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फिल्‍म रिव्‍यू : मटरू की बिजली का मन्‍डोला

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मुद्दे का हिंडोला -अजय ब्रह्मात्‍मज देश के सामाजिक और राजनीतिक मुद्दे संवेदनशील फिल्मकारों को झकझोर रहे हैं। वे अपनी कहानियां इन मुद्दों के इर्द-गिर्द चुन रहे हैं। स्पेशल इकॉनोमिक जोन [एसईजेड] के मुद्दे पर हम दिबाकर बनर्जी की 'शांघाई' और प्रकाश झा की 'चक्रव्यूह' देख चुके हैं। दोनों ने अलग दृष्टिकोण और निजी राजनीतिक समझ एवं संदर्भ के साथ उन्हें पेश किया। विशाल भारद्वाज की 'मटरू की बिजली का मन्डोला' भी इसी मुद्दे पर है। विशाल भारद्वाज ने इसे एसईजेड मुद्दे का हिंडोला बना दिया है, जिसे एक तरफ से गांव के हमनाम जमींदार मन्डोला व मुख्यमंत्री चौधरी और दूसरी तरफ से मटरू और बिजली हिलाते हैं। हिंडोले पर पींग मारते गांव के किसान हैं, मुद्दा है, माओ हैं और व‌र्त्तमान का पूरा मजाक है। वामपंथी राजनीति की अधकचरी समझ से लेखक-निर्देशक ने माओ को म्याऊं बना दिया है। दर्शकों का एक हिस्सा इस पर हंस सकता है, लेकिन फिल्म आखिरकार मुद्दे, मूवमेंट और मास [जनता] के प्रति असंवेदी बनाती है। मन्डोला गांव के हमनाम जमींदार मन्डोला दिन में क्रूर, शोषक और सामंत बने रहते हैं। शा

मटरू की बिजली का मन्डोला का नामकरण

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  विशाल भारद्वाज ने मकड़ी,मकबूल और ओमकारा के बाद पहली बार सात खून माफ में तीन शब्दों का टायटल चुना था। इस बार उनकी फिल्म के टायटल में पांच शब्द हैं-मटरू की बिजली का मन्डोला। फिल्म के नाम की पहली घोषणा के बाद से ही इस फिल्म के टाश्टल को लेकर कानाफूसी चालू हो गई थी। एक तो यह हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के अंगेजीदां सदस्यों के लिए टंग ट्विस्टर थ और दूसरे इसका मानी नहीं समझ में आ रहा था। बहुत समय तक कुछ लोग मटरू को मातृ और मन्डोला को मन डोला पढ़ते रहे। विशाल भारद्वाज ने इस फिल्म के टायटल की वजह बताने के पहले एक किस्सा सुनाया। जावेद अख्तर को यह टायटल पसंद नहीं आया था। उनहोंने विशाल से कहा भी कि यह कोई नाम हुआ। उनकी आपत्ति पर गौर करते हुए विशाल ने फिल्म का नाम खामखां कर दिया। वे अभी नए टायटल की घोषणा करते इसके पहले ही विशाल के पास जावेद साहब का फोन आया- आप ने खामखां नाम जाहिर तो नहीं किया है। मुझे पहला टायटल ही अच्छा लग रहा है। किसी मंत्र का असर है उसमें। आप तो मटरू की बिजली का मन्डोला टायटल ही रखो। इस फिल्म के गीत के लिए जब विशाल अपने गुरू और गॉडफादर गुलजार से मिले तो वे भी