फिल्म समीक्षा : पीकू
-अजय ब्रह्मात्म्ाज **** चार स्टार कल शाम ही जूही और शूजीत की सिनेमाई जुगलबंदी देख कर लौटा हूं। अभिभूत हूं। मुझे अपने पिता याद आ रहे हैं। उनकी आदतें और उनसे होने वाली परेशानियां याद आ रही हैं। उत्तर भारत में हमारी पीढ़ी के लोग अपने पिताओं के करीब नहीं रहे। बेटियों ने भी पिताओं को अधिक इमोशनल तवज्जो नहीं दी। रिटायरमेंट के बाद हर मध्यीवर्गीय परिवार में पिताओं की स्थिति नाजुक हो जाती है। आर्थिक सुरक्षा रहने पर भी सेहत से संबंधित रोज की जरूरतें भी एक जिम्मेदारी होती है। अधिकांश बेटे-बेटी नौकरी और निजी परिवार की वजह से माता-पिता से कुढ़ते हैं। कई बार अलग शहरों मे रहने के कारण चाह कर भी वे माता-पिता की देखभाल नहीं कर पाते। 'पीकू' एक सामान्य बंगाली परिवार के बाप-बेटी की कहानी है। उनके रिश्ते को जूही ने इतनी बारीकी से पर्दे पर उतारा है कि सहसा लगता है कि अरे मेरे पिता भी तो ऐसे ही करते थे। ऊपर से कब्जियत और शौच का ताना-बाना। हिंदी फिल्मों के परिप्रेक्ष्य में ऐसी कहानी पर्दे पर लाने की क्रिएटिव हिम्मत जूही चतुर्वेदी और शूजीत सरकार ने दिखाई है। 'विकी डोनर' के बाद एक बार