। वी आर फेमिली का नायक कंफ्यूज पति और प्रेमी है, जो दो औरतों के प्रेम के द्वंद्व में है। साथ ही उसे अपने बच्चों की भी चिंता है। 21 वीं सदी में तीन बच्चों के माता-पिता लगभग 15 सालों की शादी के बाद तलाक ले लेते हैं। तलाक की खास वजह हमें नहीं बतायी जाती। हमारा परिचय तीनों किरदारों से तब होता है जब तलाकशुदा पति के जीवन में नई लड़की आ चुकी है। पूर्व पत्‍‌नी माया और प्रेमिका श्रेया