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दरअसल:क्या पटकथा साहित्य है?

अजय ब्रह्मात्मज हर फिल्म की एक पटकथा होती है, इसे ही स्क्रिप्ट और स्क्रीनप्ले भी कहते हैं। पटकथा में दृश्य, संवाद, परिवेश और शूटिंग के निर्देश होते हैं। शूटिंग आरंभ करने से पहले निर्देशक अपनी स्क्रिप्ट पूरी करता है। अगर वह स्वयं लेखक नहीं हो, तो किसी दूसरे लेखक की मदद से यह काम संपन्न करता है। भारतीय परिवेश में कहानी, पटकथा और संवाद से स्क्रिप्ट पूरी होती है। केवल भारतीय फिल्मों में ही संवाद लेखक की अलग कैटगरी होती है। यहां कहानी के मूलाधार पर पटकथा लिखी जाती है। कहानी को दृश्यों में बांटकर ऐसा क्रम दिया जाता है कि कहानी आगे बढ़ती दिखे और कोई व्यक्तिक्रम न पैदा हो। शूटिंग के लिए आवश्यक नहीं है कि उसी क्रम को बरकरार रखा जाए, लेकिन एडीटिंग टेबल पर स्क्रिप्ट के मुताबिक ही फिर से क्रम दिया जाता है। उसके बाद उसमें ध्वनि, संगीत आदि जोड़कर दृश्यों के प्रभाव को बढ़ाया जाता है। पटकथा लेखन एक तरह से सृजनात्मक लेखन है, जो किसी भी फिल्म के लिए अति आवश्यक है। इस लेखन को साहित्य में शामिल नहीं किया जाता। ऐसी धारणा है कि पटकथा साहित्य नहीं है। हिंदी फिल्मों के सौ सालों के इतिहास में कुछ ही फिल्मों की

खलनायकों के बगैर खाली है हमारी दुनिया: देवदत्त पटनायक

जरा रावण के बगैर रामायण, कंस के बगैर कृष्णलीला, शकुनि के बगैर महाभारत की कल्पना करें। खलनायक ही कथा पूरी करते हैं। देवता राक्षसों की हत्या करते रहते हैं, लेकिन वे वापस आ जाते हैं। ऐसी कोई अंतिम निर्णायक जीत नहीं होती, जिसमें खल चरित्रों का हमेशा के लिए सफाया हो जाए। नए खलनायक पैदा होते रहते हैं, इसलिए नए नायकों की जरूरत पड़ती रहती है। नए अवतार, नए देवता, नयी देवियां, नए नायक। ठीक वैसे ही जैसे कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री हर शुक्रवार को नए खलनायक और नए नायक ले आती है। श्वेत-श्याम फिल्मों की याद करें तो उनमें खून के प्यासे मुनीम या लोलुप बलात्कारी अवश्य रहते थे। गब्बर सिंह के बगैर हम 'शोले' की कल्पना नहीं कर सकते। मोगैंबो के बगैर 'मिस्टर इंडिया' की कल्पना नहीं की जा सकती। रणजीत, जीवन, प्राण, अमरीश पुरी जैसे अभिनेताओं ने खलनायक के तौर पर अपना कॅरिअर बनाया। शशिकला, ललिता पवार और हेलन खलनायिकाओं के तौर पर मशहूर रहीं। युग बदल गया है। हम कलयुग के नए दौर में हैं, जहां खलनायक नहीं हैं। जब नायक ही खलनायकों की भूमिकाएं करने लगें तो ऐसा लगेगा ही कि खलनायक गायब हो गए। आज रूपहले पर्दे पर

शैली और शिल्प में दोहराव: मेरे बाप पहले आप

अजय ब्रह्मात्मज प्रियदर्शन कभी अपनी कामेडी फिल्मों से गुदगुदाया और हंसाया करते थे। अब उनकी शैली और शिल्प के दोहराव से ऊब होने लगी है। यही कारण है कि मेरे बाप पहले आप विषय की नवीनता के बावजूद रोचक नहीं लगती है। विधुर पिता जनार्दन और बेटे गौरव का अजीबोगरीब रिश्ता है। बेटा बाप को बेटा कह कर बुलाता है। वह उन्हें डांटता, फटकारता, धमकाता और पुचकारता है। चूंकि बाप ने दूसरी शादी नहीं की और बेटों को पालने में अपनी जिंदगी निकाल दी, इसलिए अब बेटा उन्हें अपने बेटे की तरह प्यार से पालता है। वह उन्हें बुरी संगत से बचाना चाहता है। फिल्म की नायिका शिखा है। वह किसी पुरानी घटना का बदला लेने के लिए पहले नायक गौरव को तंग करती है और फिर दोस्त बन जाती है। इस दोस्ती के दरम्यान गौरव और शिखा को पता चलता है कि गौरव के पिता और शिखा की आंटी पुराने प्रेमी हैं। वे उन दोनों की शादी करवाने की युक्ति रचते हैं। इस प्रक्रिया में वे खुद भी एक-दूसरे से प्यार करने लगते हैं, लेकिन अपनी शादी से पहले वे बुजुर्गो की शादी करवाते हैं। बेटे से पहले बाप की शादी के कंसेप्ट पर दृश्यों को जोड़-मोड़ कर यह फिल्म बना दी गयी है। अक्षय खन