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Showing posts from October, 2011

अकेली औरत की दो बेटियां

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-अजय ब्रह्मात्‍मज कभी ड्रीम गर्ल हेमा मालिनी हिंदी फिल्मों की नंबर वन हीरोइन थीं। उनकी फिल्मों के लाखों-करोड़ों दीवाने थे। हेमा मालिनी ने अपने करियर केउत्कर्ष के दिनों में दर्जनों सहयोगी स्टारों को भी अपना दीवाना बनाया, लेकिन शादी धर्मेन्द्र के साथ की। धर्मेन्द्र पहले से शादीशुदा थे। उन्होंने सुविधा के लिए धर्म बदल कर हेमा मालिनी से शादी तो कर ली, लेकिन उन्हें अपने घर नहीं ले जा सके। उनकी पहली पत्नी और बेटों ने हेमा मालिनी को परिवार में जगह नहीं दी। हेमा मालिनी शादी के बाद भी अकेली रहीं। अकेली औरत की जिंदगी जी। उन्होंने अपना घर बसाया, जहां धर्मेन्द्र सुविधा या आवश्यकता के अनुसार आते-जाते रहे। हेमा मालिनी और धर्मेन्द्र की प्रेम कहानी और दांपत्य के बारे में वे दोनों ही बेहतर तरीकेसे बता सकते हैं। बाहर से जो दिखाई पड़ता है, उससे स्पष्ट है कि हेमा मालिनी ने अकेले ही अपनी जिंदगी संवारी और पिता के साये से वंचित बेटियों ऐषा और आहना को पाला। सभी जानते हैं कि आज भी धर्मेन्द्र के परिवार और हेमा मालिनी के परिवार में सार्वजनिक मेलजोल या संबंध नहीं है। हेमा मालिनी ने अपने अभिनय करियर का उत्कर्ष देख

नए अंदाज का सिनेमा है रा. वन - अनुभव सिन्‍हा

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-अजय ब्रह्मात्‍मज रा. वन में विजुअल इफेक्ट के चार हजार से अधिक शॉट्स हैं। सामान्य फिल्म में दो से ढाई हजार शॉट्स होते हैं। विजुअल इफेक्ट का सीधा सा मतलब है कि जो कैमरे से शूट नहीं किया गया हो, फिर भी पर्दे पर दिखाई पड़ रहा हो। 'रा. वन' से यह साबित होगा कि हम इंटरनेशनल स्टैंडर्ड के विजुअल इफेक्ट कम लागत में भारत में तैयार कर सकते हैं। अगर 'रा. वन' को दर्शकों ने स्वीकार कर लिया और इसका बिजनेस फायदेमद रहा तो भारत में दूसरे निर्माता और स्टार भी ऐसी फिल्म की कोशिश कर पाएंगे। भारत में 'रा. वन' अपने ढंग की पहली कोशिश है। विश्व सिनेमा में बड़ी कमाई की फिल्मों की लिस्ट बनाएं तो ऊपर की पाच फिल्में विजुअल इफेक्ट की ही मिलेंगी। भारत में 'रा. वन' की सफलता से क्रिएटिव शिफ्ट आएगा। यह भारत में होगा और मुझे पूरा विश्वास है कि यह हिंदी में होगा। ऐसी फिल्म पहले डायरेक्टर और लेखक के मन में पैदा होती हैं। डायरेक्टर अपनी सोच विजुअल इफेक्ट सुपरवाइजर से शेयर करता है। इसके अलावा विजुअल इफेक्ट प्रोड्यूसर भी रहता है। इस फिल्म में दो सुपरवाइजर हैं। एक लास एंजल्स के हैं और दूसरे यही

बेटी एषा को निर्देशित किया हेमा मालिनी ने

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-अजय ब्रह्मात्‍मज शाहरुख खान हेमा मालिनी को अपना पहला निर्देशक मानते हैं। पहली बार शाहरुख ने उनकी फिल्म दिल आशना है के लिए ही कैमरा फेस किया था। अब 19 सालों बाद हेमा ने टेल मी ओ खुदा के साथ फिर से निर्देशन की कमान संभाली है। इस बार हेमा के कैमरे के सामने उनकी बड़ी बेटी एषा देओल हैं। हेमा मालिनी कहती हैं, ''मुझे लगता है कि एषा को उसके टैलेंट के मुताबिक रोल नहीं मिले। वह ट्रेंड डांसर है और इमोशनल सीन भी अच्छी तरह करती है। मणि रत्नम की फिल्म युवा के छोटे से रोल में भी उसने अपनी प्रतिभा दिखाई थी। मैंने जब देखा कि वह गलत फिल्में कर और भी फंसती जा रही है तो मुझे सलाह देनी पड़ी। टेल मी ओ खुदा में एषा को आप नए अंदाज में देखेंगे। इस फिल्म में उसने डांस, एक्शन और इमोशन सीन किए हैं।'' हेमा पहले इस फिल्म से बतौर प्रोड्यूसर जुड़ीं। उन्होंने क्रिएटिव फैसलों में भी दखल रखा, लेकिन निर्देशन के लिए मयूर पुरी को चुना और उन्हें पूरी छूट दी। फिल्म के आरंभिक हिस्से देखने पर हेमा मालिनी को संतुष्टि नहीं मिली और उन्होंने निर्देशन की बागडोर अपने हाथों में ले ली। टेल मी ओ खुदा एक ऐसी लड़की की कह

रा. वन पर लगा शाहरुख खान का दांव

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-अजय ब्रह्मात्मज इन दिनों मुंबई में हर हफ्ते दो-तीन ऐसे इवेंट हो रहे हैं, जिनका 'रा. वन' से कोई न कोई ताल्लुक रहता है। टीवी शो और खबरों में भी शाहरुख खान छाए हुए हैं। कोशिश है कि हर दर्शक के दिमाग में 'रा. वन' की जिज्ञासा ऐसी छप जाए कि वह सिनेमाघरों की तरफ मुखातिब हो। अभी तक की सबसे महंगी फिल्म 'रा. वन' की लागत 200 करोड़ को छू चुकी है। इस लागत की भरपाई के लिए 250 करोड़ का बिजनेस लाजिमी होगा। इरोस इस फिल्म के 4000 प्रिंट्स जारी करेगा। कोशिश है कि अमेरिका, इंग्लैंड और जर्मनी के पारंपरिक पश्चिमी बाजार के साथ इस बार पूरब के बाजार कोरिया, ताइवान और चीन में भी प्रवेश किया जाए। कोरिया में 'माई नेम इज खान' से मिले मार्केट को बढ़ाने के लिए 100 स्क्रीन पर 'रा. वन' लगाई जाएगी। यूरोप और लैटिन अमेरिका के बाजार पर भी शाहरुख की नजर है। वैसे शाहरुख के लिए असल चुनौती देसी बाजार में घुसने की है। पिछले महीनों में 100 करोड़ का आंकड़ा पार करने वाली फिल्मों का अधिकांश कलेक्शन सिंगल स्क्रीन थिएटर और छोटे शहरों से आया है। इन दिनों सिंगल स्क्रीन थिएटर के आम दर्शक 60-70

लौटा हूं यमुना नगर फिल्‍म फेस्टिवल से

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-अजय ब्रह्मात्‍मज यमुनानगर में डीएवी ग‌र्ल्स कॉलेज है। इस कॉलेज में यमुनानगर के अलावा आसपास के शहरों और दूर-दराज के प्रांतों से लड़कियां पढ़ने आती हैं। करीब चार हजार से अधिक छात्राओं का यह कॉलेज पढ़ाई-लिखाई की आधुनिक सुविधाओं से युक्त है। इस ग‌र्ल्स कॉलेज की एक और विशेषता है। यहां पिछले चार सालों से इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का आयोजन हो रहा है। कॉलेज की प्रिंसिपल सुषमा आर्या ने छात्र-छात्रओं में सिने संस्कार डालने का सुंदर प्रयास किया है। उनके इस महत्वाकांक्षी योजना में अजीत राय का सहयोग हासिल है। सीमित संसाधनों और संपर्को से अजीत राय अपने प्रिय मित्रों और चंद फिल्मकारों की मदद से इसे इंटरनेशनल रंग देने की कोशिश में लगे हैं। डीवीडी के माध्यम से देश-विदेश की फिल्में दिखाई जाती हैं। संबंधित फिल्मकारों से सवाल-जवाब किए जाते हैं। फिल्मों के प्रदर्शन के साथ ही फिल्म एप्रीसिएशन का भी एक कोर्स होता है। निश्चित ही इन सभी गतिविधियों से फेस्टिवल और फिल्म एप्रीसिएशन कोर्स में शामिल छात्र-छात्राओं को फायदा होता है। उन्हें बेहतरीन फिल्में देखने को मौका मिलता है। साथ ही उत्कृष्ट सिनेमा की उनकी समझ बढ

फिल्‍म समीक्षा : मुझ से फ्रेंडशिप करोगे

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-अजय ब्रह्मात्मज यह फेसबुक के दौर में मुंबई की प्रेमकहानी है। एक कॉलेज के कूल किस्म के कुछ छात्रों के बीच बनते-बिगड़ते और उलझते-सुलझते रिश्तों की इस कहानी के चरित्र शहरी यूथ है। इनकी भाषा, बातचीत, व्यवहार और तौर-तरीके बिल्कुल अलग है। ये बिल्कुल अलग ढंग से खीझते और खुश होते हैं। अपने भावों को स्माइली से जाहिर करते हैं और फेक आइडेंटिटी से अपने प्रेम का खेल रचते हैं। पूरी फिल्म फेसबुक चैट की तरह ऑनलाइन चलती रहती है। राहुल, प्रीति, विशाल और मालविका आज की पीढ़ी के चार यूथ हैं। प्रीति और विशाल कॉलेज के एक प्रोजेक्ट पर एक साथ काम कर रहे हैं। उन्हें पिछले पच्चीस सालों में कॉलेज में बने 25 जोडि़यों की कहानी लिखनी है। उन कहानियों को लिखने और डाक्युमेंट करने की प्रक्रिया में ही उनका नजरिया भी बदलता जाता है। क्लाइमेक्स सीन में विशाल लिखित संभाषण भूल जाता है और अपने दिल की बात कहता है। उसके कथन का सार है कि पहले का समय और प्रेम सच्चा और सीधा था। जब इंटरनेट और फेसबुक नहीं था तो प्रेम की कठिनाइयां उसके एहसास को बढ़ा देती थीं। नुपूर अस्थाना पूरी फिल्म में जो दिखती और बताती हैं, उसे खुद ही फिल्म के अंत

फिल्‍म समीक्षा : मोड़

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-अजय ब्रह्मात्‍मज झरने सा कलकल प्रेम नागेश कुकनूर अपनी सहज संवेदना के साथ मोड़ में लौटे हैं। वे सरल कहानियां अच्छी तरह चित्रित करते हैं। मोड़ उनकी संवेदनात्मक फिल्म है। इस फिल्म की प्रेमकहानी पहाड़ी इलाके के चाय बागान की पृष्ठभूमि में है। प्रकृति की मौलिक सुंदरता का आकर्षण इस फिल्म के निर्दोष प्रेम को नया आयाम देता है। अरण्या इस कस्बे में अपने पिता के साथ रहती है। पिता किशोर कुमार के परम भक्त हैं और मदिराप्रेमी हैं। घर और कस्बा छोड़ कर जा चुकी पत्‍‌नी का वे आज भी इंतजार कर रहे हैं। इंतजार अरण्या को भी है। उसे लगता है कि इस कस्बे में उसे किसी से प्रेम हो जाएगा। प्रेम होता है, लेकिन प्रेमी के खंडित व्यक्तित्व से परिचित होने पर अरण्या का द्वंद्व बढ़ जाता है। राहुल डिसोशिऐटेड आइडेंटिटी डिसआर्डर का मरीज है, जो एंडी बन कर अरण्या से प्रेम करता है और राहुल होते ही अरण्या से घृणा करने लगता है। सच तो यह है किराहुल दिल से अरण्या को चाहता है। नागेश कुकनूर ने आयशा टाकिया और रणविजय सिंह के सहयोग से इस मनोवैज्ञानिक और जटिल प्रेमकहानी को मासूमियत के साथ पर्दे पर उतारा है। निश्छल प्रेम की यह भावुक दास

फिल्‍म समीक्षा : जो डूबा सो पार

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-अजय ब्रह्मात्‍मज प्रवीण कुमार की प्रेमकहानी का परिवेश बिहार का है। एक ट्रक ड्रायवर का बेटा किशु अपनी बदमाशियों के कारण स्कूल से निकाल दिया जाता है। पिता चाहते हैं कि वह कम से कम ड्राइविंग और ट्रक चलाने के गुर सीख ले। बेटे का मन पिता के साथ काम करने से अधिक दोस्तों के साथ चकल्लस करने में लगता है। इसी बीच कस्बे में एक विदेशी लड़की सपना आती है। सपना को देखते ही किशु उसका दीवाना हो जाता है। किशु का अवयस्क प्रेम वास्तव में एक आकर्षण है। वह सपना का सामीप्य चाहता है। इसके लिए वह पिता की डांट और सपना के चाचा के गुंडों के हाथों पिटाई खाता है। स्मार्ट किशु फिर भी हिम्मत नहीं हारता। वह अपने वाकचातुर्य से सपना के करीब आता है। अपने प्रेम का इजहार करने के दिन ही उसे पता चलता है कि सपना का एक अमेरिकी ब्वॉय फ्रेंड है। कहानी टर्न लेती है। सपना का अपहरण हो जाता है। किशु अपने दोस्तों के साथ जान पर खेल कर सपना की खोज करता है। इस प्रक्रिया में पुलिस और किडनैपर के रिश्ते बेनकाब होते हैं। प्रवीण कुमार ने परिवेश अलग चुना है। वे जिसे बिहार बताते हैं, वह हरगिज बिहार नहीं लगता। मधुबनी पेंटिंग्स पर रिसर्च कर रही

बदलाव का नया एटीट्यूड है यह

यह लेख इंडिया टुडे के 'बॉलीवुड का यंगिस्‍तान' 19 अक्‍टूबर 2011 में प्रकाशित हुआ है। -अजय ब्रह्मात्‍मज दुनिया की तमाम भाषाओं की फिल्मों की तरह हिंदी सिनेमा में भी दस-बारह सालों में बदलाव की लहर चलती है। यह लहर कभी बाहरी रूप बदल देती है तो कभी उसकी हिलोड़ में सिनेमा में आंतरिक बदलाव भी आता है। पिछले एक दशक में हिंदी सिनेमा का आंतरिक और बाह्य बदलाव स्पष्ट दिखने लगा है , लेकिन हमेशा की तरह हमारे आलसी विश्लेषक इसे कोई नाम नहीं दे पाए हैं। स्‍वयं युवा फिल्मकार अपनी विशेषताओं और पहचान की परिभाषा नहीं गढ़ पा रहे हैं। सभी अपने ढंग से कुछ नया गढ़ रहे हैं। राम गोपाल वर्मा की कोशिशों और फिल्मों को हम इस बदलाव का प्रस्थान मान सकते हैं। राम गोपाल वर्मा ने हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के ढांचे,खांचे और सांचे को तोड़ा। दक्षिण से अाए इस प्रतिभाशाली निर्देशक ने हिंदी सिनेमा के लैरेटिव और स्‍टार स्‍ट्रक्‍चर को झकझोर दिया। उनकी फिल्मों और कोशिशों ने परवर्ती युवा फिल्मकारों को अपनी पहचान बनाने की प्रेरणा और ताकत दी। बदलाव के प्रतिनिधि बने आज के अधिकांश युवा फिल्मकार,अभिनेता और तकनीशियन किसी न किसी

क्या दबाव में है शाहरुख

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-अजय ब्रह्मात्‍मज पिछले हफ्ते सोमवार को शाहरुख खान ने अपनी फिल्म रा. वन के म्यूजिक लॉन्च का बड़ा आयोजन किया। इन दिनों म्यूजिक लॉन्च और रिलीज के कार्यक्रम ज्यादातर होटलों और थिएटरों में होते हैं। फिल्म के प्रमुख कलाकारों को बुलाया जाता है। गीतकार-संगीतकार और निर्माता-निर्देशक रहते हैं। किसी सम्माननीय या लोकप्रिय फिल्मी हस्ती के हाथों म्यूजिक रिलीज कर सभी के साथ तस्वीरें खींच ली जाती हैं। बड़े औपचारिक किस्म के दो-चार सवाल होते हैं। इस प्रकार म्यूजिक लॉन्च की इतिश्री हो जाती है। अमूमन फिल्म रिलीज होने के महीने भर पहले यह आयोजन किया जाता है। डिजिटल युग में अब संगीत के लीक होने या इंटरनेट पर आने में वक्त नहीं लगता, फिर भी म्यूजिक लॉन्च की औपचारिकता का अपना महत्व है। इस महत्व को शाहरुख ने मूल्यवान बना दिया। उन्होंने एक मनोरंजन चैनल को अधिकार दिए कि वह पूरे इवेंट की अच्छी पैकेजिंग कर एक एंटरटेनमेंट शो बना ले। पिछले रविवार को इस इवेंट का प्रसारण भी हो गया, जिसे देश के करोड़ों दर्शकों ने एक साथ देखा। शाहरुख खान ने अपनी नई पहल और मार्केटिंग से साबित कर दिया कि वह थिएटरों से अनुपस्थित होने के बाव

मोबाइल से फिल्‍म बनाएं और दिखाएं

क्‍या आप फिल्‍ममेकर बनना चाहते हैं या और किसी रूप में सिनेमा से जुड़ना चाहते हैं। मन में यह डर है कि यह महंगा शौक है और आप सोच से ही निठलले हो रहे हैं। सक्रिय हों। टॉम क्रूज के साइट पर बहुत सही जानकारी दी गई हैं। चवन्‍नी यहां लिंक दे रहा है...आप खुद पढें और चालू हो जाएं... यह पहला भा्ग है। दूसरा भाग जल्‍दी ही... http://www.tomcruise.com/blog/2011/10/05/aspiring2actwritedirect-aspiring-mobile-filmmaker-guide-learn-how-to-make-professional-quality-films-with-a-smartphone-or-tablet-computer/

फिल्म समीक्षा : लव ब्रेकअप्‍स जिंदगी

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प्रोफेशन बनाम इमोशन -अजय ब्रह्मात्‍मज साहिल संघा की इस फिल्म के हीरो-हीरोइन जायद खान और दीया मिर्जा हैं। दोनों फिल्मी टाइप किरदार हैं। उन्हें एक-दूसरे के प्रति प्यार का एहसास होता है और फिल्म के अंत तक अपनी झिझक और झेंप में वे उलझे रहते हैं। लव बेकअप्स और जिंदगी को थोड़े अलग नजरिए से देखें तो ध्रुव (वैभव तिवारी) और (राधिका) पल्लवी शारदा ज्यादा तार्किक और आधुनिक यूथ के रूप में उभरते हैं। अगर उन दोनों को नायक-नायिका के तौर पर पेश किया जाता तो बात ही अलग होती। दोनों इमोशनल होने के साथ समझदार भी हैं, लेकिन हिंदी फिल्मों में नायक-नायिका होने के लिए जरूरी है कि आप रोमांटिक हों। अगर आप व्यावहारिक, तार्किक और प्रोफेशनल हुए तो उसे निगेटिव और ग्रे बनाने-समझाने में हमारे निर्देशक और दर्शक नहीं चूकते। बहरहाल, साहिल संघा ने रिश्तों और प्रेम की इस कहानी को पारंपरिक ढांचे में ढालने की कोशिश की है। फिल्म इंटरवल के पहले काफी लंबी खिंच गई है। किरदारों को स्थापित करने में इतना समय न लेकर लेखक-निर्देशक सीधे रिश्तों की उलझन और प्रेम के एहसास पर आ जाते तो कहानी सिंपल और सटीक हो जाती। फिल्म में सब क

फिल्‍म समीक्षा : रासकल्‍स

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- बड़े पर्दे पर बदतमीजी अजय ब्रह्मात्‍मज सफल निर्देशक अपने करियर की सीढि़यां उतरते समय कितने डगमगाते और डांवाडोल रहते हैं? कम से कम डेविड धवन के उतार को समझने केलिए रास्कल्स देखी जा सकती है। उन्हें संजय दत्त और अजय देवगन जैसे लोकप्रिय अभिनेताओं के साथ कंगना रनौत भी मिली हैं, लेकिन फिल्म भोंडे़पन और अश्लीलता से बाहर नहीं निकल पाती। मुमकिन है डेविड धवन के निर्देशन में ऐसा उतार पहले भी आया हो, लेकिन वे साधारण किस्म की मनोरंजक कामेडी फिल्मों के उस्ताद तो थे। चेतन और भगत दो ठग हैं। सचमुच पॉपुलर लेखक चेतन भगत फिल्म इंडस्ट्री में मजाक के पात्र बन चुके हैं। इन किरदारों का नाम सलीम और जावेद या जुगल और हंसराज रख दिया जाता तो भी कोई खास फर्क नहीं पड़ता। चेतन और भगत एक-दूसरे को ठगते और क्लाइमेक्स में ठगी में पार्टनर बनते हुए अपने-अपने तरीके से कंगना रनौत को फांसने का प्रयास करते हैं। लतीफे, चुहलबाजी, छेड़खानी और ठगी को लेकर बनी यह फिल्म बड़े पर्दे पर जारी बड़े स्टारों की बदतमीजी का ताजा नमूना है। अनुभवी और सीनियर स्टार संजय दत्त और अजय देवगन की कंगना रनौत के साथ की गई ऊलजलूल और अ

इंडिपेंडेट सिनेमा -अनुराग कश्‍यप

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इन दिनों इंडिपेंडेट सिनेमा की काफी बातें चल रही हैं। क्या है स्वतंत्र सिनेमा की वास्तविक स्थिति? बता रहे हैं अनुराग कश्यप.. हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के व्यापक परिदृश्य पर नजर डालें तो इंडिपेंडेट फिल्ममेकिंग की स्थिति लचर ही है। फिल्म बनने में दिक्कत नहीं है। फिल्में बन रही हैं, लेकिन उनके प्रदर्शन और वितरण की बड़ी समस्या है। आप पिछले दो सालों की फिल्मों की रिलीज पर गौर करें तो पाएंगे कि जब बड़ी और कामर्शियल फिल्में नहीं होती हैं, तभी एक साथ दस इंडिपेंडेट फिल्में रिलीज हो जाती हैं। या फिर जब ऐसा माहौल हो कि बड़ी फिल्में किसी वजह से नहीं आ रही हों तो इकट्ठे सारी स्वतंत्र फिल्में आ जाती हैं। नतीजा यह होता है कि इन फिल्मों को कोई देख नहीं पाता है। दर्शक नहीं मिलते। आप इतना मान लें कि इंडिपेंडेट फिल्ममेकिंग को मजबूत होना है तो उसे तथाकथित 'बॉलीवुड' के ढांचे से बाहर निकलना होगा। आप आइडिया के तौर पर घिसी-पिटी फिल्में बना रहे हैं तो हिंदी फिल्मों के ट्रेडिशन से कहां अलग हो पाए? सिर्फ फिल्म इंडस्ट्री के पैसे नहीं लगने या स्टार के नहीं होने से फिल्म इंडिपेंडेट नहीं हो जाती। बॉलीवुड के बर्डन

फिल्म समीक्षा : मौसम

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कठिन समय में प्रेम -अजय ब्रह्मात्मज पंकज कपूर की मौसम मिलन और वियोग की रोमांटिक कहानी है। हिंदी फिल्मों की प्रेमकहानी में आम तौर पर सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं की पृष्ठभूमि नहीं रहती। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक और गंभीर अभिनेता जब निर्देशक की कुर्सी पर बैठते हैं तो वे अपनी सोच और पक्षधरता से प्रेरित होकर अपनी सृजनात्मक संतुष्टि के साथ महत्वपूर्ण फिल्म बनाने की कोशिश करते हैं। हिंदी फिल्मों के लोकप्रिय ढांचे और उनकी सोच में सही तालमेल बैठ पाना मुश्किल ही होता है। अनुपम खेर और नसीरुद्दीन शाह के बाद अब पंकज कपूर अपने निर्देशकीय प्रयास में मौसम ले आए हैं। पंकज कपूर ने इस प्रेमकहानी के लिए 1992 से 2002 के बीच की अवधि चुनी है। इन दस-ग्यारह सालों में हरेन्द्र उर्फ हैरी और आयत तीन बार मिलते और बिछुड़ते हैं। उनका मिलना एक संयोग होता है, लेकिन बिछुड़ने के पीछे कोई न कोई सामाजिक-राजनीतिक घटना होती है। फिल्म में पंकज कपूर ने बाबरी मस्जिद, कारगिल युद्ध और अमेरिका के व‌र्ल्ड ट्रेड सेंटर के आतंकी हमले का जिक्र किया है। पहली घटना में दोनों में से कोई भी शरीक नहीं है। दूसरी घटना में हैरी