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Showing posts from April, 2009

दरअसल:दक्षिण अफ्रीका और मिस बॉलीवुड

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-अजय ब्रह्मात्मज यह आईपीएल के संयोजक और द्रष्टा ललित मोदी के दिमाग की उपज हो सकती है। साउथ अफ्रीका में चल रहे आईपीएल-2 के लीग मैचों में स्टेडियम के अंदर दर्शकों को बुलाने और बिठाने की उन्होंने आकर्षक तरकीब सोची। उन्होंने विभिन्न टीमों के मालिकों के साथ मिल कर मिस बॉलीवुड के चुनाव की घोषणा कर दी। ऐसा माना जा रहा है कि मिस बॉलीवुड चुने जाने की आकांक्षा से कई लड़कियां मैच देखने आ रही हैं और वे अपने साथ मित्र और परिजनों को भी 20-20 का रोमांचक क्रिकेट मैच देखने के लिए बाध्य कर रही हैं। आंकड़ों और आमदनी के ब्यौरों में 5 से 10 प्रतिशत के फर्क से संख्या और राशि बढ़ जाती है। चूंकि आईपीएल में शाहरुख खान, प्रीति जिंटा और शिल्पा शेट्टी की भागीदारी है, इसलिए उनकी मौजूदगी से मिस बॉलीवुड के प्रति विश्वसनीयता बढ़ जाती है। मित्र और परिजनों के साथ आईपीएल देखने आ रहीं लड़कियां उम्मीद कर सकती हैं कि अगर वे कैमरे की गिरफ्त में आ गई, तो मिस बॉलीवुड बन सकती हैं। मिस बॉलीवुड की विजेता को मिलने वाली राशि से अधिक महत्वपूर्ण फिल्म में काम मिलना है। हिंदी फिल्मों में काम पाने के लिए आतुर लड़कियों को आईपीएल-2 ने ए

बेखौफ और स्टाइलिश फिरोज खान

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जन्म- 25 सितंबर 1939 मृत्यु- 27 अप्रैल 2009 फिरोज खान का नाम सुनते ही एक आकर्षक, छरहरे और जांबाज जवान का चेहरा रूपहले पर्दे पर चलता-फिरता दिखाई पड़ने लगता है। बूट, हैट, हाथ में रिवॉल्वर, गले में लाकेट, कमीज के बटन खुले हुए,ऊपर से जैकेट और शब्दों को चबा-चबा कर संवाद बोलते फिरोज खान को हिंदी फिल्मों का काउब्वाय कहा जाता था। हालीवुड में क्लिंट ईस्टवुड की जो छवि थी, उसका देशी रूपांतरण थे फिरोज खान। नरेन्द्र बेदी की फिल्म खोटे सिक्के में बगैर नाम का किरदार निभाते हुए उन्होंने दर्शकों का दिल जीता। उसी फिल्म का गीत जीवन में डरना नहीं, सर नीचे कभी करना नहीं उनकी जीवन शैली का परिचायक गीत बन गया। तीन साल पहले छोटे भाई अकबर खान की फिल्म ताजमहल के पाकिस्तान प्रीमियर के मौके पर वे हिंदी फिल्म बिरादरी की टीम के साथ पाकिस्तान गए थे। वहां एक प्रसंग में उन्होंने पुरजोर तरीके से ताकीद की कि भारत एक सेक्युलर देश है। वहां सिख प्रधानमंत्री और मुसलमान राष्ट्रपति हैं, जबकि पाकिस्तान मुसलमानों के नाम पर बना था और यहां मुसलमान ही मुसलमान को मार रहे हैं। मुझे अपने भारतीय होने पर गर्व है। उनकी मुखरता पाकिस्तान क

हिन्दी टाकीज:वो ख्वाबों के दिन, वो फिल्मों के दिन-ज़ेब अख्तर

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हिन्दी टाकीज-३३ ज़ेब अख्तर रांची में रहते हैं. वे पत्रकारिता से जुड़े हैं और फिलहाल प्रभात ख़बर में फीचर संपादक हैं। व्यवसाय छोड़ कर पत्रकारिता में आए ज़ेब अख्तर साफ़ दिल और सोच के लेखक हैं. चवन्नी ने इधर किसी पत्रकार की ऐसी खनकती हँसी नहीं सुनी। हिन्दी और उर्दू में सामान रूप से लिखते हैं.उनका एक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुका है। एक शोध पुस्तक भी प्रकाशित है। ज़ेब अख्तर फिल्मों के लिए लिखना चाहते हैं। वे लीक से हट कर कुछ फिल्में लिखना चाहते हैं। जब होश संभाला तब टीवी भी नहीं था, छोटे शहर में होने के कारण सिनेमा ही मनोरंजन का एक मात्र साधन हुआ करता था। पिताजी थे तो सख्त लेकिन इतना जानते थे कि जरूरत से ज्यादा कड़ा होना नुकसान पहुंचा सकता है। सो इस मामले में उन्होंने थोड़ी छूट दे रखी थी। गोया गीत गाता चल, हम किसी से कम नहीं, आलम आरा, नहले पे दहला, शोले, मुगल- ए- आजम जैसी फिल्में देखने के लिए हमें इजाजत मिल जाती थीं। लेकिन मन इतने से कहां मानने वाला था। हम तो सभी फिल्में देखना चाहते थे। इसलिए स्कूल से गैरहाजिर होना जरूरी था। क्योंकि रविवार के दिन हम उर्दू पढ़ने मदरसा जाते थे। वहां से गैरहाजिर

जब वी वोट-इम्तियाज़ अली

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मैं बिहार का रहने वाला हूं। राजनीति की समझ रखता हूं। मुझे देश-दुनिया की खबर रहती है। इस बार मुझे वोट को लेकर मतदाता में जागरूकता दिख रही है। यंग इंडिया का नारा मुझे अच्छा लगता है। चुनाव के समय एक जोशीला माहौल है। अलग-अलग माध्यमों से वोट और प्रत्याशियों के बारे में बताया जा रहा है। ऐसे ही एक माध्यम से मैंने अपना पंजीकरण किया है। मुझे खुशी है कि इस बार मैं मुंबई में वोट दूंगा। मुंबई और दिल्ली में रहते हुए मैंने महसूस किया है कि बड़े शहरों में युवकों को राजनीति की सही समझ नहीं है। वे इसके प्रति उदासीन रहते हैं। इस बार चल रहे विभिन्न संस्थाओं के अभियानों से उनके बीच थोड़ी सुगबुगाहट दिख रही है। वे सभी वोट देंगे तो देश की राजनीति बदलेगी। मुझे लगता है कि किसी एक पार्टी को बहुमत मिलना चाहिए। सरकार कोई भी बनाए लेकिन किसी एक पार्टी की बने ताकि वह कुछ काम कर सके। ऐसी सरकार से बाद में सवाल भी पूछे जा सकते हैं। इस चुनाव में कुछ पार्टियों में मुझे नेतृत्व संकट दिख रहा है। बड़े नेताओं के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल रहा है। नेतागण मुद्दों की बात छोड़ कर व्यक्तिगत आाक्षेप लगाने लगते हैं। लोकतंत्र के

प्रेम,अश्लीलता और युवा दर्शकों की पसंद-महेश भट्ट

बडे होने की उम्र में मैं अश्लील शब्द से अच्छी तरह परिचित था। अश्लील शब्द होते थे, अश्लील फिल्में होती थीं, लतीफे होते थे, गीत और नृत्य होते थे, अश्लील भाव मुद्राएं होती थीं और कपडे भी होते थे। उन दिनों हमारे शिक्षक स्कूल में तंग पैंट पहन कर आने पर डांटते थे और उन्हें बदलने के लिए वापस घर भेज देते थे। अगर आप स्कूल में कमीज के बटन खोलकर घूमते दिख गए तो प्रिंसिपल आपके मां-बाप को बुला कर बताते थे कि आप अनुशासित नहीं हैं। उन दिनों गुमनाम फिल्म में महमूद का गाया अति लोकप्रिय गीत हम काले हैं तो क्या हुआ अश्लील माना गया था, जबकि वह गीत युवकों के बीच बेहद प्रचलित था। यानी युवा वर्ग को जो भी पसंद हो, वह बुजुर्गो के हिसाब से अश्लील होता था। बदलीं परिभाषाएं अब मैं उम्र के छठे दशक में हूं। मैं बच्चों को उंगली दिखाते हुए डांटता हूं कि तुम्हें वह फिल्म कैसे पसंद आ गई? वह तो अश्लील है। मुझे याद आता है कि मेरे माता-पिता मुझे भी ऐसे ही उंगली दिखा कर डांटते थे। क्या अश्लील है उसमें? कुछ भी तो नहीं? आजकल के बच्चे पलट कर जवाब देते हैं। हम लोग अपने समय में अभिभावकों की ऐसी डांट-फटकार सुनने के बाद चुप हो जात

दरअसल:देसी दर्शकों से बेपरवाह फिल्म इंडस्ट्री

-अजय ब्रह्मात्मज मल्टीप्लेक्स मालिकों और निर्माता-वितरकों के बीच फिलहाल कोई समझौता होता नहीं दिख रहा है। अपवाद के तौर पर 8 बाई 10 तस्वीर रिलीज हुई, क्योंकि उसकी रिलीज तारीख पूर्वनिश्चित थी और उसके निर्माता ने फिल्म के प्रचार में काफी पैसे खर्च किए थे। पिछले दिनों जब निर्माता और वितरकों की तरफ से आमिर और शाहरुख खान मीडिया से मिलने आए थे, तब यही तर्क दिया गया था। उस समय न तो किसी ने पूछा और न ही किसी ने अपनी तरफ से बताया कि आ देखें जरा क्यों मल्टीप्लेक्स में नहीं पहुंच सकी! एक आशंका जरूर व्यक्त की गई कि अगर शाहरुख, आमिर, यश चोपड़ा या यूटीवी की फिल्म अभी रिलीज पर रहती, तो क्या तब भी इतना ही सख्त रवैया होता? इस आशंका में ही हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की दोहरी नीति का सच छिपा है। आमिर खान ने चलते-फिरते अंदाज में बताया कि लाभांश शेयरिंग का मामला गजनी के समय ही तूल पकड़ चुका था, लेकिन तब उन्होंने इसे टाला। वे नहीं चाहते थे कि कोई यह कहे कि आमिर अपनी फिल्म के लिए यह सब कर रहे हैं! दोनों पक्षों की ढील और जिद में तीन महीने गुजर गए। इन तीन महीनों में हिंदी फिल्म इंडस्ट्री ने हर तरह से दबाव बनाया, लेकि

बाजपेयी और सोनिया जी प्रिय हैं:शाहरुख़ खान

बाजपेयी जी बाजपेयी जी से मेरे पुराने संबंध हैं। उनकी बेटी नमिता से पुराना परिचय है। पहले हम दिल्ली लाकर फिल्में दिखाते थे तो उनके लिए विशेष शो रखते थे। उन्हें फिल्मों का बहुत शौक है। कई बार पता चल जाता था कि उन्हें फिल्म अच्छी नहीं लगी। फिर भी वे कहते थे बेटा, बहुत अच्छा है। एक बार मिले तो बोले कि बहुत दिनों से तुम्हारी कोई फिल्म नहीं देखी। पिछले दिनों उनकी तबियत खराब हुई थी तो मैं चिंतित था। मैंने नमिता से पूछा कि बाप जी कैसे हैं। हम उन्हें बाप जी कहते हैं। मेरी तबियत खुद खराब थी, इसलिए मिलने नहीं जा सका। फिर भी मैं नमिता से हालचाल लेता रहा। वे बहुत स्वीट व्यक्ति हैं। मैं छोटा था तो मेरे पिताजी मुझे आईएनए मार्केट ले जाते थे कि अटल बिहारी बाजपेयी जी की स्पीच सुनो। बहुत खूबसूरत बोलते हैं वे। उनका हिंदी पर अधिकार है। मैं उनको और इंदिरा जी को सुन कर बड़ा हुआ हूं। मेरे पिता जी कांग्रेस में थे। मेरी मां कांग्रेस में थीं। गांधी परिवार को मैं बचपन से जानता हूं। राबर्ट से भी मेरा पुराना परिचय है। हमने कभी पालिटिकल बात नहीं की। वे हमारे घर आते हैं। हम भी उनसे मिलने जाते हैं। राजनीति से रिश्ता रा

शास्त्री और इंदिरा जी जैसा नेतृत्व चाहिए: अजय देवगन

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लीजेंड आफ भगत सिंह, गंगाजल और अपहरण जैसी राजनीतिक फिल्में कर चुके अजय देवगन स्वयं को देश का जागरूक नागरिक मानते हैं, लेकिन रोजमर्रा की राजनीति में उनकी खास रुचि नहीं है। वे कहते हैं, ''मैं अभिनेता हूं। मेरा मुख्य कार्य अभिनय है। राजनीति के दाव-पेंच मैं अधिक नहीं समझता। अपने पेशे और सार्वजनिक जीवन में रहने के कारण विभिन्न पार्टियों के नेताओं से मेरे संपर्क और संबंध हैं। व्यक्तिगत तौर पर मैं उनकी इज्जत करता हूं। राजनीति के गलियारे में टहलना मुझे पसंद नहीं है। अभी तक मैं किसी पार्टी विशेष के प्रचार अभियान में शामिल नहीं हुआ हूं। हां, अगर फिल्म बिरादरी से कोई चुनाव लड़ता है और वह मुझे बुलाता है तो मैं जा सकता हूं। वहां मैं व्यक्तिगत रिश्ते को महत्व दूंगा। मेरी राय में फिल्म बिरादरी के सदस्य राजनीति में जाने पर औरों की तुलना में देश की सेवा ज्यादा बेहतर और ईमानदार तरीके से कर सकते हैं। सुनील दत्त जी का उदाहरण हमारे सामने हैं।'' भारत का सम्मान रखा शास्त्री जी ने आदर्श नेताओं के बारे में पूछने पर अजय देवगन जिन दो नेताओं के नाम लेते हैं, वे दोनों देश के प्रधानमंत्र

अपराधी को नेता न चुनें: आमिर खान

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जरूरी है कि हम सभी वोट दें। अपनी बात करूं तो मैं बच्चों के साथ छुट्टियों पर जा रहा हूं, लेकिन मैं मुंबई की वोटिंग के दिन आऊंगा। अपना वोट डालूंगा और फिर बच्चों के पास लौट जाऊंगा। मैं इतना महत्व दे रहा हूं वोटिंग को। मेरे खयाल में आप भी इसका महत्व और जरूरत समझेंगे। जरूरी है उम्मीदवार को जानना वोट देना तो सबसे जरूरी है, लेकिन उसके साथ ही जरूरी है कि हम अपने चुनाव क्षेत्र में खड़े सभी उम्मीदवारों के बारे में तफसील से जानें। आप को मालूम होगा कि हर उम्मीदवार अपना फार्म भरते समय सारी जानकारियां देता है। ये जानकारियां आप समाचार पत्रों या अन्य माध्यमों से हासिल कर सकते हैं। मैं एडीआर संस्था के एक अभियान में शामिल हूं। हम सभी की कोशिश है कि देश का हर मतदाता अपने चुनाव क्षेत्र के सभी उम्मीदवारों के बारे में जानने के बाद ही अपने वोट के बारे में फैसला करे। मेरी पसंद थे सुनील दत्त अपनी बात कहूं तो मैं आंख मूंद कर सुनील दत्त साहब को वोट दे देता था। मैंने कभी किसी और उम्मीदवार के बारे में जानने की कोशिश ही नहीं की। वोट देने का मेरा वह तरीका ठीक नहीं था। यह अलग बात है कि मेरी पसंद सुनील दत्त साहब थे। क

फ़िल्म समीक्षा:दशावतार

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एक नहीं, दस कमल हासन अगर आप कमल हासन के प्रशंसक हैं तो भी इस फिल्म को देखने जाने से पहले एक बार सोच लें। कमल हासन आत्ममुग्ध अभिनेता हैं। कुछ समय पहले तक उनकी इसी आत्ममुग्धता के कारण हमने कई प्रयोगात्मक और रोचक फिल्में देखीं। लेकिन इधर उनकी और दर्शकों की टयूनिंग नहीं बन पा रही है। वह आज भी प्रयोग कर रहे हैं। ताजा उदाहरण दशावतार है। हालांकि तमिल और हिंदी में बनी फिल्म के निर्देशक रवि कुमार है, लेकिन यह फिल्म कमल हासन का क्रिएटिव विलास है। यह अमेरिका में काम कर रहे भारतीय वैज्ञानिक गोविंद सोमाया की कहानी है। गोविंद सिंथेटिक जैविक हथियार बनाने की प्रयोगशाला में काम करता है। एक छोटी घटना में हम उस जैविक हथियार का प्रभाव एक बंदर पर देखते हैं। गोविंद उस जैविक हथियार को सुरक्षित हाथों में पहुंचाना चाहता है। संयोग से बैक्टीरिया जिस डिब्बे में बंद हैं वह भारत चला जाता है। गोविंद उसकी खोज में भारत आता है। यहां से नायक और खलनायक की बचने-पकड़ने के रोमांचक दृश्य शुरू होते हैं। इन दृश्यों में जो दूसरे किरदार आते हैं, उनमें से नौ भूमिकाएं कमल हासन ने ही निभाई है। एक सहज जिज्ञासा होती है कि अगर इन्हें

दरअसल:पॉलिटिक्स और पॉपुलर कल्चर का रिश्ता

-अजय ब्रह्मात्मज एक मशहूर अभिनेता ने अनौपचारिक बातचीत में कहा था कि अगर आप फिल्म स्टार हैं, तो अंडरव‌र्ल्ड और पॉलिटिक्स से नहीं बच सकते। माफिया डॉन और पॉलिटिशियन आपसे संपर्क करते हैं और संबंध बनाने की कोशिश करते हैं। अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप उनके साथ कैसे पेश आते हैं या कैसे इस्तेमाल होते हैं? अंडरव‌र्ल्ड और फिल्म स्टारों की नजदीकियों के बारे में हमेशा कुछ न कुछ लिखा जाता रहा है। उस संदर्भ में एक ही चीज महत्वपूर्ण है कि मुंबई दंगों के बाद अंडरव‌र्ल्ड से किसी प्रकार का संबंध राष्ट्रविरोधी माना गया। उसके पहले अंडरव‌र्ल्ड सरगनाओं की पार्टियों में जाने में किसी स्टार को परहेज नहीं होता था और न ही उनके संबंध पर कोई आपत्ति की जाती थी। रही बात पॉलिटिक्स की, तो फिल्मी हस्तियों और राजनीतिक पार्टियों के अधिकांश संबंध परस्पर लाभ से निर्देशित होते हैं। फिल्मी हस्तियों और उनकी राजनीतिक सक्रियता को तीन चरणों में देखा जा सकता है। हालांकि दक्षिण भारत की स्थिति अलग रही है। आजादी के बाद से राजनीतिक गलियारे में फिल्मी हस्तियों की पूछ बढ़ी। नेहरू फिल्म कलाकारों से मिलने में रुचि दिखाते थे। उसकी एक

मीडिया ने मुझे बिग बना दिया -अमिताभ बच्चन

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-अजय ब्रह्मात्मज अपने बिग ब्लॉग की पहली वर्षगांठ (16 अप्रैल) पर अमिताभ बच्चन ने खास तौर से दैनिक जागरण से अपने मन की बातें बांटीं। आपने अपने ब्लॉग का नाम बिग बी क्यों पसंद किया? बिग बी, एंग्री यंग मैन, मिलेनियम स्टार जैसे विशेषणों को आप ज्यादा तरजीह नहीं देते। फिर बिग बी की पसंदगी की कोई खास वजह? मैंने यह नाम नहीं चुना है। बिग अड्डा सर्वर ने यह नाम रखा है। मुख्य पृष्ठ पर इसकी प्रस्तुति ऐसी है कि यह बिगब्लॉग डॉट कॉम पढ़ा जाता है। बिग और ब्लॉग को एक साथ हाइलाइट करें, तो बिग बी लॉग पढ़ते हैं। यह मेरा नहीं, उनका रचनात्मक फैसला है। उनकी अन्य गतिविधियों में भी बिग नाम आता है, जैसे बिग पिक्चर्स, बिग फिल्म आदि। यह महज संयोग ही है कि मेरे ब्लॉग की डिजाइन मीडिया रचित विशेषण से मिल गई। ऐसा नहीं है कि मैं इन विशेषणों में विश्वास करता हूं या उन्हें प्रोत्साहित और स्वीकार करता हूं! ब्लॉग लेखन क्या है आपके लिए? संक्षेप में, यह अनुभव आह्लादक रहा है। अपने प्रशंसकों और शुभेच्छुओं से जुड़ पाना उद्घाटन रहा। इस माध्यम ने बगैर किसी बिचौलिए के मुझे स्वतंत्र संबंध दिया है। इसमें मीडिया से होने वाली भ्रष्ट प्

स्टूडेंट एकेडमी अवार्ड की होड़ में भारतीय फ़िल्म

पूना फिल्म इंस्टीटयूट के स्नातक देबाशीष मेढेकर की फिल्म स्वयंभू सेन फोरसीज हिज एंड छात्रों के ऑस्कर पुरस्कार की होड़ में है। इस साल स्टूडेंट एकेडमी अवार्ड के लिए सबसे ज्यादा एंट्री मिली है। एकेडमी से मिली सूचना के मुताबिक इस अवार्ड के लिए अमेरिका के 103 कॉलेज और विश्वविद्यालयों से 559 फिल्में भेजी गई हैं। रेग्युलर पुरस्कारों की तरह इस कैटेगरी में भी विदेशी भाषा की एक फिल्म को पुरस्कार दिया जाता है। इस पुरस्कार के लिए 39 देशों से 57 प्रविष्टियां प्राप्त हुई हैं। भारत से पूना फिल्म इंस्टीट्यूट के स्नातक देबाशीष मेढेकर की फिल्म सूची में आ चुकी है। इस फिल्म में 26 जुलाई 2005 को मुंबई में आई बाढ़ के बीच बस की छत पर फंसे लोगों को एक व्यक्ति ऐसे फिल्ममेकर की रोचक कहानी सुनाता है, जिसने अपनी फिल्म के निर्माण के लिए स्टाक से लेकर कैमरा तक चुराया था। उल्लेखनीय है कि एकेडमी ने कॉलेज और विश्वविद्यालयों के सिनेमा के छात्रों को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से इस पुरस्कार की शुरूआत की। भारत के विधु विनोद चोपड़ा इस पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं।

हिन्दी टाकीज:सिनेमा ने मुझे बहुत आकर्षित किया-तनु शर्मा

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हिन्दी टाकीज-३२ तनु शर्मा ने यह पोस्ट अपने ब्लॉग महुआ पर लिखी थी.पिछले महीने २४ मार्च को आई यह पोस्ट चवन्नी को हिन्दी टाकीज सीरिज़ के लिए उपयुक्त लगी थी.चवन्नी ने उनसे अनुमति मांगी.तनु ने उदारता दिखाई और अनुमति दे दी। चवन्नी को उनकी तस्वीर चाहिए थी.संपर्क नहीं हो सका तो महुआ से ही यह तस्वीर ले ली.वहां तनु ने अपने बारे में लिखा है...अपने ख्वाबों को संवारती, अपने वजूद को तलाशती, अपने जन्म को सार्थक करने की कोशिश करती,मैं,सिर्फ मैं....... कल रात ब्रजेश्वर मदान सर ने एक मैसेज भेजा था....सिनेमा पर....(वही मदान सर जिन्हें सिनेमा पर लिखने के लिए पहले नेशनल एवॉर्ड से नवाज़ा गया )उसमें लिखा था....शेक्सपियर ने दुनिया को रंगमंच की तरह देखा....जहां हर आदमी अपना पार्ट अदा करके चला जाता है...सिनेमा तब नहीं था...जहां आदमी नहीं उसकी परछाईं होती है.....बाल्कनी...,रियर-स्टॉल....,ड्रैस सर्कल....या फ्रन्ट बैंच पर बैठा वो...परछाईयों में ढूंढता हैं...अपनी परछाईं....कहीं मिल जाए तो उसके साथ हंसता है...रोता है...सिनेमा की इस दुनिया में अपना जिस्म भी पराया होता है....फिल्म खत्म होने के बाद जब....ढूंढता है अप

दरअसल:नहीं दिखेंगी नई फिल्में

हिंदी फिल्मों के दर्शकों के लिए अगले दो महीने मुश्किल में गुजरेंगे। कोई नई या बड़ी फिल्म रिलीज नहीं होगी। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक मल्टीप्लेक्स मालिकों और निर्माताओं के बीच लाभांश को लेकर सहमति नहीं बन पाई है। अगर बात नहीं बनी, तो घोषणा के मुताबिक अप्रैल के अंत तक कोई नई फिल्म मल्टीप्लेक्स में नहीं लगेगी। फिलहाल 8बाई10 तस्वीर के बाद अक्षय कुमार की 29 मई को फिल्म कमबख्त इश्क का रिलीज होना तय है। खास बात यह है कि अभी से लेकर 29 मई के बीच कोई भी बड़ी फिल्म रिलीज नहीं हो रही है। ज्यादातर निर्माता आईपीएल की वजह से अपनी फिल्मों की रिलीज आगे बढ़ा चुके थे। हालांकि आईपीएल अब भारत की भूमि से निकल चुका है, फिर भी निर्माता इस दरम्यान अपनी फिल्में रिलीज नहीं कर रहे हैं। माना जा रहा है कि आईपीएल दुनिया में कहीं भी आयोजित हो, उसका सीधा प्रसारण भारत में होगा ही। पिछले साल का अनुभव बताता है कि दर्शक आईपीएल के सीजन में सिनेमाघरों का रुख नहीं करते। इसके अलावा, इस बार चुनाव भी है। अप्रैल के मध्य से चुनाव आरंभ होंगे और अलग-अलग तारीखों को विभिन्न प्रदेशों के मतदाता बॉक्स ऑफिस के बजाए पोलिंग बूथ पर नजर आ

हिन्दी टाकीज:ज़िन्दगी में लहर फिल्मों ने दी-दीपांकर गिरी

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हिन्दी टाकीज-३१ इस बार हैं दीपांकर गिरी। दीपांकर इन दिनों फिल्मों के लेखक बनने की तैयारी में हैं। साहित्य और सिनेमा का समान अध्ययन किया है उन्होंने। अपने परिचय में लिखते हैं...झारखंड के छोटे से चिमनी वाले शहर के एक साधारण घर में जन्म । लिखने पढने की बीमारी विरासत में मिली,जिसके कारण अंत में जामिया मिलिया में जाकर मास मीडिया में एडमिट हो गया। साहित्य ,कविता,कहानियों की दवाइयां लेकर वहां से निकला और दैनिक भास्कर,प्रभात खबर होते हुए मुंबई की राह पकड़ ली। टीवी सीरियलों ने कुछ दिन रोजी-रोटी चलाई। फिलहाल अपनी फिल्म की स्क्रिप्ट लेकर दफ्तर दर दफ्तर यायावरी,फिर भी बीमारी है कि कतमा होने का नाम नहीं लेती। ज़िन्दगी में लहर फिल्मों ने दी कल की ही बात है... अधिक मौसम नहीं बीते हैं। लगता है जैसे कल की ही बात है और मैं झारखंड के एक छोटे से ऊंघते हुए शहर "चंदपुरा" के पपड़ियां उचटते सिनेमा हाल के बाहर लाइन में लगा हूं और डर इसका कि कहीं टिकट ख़त्म न हो जाए। तमाम धक्कामुक्की के बाद चार टिकट लेने की कामयाबी थोड़ी देर के लिए जिंदगी में खुशबू भर देती है। मल्टीप्लेक्स के कंप्यूटर से निकले टिकटों क

फ़िल्म समीक्षा:8x10 तस्वीर

भेद खुलते ही सस्पेंस फिस्स नागेश कुकुनूर ने कुछ अलग और बड़ी फिल्म बनाने की कोशिश में अक्षय कुमार के साथ आयशा टाकिया को जोड़ा और एक नई विधा में हाथ आजमाने की कोशिश की। इस कोशिश में वे औंधे मुंह तो नहीं गिरे, लेकिन उनकी ताजा पेशकश पिछली फिल्मों की तुलना में कमजोर रही। कहा जा सकता है कि कमर्शियल कोशिश में वे कामयाब होते नहीं दिखते। नागेश वैसे निर्देशकों के लिए केस स्टडी हो सकते हैं, जो अपनी नवीनता से चौंकाते हैं। उम्मीदें जगाते हैं, लेकिन आगे चलकर खुद हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के कोल्हू में जुतने को तैयार हो जाते हैं। अपनी पहली फिल्म हैदराबाद ब्लूज से उन्होंने प्रभावित किया था। डोर तक वह संभले दिखते हैं। उसके बाद से उनका भटकाव साफ नजर आ रहा है। 8/10 तस्वीर में नागेश ने सुपर नेचुरल शक्ति, सस्पेंस और एक्शन का घालमेल तैयार किया है। जय पुरी की अपनी पिता से नहीं निभती। वह उनके बिजनेश से खुश नहीं है। पिता-पुत्र के बीच सुलह होने के पहले ही पिता की मौत हो जाती है। जय को शक है कि उसके पिता की हत्या की गई है। जय अपनी सुपर नेचुरल शक्ति से हत्या का सुराग खोजता है। उसके पास अद्भुत शक्ति है। वह तस्वीर के

दरअसल:क्या पटकथा साहित्य है?

अजय ब्रह्मात्मज हर फिल्म की एक पटकथा होती है, इसे ही स्क्रिप्ट और स्क्रीनप्ले भी कहते हैं। पटकथा में दृश्य, संवाद, परिवेश और शूटिंग के निर्देश होते हैं। शूटिंग आरंभ करने से पहले निर्देशक अपनी स्क्रिप्ट पूरी करता है। अगर वह स्वयं लेखक नहीं हो, तो किसी दूसरे लेखक की मदद से यह काम संपन्न करता है। भारतीय परिवेश में कहानी, पटकथा और संवाद से स्क्रिप्ट पूरी होती है। केवल भारतीय फिल्मों में ही संवाद लेखक की अलग कैटगरी होती है। यहां कहानी के मूलाधार पर पटकथा लिखी जाती है। कहानी को दृश्यों में बांटकर ऐसा क्रम दिया जाता है कि कहानी आगे बढ़ती दिखे और कोई व्यक्तिक्रम न पैदा हो। शूटिंग के लिए आवश्यक नहीं है कि उसी क्रम को बरकरार रखा जाए, लेकिन एडीटिंग टेबल पर स्क्रिप्ट के मुताबिक ही फिर से क्रम दिया जाता है। उसके बाद उसमें ध्वनि, संगीत आदि जोड़कर दृश्यों के प्रभाव को बढ़ाया जाता है। पटकथा लेखन एक तरह से सृजनात्मक लेखन है, जो किसी भी फिल्म के लिए अति आवश्यक है। इस लेखन को साहित्य में शामिल नहीं किया जाता। ऐसी धारणा है कि पटकथा साहित्य नहीं है। हिंदी फिल्मों के सौ सालों के इतिहास में कुछ ही फिल्मों की

कुछ खास:पौधा माली के सामने इतराए भी तो कैसे-विशाल भारद्वाज

विशाल भारद्वाज ने पिछले दिनों पूना मे आयोजित सेमिनार में अपनी बातें कहीं। इन बातों मे उनकी ईमानदारी झलकती है। वे साहित्य और सिनेमा के रिश्ते और फिल्म में नाटक के रूपांतरण पर अपनी फिल्मों के संदर्भ में बोल रहे थे। वे पूना फ़िल्म इंस्टीट्यूट में आमंत्रित थे। जो चाहते हो सो कहते हो, चुप रहने की लज्जत क्या जानो ये राज-ए-मुहब्बत है प्यारे, तुम राज-ए-मुहब्बत क्या जानो अल्फाज कहां से लाऊं मैं छाले की तपक समझाने को इकरार-ए-मुहब्बत करते हो, इजहार-ए-मुहब्बत क्या जानो कहना नहीं आता मुझे, बोलना आता है। मेरी चुप से गलतफहमियां कुछ और भी बढ़ीं वो भी सुना उसने, जो मैंने कहा नहीं मुझे लगा कि चुप रहा तो बहुत कुछ सुन लिया जाएगा। तो अब जो कह रहा हूं, उसमें वह सुन लीजिए जो मैं नहीं कह पा रहा हूं। साहित्य से मेरा रिश्ता कैसे बना? मैं उसकी बातें करूंगा। उन बातों में कोई मायने मिल जाए, अगर ये हो तो मुनासिब होगा। कल से मैं लोगों को सुन रहा हूं । ऐसा लग रहा है कि कितना कम देखा है, कितना कम सुना है और कितना कम आता है। माली के सामने पौधा इतराए भी तो कैसे? (गुलजार साहब की तरफ इशारा)। मेरे माली बौठे हुए हैं। गुलज