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फिल्‍म समीक्षा : बेगम जान

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फिल्‍म रिव्‍यू बेगम जान अहम मुद्दे पर बहकी फिल्‍म -अजय ब्रह्मात्‍मज फिल्‍म की शुरूआत 2016 की दिलली से होती है और फिल्‍म की समाप्ति भी उसी दृश्‍य से होती है। लगभग 70 सालों में बहुत कुछ बदलने के बाद भी कुछ-कुछ जस का तस है। खास कर और तों की स्थिति...फिल्‍म में बार-बार बेगम जान औरतों की बात ले आती है। आजादी के बाद भी उनके लिए कुछ नहीं बदलेगा। यही होता भी है। बाल विधवा हुई बेगम जान पहले रंडी बनती है और फिर तवायफ और अंत में पंजाब के एक राजा साहब की शह और सहाता से कोठा खड़ी करती है,जहां देश भर से आई लड़कियों को शरण मिलती है। दो बस्तियों के बीच बसा यह कोठा हमेशा गुलजार रहता है। इस कोठे में बेगम जान की हुकूमत चलती है। दुनिया से बिफरी बेगम जान हमेशा नाराज सी दिखती हैं। उनकी बातचीत में हमेशा सीख और सलाह रहती है। जीवन के कड़े व कड़वे अनुभवों का सार शब्‍दों और संवादों में जाहिर होता रहता है। कोइे की लड़कियों की भलाई और सुरक्षा के लिए परेशान बेगम जान सख्‍त और अनुशासित मुखिया है। आजादी मिलने के साथ सर सिरिल रेडक्लिफ की जल्‍दबाजी में खींची लकीर से पूर्व और पश्चिम में देश की विभाज

अलहदा है बेगम का फलसफा’ : महेश भट्ट

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  -अजय ब्रह्मात्‍मज श्रीजित मुखर्जी का जिक्र मेरे एक रायटर ने मुझ से किया था। उन्‍होंने कहा कि वे भी उस मिजाज की फिल्‍में बनाते रहे हैं ,   जैसी  ‘ अर्थ ’, ‘ सारांश ’ व  ‘ जख्‍म ’  थीं। उनके कहने पर मैंने  ‘ राजकहानी ’  देखी। उस फिल्‍म ने मुझे झिझोंर दिया। मैंने सब को गले लगा लिया। मैंने मुकेश ( भट्ट )  से कहा कि  ‘ राज ’ व   ‘ राज रीबूट ’  हमने बहुत कर लिया। अब  ‘ राजकहानी ’  जैसी कोई फिल्‍म करनी चाहिए। मुकेश को भी फिल्‍म अच्छी लगी। श्रीजित ने अपनी कहानी भारत व पूर्वी पाकिस्‍तान में रखी थी। रेडक्लिफ लाइन बेगम जान के कोठे को चीरती हुई निकलती है। यह प्लॉट ही अपने आप में बड़ा प्रभावी लगा। हमें लगा कि इसे पश्विमी भारत में शिफ्ट किया जाए तो एक अलग मजा होगा। हमने श्रीजित को बुलाया। फिर उन्होंने 32 दिनों में दिल और जान डालकर ऐसी फिल्‍म बनाई की क्या कहें।      मेरा यह मानना है कि हर सफर आप को आखिरकार अपनी जड़ों की ओर ले जाता है। बीच में जरूर हम ऐसी फिल्‍मों की तरफ मुड़े़ ,   जिनसे पैसे बनने थे। पैसा चाहिए भी। फिर भी लगातार फिल्‍म बनाने के लिए ,   पर रूह को छूने वाली आवाजें सुन

विद्या से मिलता है बेगम का मिजाज - विद्या बालन

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बेगम जान के निर्देशक श्रीजित मुखर्जी -अजय ब्रह्मात्‍मज 2010 से फिल्‍म मेकिंग में सक्रिय श्रीजित मुखर्जी ने अभी तक आठ फिल्‍में बांग्‍ला में निर्देशित की हैं। हिंदी में ‘ बेगम जान ’ उनकी पहली फिल्‍म है। जेएनयू से अर्थशास्‍त्र की पढ़ाई कर चुके श्रीजित कहानी कहने की आदत में पहले थिएटर से जुड़े। हबीब तनवीर की भी संगत की और बाद में फिल्‍मों में आ गए। बांग्‍ला में बनी उनकी फिल्‍मों को अनेक राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार मिल चुके हैं। महेश भट्ट से हुई एक चांस मुलाकात ने हिंदी फिल्‍मों का दरवाजा खोल दिया। वे अपनी आखिरी बांग्‍ला फिल्‍म ‘ राजकाहिनी ’ को हिंदी में ‘ बेगम जान ’ नाम से ला रहे हैं। फिल्‍म की मुख्‍य भूमिका में विद्या बालन है। मूल फिल्‍म भारत-बांग्‍लादेश(पूर्वी पाकिस्‍तान) बोर्डर की थी। अग यह भारत-पाकिस्‍तान बोर्डर पर चली आई है। पढ़ाई के बाद नौकरी तो मिडिल क्‍लास के हर लड़के की पहली मंजिल होती है। श्रीजित को बंगलोर में नौकरी मिल गई,लेकिन कहानी कहने की आदत और थिएटर की चाहत से वे महेश दत्‍तनी और अरूंधती नाग के संपर्क में आए। फिर फिल्‍मों में हाथ आजमाने के लिए मन कुलबुलाने लगा।

सबसे काबिल शिक्षक है पिता - महेश भट्ट

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पिता महेश भट्ट प्रस्‍तुति - अजय ब्रह्मात्‍मज पिता हजारों शिक्षक से अधिक प्रभावशाली होता है। स्‍कूल और जिंदगी के ज्‍यादातर शिक्षक किताबी होते हैं। वे सिखाते तो हैं , लेकिन उनका सीमित असर होता है। पिता अपने बच्‍चों के जहन पर गहरा छाप छोड़ता है। खास कर अपनी बेटियों पर ... जिसका पगभाव अकल्‍पनीय होता है। अगर मेरी बेटियां और बेटा आत्‍मनिर्भर हैं तो इसमें मेरा असर है। पूजा अभी जयपुर के पास रेगिस्‍तान में शूटिंग कर रही है। फिल्‍म इंडस्‍ट्री में आए आर्थिक संकट के दौर में उनलोगों के साथ फिल्‍म बना रही है , जो स्‍आर नहीं माने जाते हें। यह उसकी अपनी जीत और हिम्‍मत है। आलिया ने अपनी जिंदगी में 21 की उम्र में वह मुकाम हासिल कर लिया है , जो मुझे 50 की उम्र में भी नहीं मिला था। अपना क्लोन न बनाएं  यह पिता का विश्‍वास होता है कि हमारे बच्‍चे हमारे तो होते हैं , लेकिन वे हम से अलग होते हैं। यह तो मानव अधिकार की बात है कि हर किसी को अलग होने और रहने का अधिकार है। इस मुल्‍क में यह बात हम भूल जाते हैं कि बच्‍चों को अपना क्‍लोन न बनाएं। कुदरत के बेमिसाल क्रिएशन को उसकी पृथक पहचान पर अपनी मा

मिडिल क्‍लास औरत की अधूरी कहानी-महेश भट्ट

-अजय ब्रह्मात्‍मज     सोल्जिनित्सिन ने कहा था कि किसी भी समाज की भावनात्‍मक गहराई नापनी हो तो उस समाज की कलाएं देख लें। उससे आप उस समाज के नैतिक रेशों को पहचान लेंगे। मौसम बदलता है तो पत्‍तों से पता चलता है। समाज में परिवर्तन की आहट फिल्‍मों की बदलती कहानियों से मिलने लगती है। उनका ढांचा बदलता है। मुझे लगता है कि भारतीय समाज में गहरे स्‍तर पर परिवर्तन घट चुका है। अब मुंबई की फिल्‍म इंडस्‍ट्री में इसे महसूस किया जा रहा है। ‘ पीकू ’ और ‘ तनु वेड्स मनु रिटर्न्‍स ’ इसके उदाहरण हैं। इसकी कड़ी में ‘ हमारी अधूरी कहानी ’ को देख सकते हैं। 21 वीं   सदी के दूसरे दशक में आ रही इन फिल्‍मों को देख कर लोगों को लग रहा है कि ऐसी कहानियां पहले नहीं आई थीं। मैं तो   कहूंगा कि ऐसा सिनेमा पहले भी था, अपनी जड़ों से जुड़ा और संस्‍कृति से संबद्ध।     अभी की फिल्‍मों के रिदार पहले से जटिल हो गए हैं। संस्‍कारों की लगाम से वे मुक्‍त होना चाहते हैं। ‘ हमारी अधूरी कहानी ’ मिडिल क्‍लास हिंदुस्‍तानी औरत की कहानी है। वह मंगलसूत्र पहनती है। बिंदी लगाती है। अकेली जान ही संतान पालती है। इसकी प्रेरणा मुझे

फिल्म समीक्षा : मिस्टर एक्स

स्टार:   डेढ़ स्टार विक्रम भट्ट निर्देशित इमरान हाशमी की 'मिस्टर एक्स' 3डी फिल्म है। साथ ही एक नयापन है कि फिल्म का नायक अदृश्य हो जाता है। यह नायक अदृश्य होने पर भी अपनी प्रेमिका को चूमने से बाज नहीं आता, क्योंकि पर्दे पर इमरान हाशमी हैं। इमरान हाशमी की कोई फिल्म बगैर चुंबनों के समाप्त नहीं होती। विक्रम भट्ट 3डी तकनीक में दक्ष हैं। वे अपनी फिल्में 3डी कैमरे से शूट भी करते हैं, लेकिन इस तकनीकी कुशलता के बावजूद उनकी 'मिस्टर एक्स' में कथ्य और निर्वाह की कोई नवीनता नहीं दिखती। फिल्म पुराने ढर्रे पर चलती है। रघु और सिया एटीडी में काम करते हैं। दोनों अपने विभाग के कर्मठ अधिकारी हैं। एक-दूसरे से प्रेम कर रहे रघु और सिया शादी करने की छट्टी ले चुके हैं। उन्हें बुलाकर एक खास असाइनमेंट दिया जाता है। कर्तव्यनिष्ठ रघु और सिया पीछे नहीं हटते। वे इस असाइनमेंट में एक कुचक्र के शिकार होते हैं। स्थितियां ऐसी बनती हैं कि दोनों एक-दूसरे के खिलाफ हो जाते हैं। अदृश्य हो सकने वाला नायक अब बदले पर उतारू होता है। वह स्पष्ट है कि कानून उसकी कोई मदद नहीं कर सकता, इसलिए

इरोटिक लव स्टोरी है खामोशियां

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- अजय ब्रह्मात्मज             करण दारा निर्देशित ‘ खामोशियां ’ विशेष फिल्म्स के बैनर तले बनी महेश भट्ट और मुकेश भट्ट की प्रस्तुति है। भट्ट बंधुओं ने स्टारविहीन फिल्मों का सफल फार्मूला विकसित कर लिया है। उनकी फिल्मों में अपेक्षाकृत नए या कम पॉपुलर स्टार रहते हैं। फिल्म के गीत-संगीत पर पूरा ध्यान दिया जाता है। उनकी फिल्मों का कोई न कोई गीत रिलीज के पहले ही चार्टबस्टर हो जाता है। फिल्म का सब्जेक्ट बोल्ड और इरोटिक रहता है। उनकी ताजा फिल्म ‘ खामोशियां ’ में इन मसालों का इस्तेमाल हुआ है। महेश भट्ट अपनी फिल्मों को लेकर कभी बचाव की मुद्रा में नहीं रहते। वे स्पष्ट कहते हैं कि दर्शक ऐसी फिल्में पसंद करता है। ट्रेड के लिए भी ऐसी फिल्मों में रिस्क कम रहता है। ज्यादातर फिल्में सफल हो जाती हैं।             ‘ खामोशियां ’ के प्रति महेश भट्ट आश्वस्त हैं। फिल्म के बारे में वे कहते हैं ,‘ नई फिल्म ‘ खामोशियां ’ में हम ‘ राज ’ का ड्रामा रिवाइव करने जा रहे हैं। यह त्रिकोणीय प्रेमकहानी है। इसमें ‘ जिस्म ’ की बिपाशा बसु जैसी हीरोइन है , जो दो मर्दों के साथ खेलती है। चुडै़ल जैसा मिजाज है उसका। इ

सरहदें लाख खिंचे दिल मगर एक ही है -महेश भट्ट

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महेश भट्ट     पूजा की मां किरण भट्ट एंगलो इंडियन खातून हैं। उन्होने कहा कि जिंदगी कमाल का चैनल है। उस पर आ रहे पाकिस्तानी सीरियल दिल को छूते हैं। इस चैनल पर आ रहे शोज के कंटेंट भारतीय चैनलों पर आ रहे सीरियल से कई गुना बेहतर हैं। यह सुन कर एहसास हुआ कि चाहे जितना वक्त लगा,लेकिन आखिरकार पाकिस्तानी कंटेंट हमारे टीवी पर आ ही गया। म्यूजिक वगैरह तो पहले से घरों में बजता रहा है।     किरण की बात से याद आया कि 2003 में हम पाकिस्तान गए थे। तब देश में एनडीए सरकार थी। एक माहौल था कि पाकिस्तान शत्रु देश है। पाकिस्तान जाना तो बहुत दूर की बात थी,उसके बारे में सकारात्मक सोच रखना भी गलत माना जाता था। बहुत लोगों ने कहा था कि क्या कर रहे हो? वहां जाओगे तो गृह मंत्रालय की निगाहों में आ जाओगे। जिंदगी को जोखिम में डाल रहे हो। मैंने यही कहा था कि क्या बम बनाना सीखने जा रहा हूं? मैं तो फिलमों के मंच पर जा रहा हूं। वहां की अवाम और फिल्ममेकर से मिलने जा रहा हूं। निडर होकर वहां जाने का मेरा संवैधानिक अधिकार है। जाने पर वहां जो ऊर्जा और प्यास देखी,वह उस वक्त यहां पर नजर नहीं आती थी। वक्त के साथ पिछड़ गए देश में

फिल्‍म समीक्षा : सिटीलाइट्स

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दुख मांजता है  -अजय ब्रह्मात्‍मज  माइग्रेशन (प्रव्रजन) इस देश की बड़ी समस्या है। सम्यक विकास न होने से आजीविका की तलाश में गावों, कस्बों और शहरों से रोजाना लाखों नागरिक अपेक्षाकृत बड़े शहरों का रुख करते हैं। अपने सपनों को लिए वहां की जिंदगी में मर-खप जाते हैं। हिंदी फिल्मों में 'दो बीघा जमीन' से लेकर 'गमन' तक हम ऐसे किरदारों को देखते-सुनते रहे हैं। महानगरों का कड़वा सत्य है कि यहां मंजिलें हमेशा आंखों से ओझल हो जाती हैं। संघर्ष असमाप्त रहता है। हंसल मेहता की 'सिटीलाइट्स' में कर्ज से लदा दीपक राजस्थान के एक कस्बे से पत्नी राखी और बेटी माही के साथ मुंबई आता है। मुंबई से एक दोस्त ने उसे भरोसा दिया है। मुंबई आने पर दोस्त नदारद मिलता है। पहले ही दिन स्थानीय लोग उसे ठगते हैं। विवश और बेसहारा दीपक को हमदर्द भी मिलते हैं। यकीनन महानगर के कोनों-अंतरों में भी दिल धड़कते हैं। दीपक को नौकरी मिल जाती है। एक दोस्त के बहकावे में आकर दीपक साजिश का हिस्सा बनता है, लेकिन क्या यह साजिश उसके सपनों को साकार कर सकेगी? क्या वह अपने परिवार के साथ सुरक्षित जिंदगी जी

श्रद्धांजलि - मेरे शिक्षक और लेखक जय दीक्षित

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-महेश भट्ट महेश भट्ट की ‘सर’,‘फिर तेरी कहानी याद आई’,‘नाराज’,‘नाजायज’ और ‘क्रिमिनल’ जैसी फिल्मों के लेखक जय दीक्षित हिंदी के मशहूर लेखक जगदंबा प्रसाद दीक्षित का फिल्मी नाम था। उनके उपन्यास  ‘मुर्दाघर’ और ‘कआ हुआ आसमान’ काफी चर्चित रहे। पिछले हफ्ते मंगलवार को जर्मनी में उनका निधन हो गया। उन्हें याद करते हुए महेश भट्ट ने यह श्रद्धांजलि लिखी है।     कहते हैं कि अगर आप नहीं चाहते कि मरने के साथ ही लोग आप को  भूल जाएं तो पढऩे लायक कुछ लिख जाएं या फिर लिखने लायक कुछ कर जाएं। मेरे शिक्षक, लेखक, दोस्त जय दीक्षित ने दोनों किया।     मेरे सेलफोन पर फ्रैंकफट में हुई उनकी मौन की खबर चमकी तो यही खयाल आया। जय दीक्षित की मेरी पहली याद अपने शिक्षक के तौर पर है। वे कक्षा में शुद्ध हिंदी में पढ़ा रहे थे। उनका सुंदर व्यक्तित्व आकर्षित कर रहा था। यह सातवें दशक की बात है। वे सेंट जेवियर्स कॉलेज में फस्र्ट ईयर के छात्रों को हिंदी पढ़ा रहे थे। उनमें एक अलग धधकता ठहराव था। बहुत बाद में समझ में आया कि वे दूसरे अध्यापकों से क्यों भिन्न थे? एक दिन अखबार में मैंने खबर पढ़ी कि सेंट जेवियर्स कॉलेज के एक प्रोफेसर क

आजाद सोच पर फुलस्टॉप के विरुद्ध - महेश भट्ट

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महेश भट्ट (महेश भट्ट का यह जरूरी लेख आज अमर उजाला में छपा है।) मुझे खुशफहमी नहीं है कि मेरी जो दृष्टि है, वही पूरी फिल्म इंडस्ट्री की दृष्टि है। मैं पूछता हूं कि हिंदुस्तानी सिनेमा का मयार विश्व सिनेमा में ऊंचा क्यों है? चीन जो आज हर मामले में आपसे आगे है, वह क्यों सिनेमा में पीछे है? वजह सीधी-सी है, हमारी आजादी। द राइट टू फ्री स्पीच। यह फिल्म इंडस्ट्री की धड़कन है। अगर आपने इंफ्रास्ट्रक्चर बना दिया, हर किस्म की तकनीक लगा दी, लेकिन फ्री स्पीच का गला घोंट दिया, तो इंडस्ट्री दम तोड़ देगी। चीन के पास सब कुछ है, मगर आजादी नहीं है। जो समाज अपने कलाकारों, लेखकों और निर्देशकों को जेहनी आजादी नहीं देता, वो शापित समाज है। इसके बाद आप कला और सिनेमा के विकास के लिए जितना चाहे पैसा लगा लीजिए, कुछ होने वाला नहीं है। मिडिल ईस्ट, सऊदी अरब और सिंगापुर में क्या कम पैसा है? चक्कर यह है कि आजाद सोच जहां होती है, वहीं सिनेमा या कला का जन्म होता है। 1998 में जब एनडीए सत्ता में थी, तो इन्होंने सिनेमा की आजादी को रोका था। इन्होंने मेरी फिल्म ‘जख्म’ के साथ क्या किया! यह फिल्म इनकी द

फिल्‍म स्‍मरण : सारांश

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सुकन्‍या वर्मा का यह लेख रिडीफ से लिया गया है। सुकन्‍या ने इतने बेहतरीन तरीके से महेश भट्ट की 'सारांश' के बारे में बताया है कि फिल्‍म की सारी विशेषताएं स्‍पष्‍ट हो जाती हैं। मूल लेख यहां है। चवन्‍नी के आग्रह पर अमित जैन,सुजीत सिन्‍हा,देदीप्‍य भानु ,इरशाद अली और स्मिता सिंह ने अपनी पसंद और राय रखी थी।  Mahesh Bhatt’s finest film Saaransh , which celebrates its 30th anniversary on May 25, isn’t comfort cinema but it is certainly a must-watch. A n elderly man wakes up early morning, draws out his desk and begins writing a letter to his son residing in the United States.  The mail isn’t a fancy exercise in eloquence but its simplicity conveys a father’s love, concern and commitment towards his only child until he's stirred up by a crushing realisation -- his young son is dead, he’s been dead for three months following a mugging incident on the streets of New York.  He may be no more but those he’s left behind aren’t exactly alive either. They merely exist min