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हिन्दी टाकीज-जिंदगी है तो सिनेमा है और सिनेमा ही जिंदगी है-सोनाली सिंह

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हिन्दी टाकीज-४८ सोनाली से चवन्नी की मुलाक़ात नहीं है। तस्वीर से ऐसा लगता है कि वह खूबसूरत और खुले दिल की हैं। जुगनुओं के पीछे भागती लड़की के हजारों सपने होंगे और उनसे जुड़ी लाखों ख्वाहिशे होंगी। चवन्नी चाहेगा कि रोज़ उनकी कुछ खेअहिशें पूरी हों.वैसे सोनाली कम से कम २२-२३ चीजों पर पक्का यकीं करती हैं। यकीनयाफ्ता सोनाली निश्चित ही ज़िन्दगी को भरपूर अंदाज़ में जीती होंगी। चवन्नी ने उनकी कहानियाँ नहीं पढ़ी हैं,पर भरोसे के करीबियों से उनकी तारीफें सुनी है। उनके लेखन का एक नमूना यहाँ लिखे शब्द भी है...आप उनसे संपर्क करना चाहें तो पता है... sonalisingh.smile@gmail.com चवन्‍नी के हिन्‍दी टाकीज का कारवां जल्‍दी ही 50वे पड़ाव पर पहुंच जाएगा। सफर जार रहेगा और आप के संस्‍मरण ही चवन्‍नी के हमसफ़र होंगे। आप भी लिखें और पोस्‍ट कर दें ... chavannichap@gmail.com यूं तो मैं जब तीन माह की थी, मैंने अपनी मौसी के साथ सिनेमा देखने जाना शुरू कर दिया था। मौसी बताती हैं कि मैं बिना शोरगुल किये चुपचाप बड़े शौक से तीन घंटे तक पिक्‍चर देख लिया करती थी। कुछ बड़ी हुई तो चाचा लोगों के साथ सिनेमा हॉल जाना शुरू कर दिय

हिन्दी टाकीज:सिनेमा देखने का सुख - विपिन चन्द्र राय

हिन्दी टाकीज-४६ मुझे सिनेमची भी कह सकते हैं। सिनेमा देखने की लत उम्र के किस पड़ाव में लगी, याद नहीं, पर पचासवें पड़ाव तक कायम है और आगे भी कायम रहेगा। असल में मेरे पिताजी नगर दंडाधिकारी थे, सो उन्हें पास मिलता था। वे फिल्म नहीं देखते थे तो पास का सदुपयोग करना मेरा ही दायित्व बनता था। वैसा मैं करता भी था, शान से जाता था, गेटकीपर सलाम बजाता था और वीआइपी सीट पर मुझे बिठा देता था। यहां तक कि इंटरवल में मूंगफली भी ला देता था। मैं मूंगफली फोड़ता हुआ सिनेमा दर्शन का सुख उठाता था। क्या आंनद दायक दिन थे वे, बीते दिनो की याद जेहन में समायी हुई हैं। मेरे छोटे से कस्बे जमालपुर में दो सिनेमा हाल अवंतिका और रेलवे था। उसमें प्रत्येक शनिवार को सिनेमा देखना मेरी दिनचर्या में शामिल था। सिनेमा बदले या वही हो, दोबारा देख लेता था। मुंगेर में तीन सिनेमा हाल था विजय, वैद्यनाथ और नीलम। उस जमाने में नीलम सबसे सुंदर हाल था। मुंगेर जाता तो बिना सिनेमा देखे वापस आने का सवाल नहीं था। पास जो उपलब्ध रहता था। उस जमाने में मनोरंजन का एकमात्र सर्वसुलभ साधन सिनेमा ही था। बस इसलिए वही देखता था। ढेर सारी फिल्में दे

हिन्दी टाकीज:काश, लौटा दे मुझे कोई वो सिनेमाघर ........ -सुदीप्ति

हिन्दी टाकीज-४५ चवन्नी को यह पोस्ट अचानक अपने मेल में मानसून की फुहार की तरह मिला.सुदीप्ति से तस्वीर और पसंद की १० फिल्मों की सूची मांगी है चवन्नी ने.कायदे से इंतज़ार करना चाहिए था,लेकिन इस खूबसूरत और धड़कते संस्मरण को मेल में रखना सही नहीं लगा.सुदीप्ति जब तस्वीर भेजेंगी तब आप उन्हें देख सकेंगे.फिलहाल हिन्दी टाकीज में उनके साथ चलते हैं पटना और सिवान... bबिहार के एक छोटे से गाँव से निकलकर सुदीप्ति ने पटना वूमेन'स कॉलेज और जे एन यू में अपनी पढ़ाई की है। छोटी-छोटी चीजों से अक्सरहां खुश हो जाने वाली, छोटी-छोटी बातों से कई बार आहत हो जाने वाली, बड़े-बड़े सपनों को बुनने वाली सुदीप्ति की खुशियों की चौहद्दी में आज भी सिनेमा का एक बहुत बड़ा हिस्सा मौजूद है।जितनी ख़ुशी उनको इतिहास,कहानियों,फिल्मों और मानव-स्वभाव के बारे में बात करके मिलती है, उससे कहीं ज्यादा खुश वो पटनहिया सिनेमाघरों के किस्सों को सुनाते हुए होती हैं. झूठ बोलकर या छुपाकर ही सही, खुद सिनेमा देखने बिहार में सिनेमाघर में चले जाना, बगैर किसी पुरुष रिश्तेदार/साथी के, साहस और खुदमुख्तारी को महसूस करने का इससे बड़ा जरिया भला और क्य

हिन्दी टाकीज:सिनेमा से पहली मुलाकात-मंजीत ठाकुर

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हिन्दी टाकीज-४४ मंजीत ठाकुर उत्साही व्यक्ति हैं.लेखक और पत्रकार होने के इस विशेष गुण के धनी मंजीत इन दिनों पूरे देश का भ्रमण कर रहे हैं.अच्छा ही है,दिल्ली की प्रदूषित हवा से जितना दूर रहें.अपने बारे में वे लिखते हैं... मैं मजीत टाकुर.. वक्त ने बहुत कुछ सिखाया है। पढाई के चक्कर में पटना से रांची और दिल्ली तक घूमा.. बीएससी खेती-बाड़ी में किया। फिर आईआईएमसी में रेडियो-टीली पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा.. सिनेमा की सनक ने एफटीआईआई के चक्कर भी लगवा दिए। नवभारत टाइम्स में सात महीने की संक्षिप्त नौकरी के बाद से डीडी न्यूज़ का नमक खा रहा हूं। फिलवक्त सीनियर कॉरेस्पॉन्डेंट हूं। सिनेमा के साथ-साथ सोशल और पॉलिटिकल खबरें कवर करने का चस्का है। सिनेमा को साहित्य भी मानता हूं, बस माध्यम का फर्क है..एक जगह शब्द है तो दूसरी जगह पर चलती-फिरती तस्वीरें..। सिनेमा में गोविंदा से लेकर फैलिनी तक का फैन हूं..। दिलचस्पी पेंटिंग करने, कविताएं और नॉन-फिक्शन गद्य लिखने और कार्टून बनाने में है। निजी जिंदगी में हंसोड़ हूं, दूसरों का मज़ाक बनाने और खुद मज़ाक बनने में कोई गुरेज़ नहीं। अपने ब्लॉग गुस्ताख पर गैर-जरुरी

हिन्दी टाकीज:जाने कहां गये वो सिनेमा के दिन ...-पूनम चौबे

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हिन्दी टाकीज-४३ पूनम चौबे नयी पीढ़ी की पत्रकार हैं। अंग्रेजी की छात्रा हैं मगर लिखना-पढ़ना हिंदी में करती हैं। कुछ नया करने का जज्‍बा इन्‍हें पत्रकारिता में घसीट लाया है। कुछ कहानियां भी लिख चुकी हैं। मगर किसी एक विधा पर टिके रहना अपनी तौहीन समझती हैं। सो फिलहाल पहचान कहां और कैसे बनेगी, इसी में सर खपा रही हैं। बचपन की यादों में शुमार मूवी देखने का खुमार। बरबस यह जुमला इसलिए याद आ रहा है क्‍योंकि आज भी पिक्‍चर हॉल में जाकर फिल्‍में देखने में वही मजा आता है, जो दस-बारह साल पहले था। आज भी वो यादें धुंधली नहीं पड़ीं जब मेरी जिद पर डैडी हम चारों भाई-बहनों को फिल्‍म दिखाने ले गये थे। 1996 की वह सुहानी शाम, शुक्रवार का दिन, फिल्‍म थी 'हम आपके हैं कौन' पिक्‍चर हॉल जाने के लिए डैडी से ढेरों मिन्‍नतें करनी पड़ती थीं। कारण था उनकी ऑफिस से छुट्टी न मिलना। फिर भी उस शुक्रवार की शाम को तो मैं अपनी जिद पर अड़ी रही। आखिरकार हम पिक्‍चर हॉल पहुंचे। टिकट लेने के बाद जैसे ही उस बड़े हॉल के कमरे में पहुंचे, लगा मानो, भूतों के महल में आ गये हों। ऐसा धुप अंधेरा। क्‍या ऐसा ही होता है सिनेमाघर? मुझे ल

हिन्दी टाकीज:मेरा फ़िल्म प्रेम-अनुज खरे

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हिन्दी टाकीज-३६ अनुज खरे फिल्मों के भारी शौकीन हैं.चवन्नी को लगता है की अगर वे फिल्मों पर लिखें तो बहुत अच्छा रहे.उनसे यही आग्रह है की समय-समय पर अपनी प्रतिक्रियाएं ही लिख दिया करें.आजकल इतने मध्यम और साधन हैं अभिव्यक्ति के.बहरहाल अनुज अपने बारे में लिखते हैं...बुंदेलखंड के छतरपुर में जन्म। पिताजी का सरकारी नौकरी में होने के कारण निरंतर ट्रांसफर। घाट-घाट का पानी पीया। समस्त स्थलों से ज्ञान प्राप्त किया। ज्ञान देने का मौका आने पर मनुष्य प्रजाति ने लेने से इनकार किया खूब लिखकर कसर निकाली। पत्रकारिता जीविका, अध्यापन शौकिया तो लेखन प्रारब्ध के वशीभूत लोगों को जबर्दस्ती ज्ञान देने का जरिया। अपने बल्ले के बल पर जबर्दस्ती टीम में घुसकर क्रिकेट खेलने के शौकीन। फिल्मी क्षेत्र की थोड़ी-बहुत जानकारी रखने की गलतफहमी। कुल मिलाकर जो हैं वो नहीं होते तो अद्भुत प्रतिभाशाली होने का दावा।जनसंचार, इतिहास-पुरातत्व में स्नातकोत्तर। शुरुआत में कुछ अखबारों में सेवाएं। प्रतियोगी परीक्षाओं के सरकारी-प्राइवेट संस्थानों में अध्यापन। यूजीसी की जूनियर रिसर्च फैलोशिप।पत्रकारिता की विशिष्ठ सेवा के लिए सरस्वती

हिन्दी टाकीज:काश! हकीकत बन सकता गुजरा जमाना-विजय कुमार झा

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हिन्दी टाकीज-३५ हिन्दी टाकीज कोशिश है अपने बचपन और कैशोर्य की गलियों में लौटने की.इन गलियों में भटकते हर हम सभी ने सिनेमा के संस्कार हासिल किए.जीवन में ज़रूरी तमाम विषयों की शिक्षा दी जाती है,लेकिन फ़िल्म देखना हमें कोई नहीं सिखाता.हम ख़ुद सीखते हैं और सिनेमा के प्रति सहृदय और सुसंस्कृत होते हैं.अगर आप अपने संस्मरण से इस कड़ी को मजबूत करें तो खुशी होगी. अपने संस्मरण पोस्ट करें ...chavannichap@gmail.com इस बार युवा पत्रकार विजय कुमार झा। विजय से चवन्नी की संक्षिप्त मुलाक़ात है.हाँ,बातें कई बार हुई हैं.कभी फ़ोन पर तो कभी चैट पर। विजय कम बोलते हैं,लेकिन संतुलित और सारगर्भित बोलते हैं.सचेत किस्म के नौजवान हैं। अपनी व्यस्तता से समय निकाल कर उन्होंने लिखा.इस संस्मरण के सन्दर्भ में उन्होंने लिखा है...यादें हसीन हों तो उनमें जीना अच्‍छा लगता है, पर उस पेशे में हूं जहां कल की बात आज बासी हो जाती है। सो आज में ही जीने वाला पत्रकार वि‍जय बन कर रह गया हूं। हिन्दी टाकीज का शुक्रि‍या कि‍ उसने अतीत में झांकने को प्रेरि‍त कि‍या और मैं कुछ देर के लि‍ए बीते जमाने में लौट गया। मुश्‍कि‍ल तो हुई, पर मजा भी

हिन्दी टाकीज:बार-बार याद आते हैं वे दिन-आनंद भारती

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हिन्दी टाकीज-३४ पत्रकारों और लेखों के बीच सुपरिचित आनंद भारती ने चवन्नी का आग्रह स्वीकार किया.उन्होंने पूरे मनोयोग से यह संस्मरण लिखा है,जिसमें उनका जीवन भी आया है.हिन्दी टाकीज के सन्दर्भ में वे अपने बारे में लिखते हैं...बिहार के एक अविकसित गांव चोरहली (खगड़िया) में जन्‍म। यह गांव आज भी बिजली, पक्‍की सड़क की पहुंच से दूर है। गांव भी नहीं रहा, कोसी नदी के गर्भ में समा गया। बचपन से ही यायावरी प्रवृत्ति का था। जैसे पढ़ाई के लिए इस ठाम से उस ठाम भागते रहे,उसी तरह नौकरी में भी शहरों को लांघते रहे। हर मुश्किल दिनों में फिल्‍मों ने साथ निभाया, जीने की ताकत दी। कल्‍पना करने के गुर सिखाए और सृजन की वास्‍तविकता भी बताई। फिल्‍मों का जो नशा पहले था, आज भी है। मुंबई आया भी इसीलिए कि फिल्‍मों को ही कैरियर बनाना है, यह अलग बात है कि धक्‍के बहुत खाने पड़ रहे हैं। अगर कहूं कि जिस जिस पे भरोसा था वही साथ नहीं दे रहे, तो गलत नहीं होगा। फिर भी संकल्‍प और सपने जीवित हैं। जागते रहो का राज कपूर, गाईड का देव आनंद प्‍यासा का गुरुदत्‍त, आनंद का राजेश खन्‍ना और अमिताभ बच्‍चन,तीसरी कसम के निर्माता शैलेंद्र, अंकु