दरअसल ... भारतीय जन-जीवन में सिनेमा
-अजय ब्रह्मात्मज भारतीय सिनेमा के सौ साल हो गए। सदी बीत गई। सिनेमा ने अगली सदी में प्रवेश कर लिया। भारतीय सिनेमा के इतिहास की इस चाल की धमक हर जगह सुनाई पड़ी। खास कर हिंदी सिनेमा को लेकर ज्यादा चहल-पहल रही। पहुंच और विस्तार में अन्य भारतीय भाषाओं से अधिक विकसित और व्यापक होने की वजह से यह स्वाभाविक है। कमोबेश सभी क्षेत्रों, समुदायों और देश के समस्त नागरिकों को सिनेमा ने प्रभावित किया है। अगर किसी ने अपनी जिंदगी में केवल एक फिल्म देखी है तो भी वह अप्रभावित नहीं रह सका। सिनेमा का जादू कहावत के मुताबिक सिर चढ़ कर बोलता है। कभी यह जादू हमारे बात व्यवहार में दिखता है तो कभी हमें पता भी नहीं चलता और हम अपने व्यवहार, प्रतिक्रिया और संवेदना में फिल्मी दृश्य का अनुकरण कर रहे होते हैं। भारतीय परिवेश में सिनेमा हमें बहुत कुछ सिखाता है। प्रेम, संबंध, दोस्ती, नाते-रिश्ते और उनके साथ के अपने व्यवहार में हम फिल्मी चरित्रों की नकल कर रहे होते हैं। प्रेम हिंदी फिल्मों का प्रमुख अवयव है। अपनी जिंदगी में झांक कर देखें तो प्राय: सभी ने किशोर और युवा उम्र में फिल्मी हीरो या हीरोइन की नकल की होगी।