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Showing posts from February, 2015

फिल्‍म समीक्षा : दम लगा के हईसा

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चुटीली और प्रासंगिक -अजय ब्रह्मात्मज     यशराज फिल्म्स की फिल्मों ने दशकों से हिंदी फिल्मों में हीरोइन की परिभाषा गढ़ी है। यश चोपड़ा और उनकी विरासत संभाल रहे आदित्य चोपड़ा ने हमेशा अपनी हीरोइनों को सौंदर्य और चाहत की प्रतिमूर्ति बना कर पेश किया है। इस बैनर से आई दूसरे निर्देशकों की फिल्मों में भी इसका खयाल रख जाता है। यशराज फिल्म्स की ‘दम लगा के हईसा’ में पहली बार हीरोइन के प्रचलित मानदंड को तोड़ा गया है। फिल्म की कहानी ऐसी है कि सामान्य लुक की एक मोटी और वजनदार हीरोइन की जरूरत थी। भूमि पेंडणेकर ने इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाया है। इस फिल्म में उनके साथ सहायक कलाकारों का दमदार सहयोग फिल्म को विश्वसनीय और रियल बनाता है। खास कर सीमा पाहवा,संजय मिश्रा और शीबा चड्ढा ने अपने किरदारों को जीवंत कर दिया है। हम उनकी वजह से ही फिल्म के प्रभाव में आ जाते हैं।     1995 का हरिद्वार ¸ ¸ ¸देश में प्रधानमंत्री नरसिंहा राव की सरकार है। हरिद्वार में शाखा लग रही है। प्रेम एक शाखा में हर सुबह जाता है। शाखा बाबू के विचारों से प्रभावित प्रेम जीवन और कर्म में खास सोच रखता है। निर्देशक ने शाखा के प्रतिगामी असर

फिल्‍म समीक्षा : अब तक छप्‍पन 2

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  -अजय ब्रह्मात्‍मज  शिमित अमीन की 'अब तक छप्पन' 2004 में आई थी। उस फिल्म में नाना पाटेकर ने साधु आगाशे की भूमिका निभाई थी। उस फिल्म में साधु आगाशे कहता है कि एक बार पुलिस अधिकारी हो गए तो हमेशा पुलिस अधिकारी रहते हैं। आशय यह है कि मानसिकता वैसी बन जाती है। 'अब तक छप्पन 2' की कहानी पिछली फिल्म के खत्म होने से शुरू नहीं होती है। पिछली फिल्म के पुलिस कमिश्नर प्रधान यहां भी हैं। वे साधु की ईमानदारी और निष्ठा की कद्र करते हैं। साधु पुलिस की नौकरी से निलंबित होकर गोवा में अपने इकलौते बेटे के साथ जिंदगी बिता रहे हैं। राज्य में फिर से अंडरवर्ल्ड की गतिविधियां बढ़ गई हैं। राज्य के गृह मंत्री जागीरदार की सिफारिश पर फिर से साधु आगाशे को बहाल किया जाता है। उन्हें अंडरवर्ल्ड से निबटने की पूरी छूट दी जाती है। साधु आगाशे पुराने तरीके से अंडरवर्ल्ड के अपराधियों की सफाई शुरू करते हैं। नए सिस्टम में फिर से कुछ पुलिस अधिकारी भ्रष्ट नेताओं और अपराधियों से मिले हुए हैं। सफाई करते-करते साधु आगाशे इस दुष्चक्र की तह तक पहुंचते हैं। वहां उन्हें अपराधियों की संगत दिखती है

दरअसल : असुरक्षा रहती है साथ

-अजय ब्रह्मात्मज     कल दो फिल्मकारों से मिला। दोनों धुर विरोधी शैली के फिल्मकार हैं। एक की फिल्मों में सामाजिक सच्चाई और विसंगतियां मनोरंजक तरीके से आती हैं। उन्हें अभी तक लोकप्रिय स्टार नहीं मिल पाए हैं। दूसरे स्टायलिश फिल्मकार माने जाते हैं। उनकी नहीं चली फिल्मों की स्टायल भी पसंद की जाती रही है। फिल्म इंडस्ट्री के कामयाब स्आर उनके साथ काम करने को लालायित रहते हैं। अभी पहले फिल्मकार अपनी फिल्म को अंतिम रूप दे रहे हैं। यह फिल्म एक स्टूडियो से बनी है। दूसरे फिल्मकार अपनी फिल्म की तैयारी में हैं। उन्हें यकीन है कि उन्हें मनचाहे सितारे मिल जाएंगे। वे अपनी फिल्म की सही माउंटिंग कर लें। दोनों व्यस्त हैं। उन दोनों में फिल्म निर्माण की चिंताओं की अनेक समानताओं में से एक बड़ी समानता असुरक्षा की है। दोनों असुरक्षित हैं।     हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की यह आम समस्या है। शुरूआत की पहली सीढ़ी से लेकर सफलता के शीर्ष पर विराजमान तक असुरक्षित हैं। अमिताभ बच्चन बार-बार कहते हैं कि मैं अपनी हर नई फिल्म के समय असुरक्षित महसूस करता हूं। हम सभी जानते हें कि उन्होंने अपने फिल्मी करिअर में एक दौर ऐसा भी देखा

सिनेमा मेरी जान की भूमिका

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सिनेमा मेरी जान आ गयी। इसमें अंजलि कुजूर, अनुज खरे, अविनाश, आकांक्षा पारे, आनंद भारती, आर अनुराधा, गिरींद्र, गीता श्री, चंडीदत्त शुक्‍ल, जीके संतोष, जेब अख्‍तर, तनु शर्मा, दिनेश श्रीनेत, दीपांकर गिरी, दुर्गेश उपाध्‍याय, नचिकेता देसाई, निधि सक्‍सेना, निशांत मिश्रा, नीरज गोस्‍वामी, पंकज शुक्‍ला, पूजा उपाध्‍याय, पूनम चौबे, मंजीत ठाकुर, डॉ मंजू गुप्‍ता, मनीषा पांडे, ममता श्रीवास्‍तव, मीना श्रीवास्‍तव, मुन्‍ना पांडे (कुणाल), यूनुस खान, रघुवेंद्र सिंह, रवि रतलामी,रवि शेखर, रश्मि रव ीजा, रवीश कुमार, राजीव जैन, रेखा श्रीवास्‍तव, विजय कुमार झा, विनीत उत्‍पल, विनीत कुमार, विनोद अनुपम, विपिन चंद्र राय, विपिन चौधरी, विभा रानी, विमल वर्मा, विष्‍णु बैरागी, सचिन श्रीवास्‍तव, सुदीप्ति, सुयश सुप्रभ, सोनाली सिंह, शशि सिंह, श्‍याम दिवाकर और श्रीधरम शामिल हैं। सभी लेखक मित्रों से आग्रह है कि वे अपना डाक पता मुझे इनबॉक्‍स या मेल में भेज दें। प्रकाशक ने आश्‍वस्‍त किया है कि सभी को प्रति भेज दी जाएगी। बाकी मित्र शिल्‍पायन प्रकाशन से किताब मंगवा सकते हैं। पता है- शिल्‍पायन,10295,लेन नंबर-1,व

पूरी हुई ख्‍वाहिश - नवाजुद्दीन सिद्दीकी

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-अजय ब्रह्मात्मज श्रीराम राघवन की फिल्म ‘बदलापुर’ के प्रचार के लिए नवाजुद्दीन सिद्दिकी को अपनी फिल्मों की शूटिंग और अन्य व्यस्तताओं के बीच समय निकालना पड़ा है। वे इस आपाधापी के बीच फिल्म इंडस्ट्री के बदलते तौर-तरीकों से भी वाकिफ हो रहे हैं। उन्हें अपने महत्व का भी एहसास हो रहा है। दर्शकों के बीच उनकी इमेज बदली है। वे ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के समय से कई कदम आगे आ गए हैं। जब भीड़ में थे तो पहचान का संघर्ष था। अब पहचान मिली है तो भीड़ घेर लेती है। भीड़ और पहचान के इस द्वंद्व के साथ नवाज लगातार आग बढ़ते जा रहे हैं। ‘बदलापुर’ में वे वरुण धवन के ऑपोजिट खड़े हैं। इस फिल्म में दोनों के किरदार पर्दे पर पंद्रह साल का सफर तय करते हैं।     श्रीराम राघवन ने करिअर के आरंभ में रमण राघव की जिंदगी पर एक शॉर्ट फिल्म बनाई थी। इस फि ल्म से नवाज प्रभावित हुए थे। बाद में उनकी ‘एक हसीना थी’ देखने पर उन्होंने तय कर लिया था कि कभी न कभी उनके साथ काम करेंगे। दोनों अपने संघर्ष में लगे रहे। यह संयोग ‘बदलापुर’ में संभव हुआ। नवाज बताते हैं,‘एक दिन मुझे फोन आया कि आकर मिलो। तुम्हें एक स्क्रिप्ट सुनानी है। मैं गया तो उन्हो

पार्टीशन के बैकड्राप पर निजी ‘किस्सा’

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-अजय ब्रह्मात्मज अनूप सिंह की फिल्म ‘किस्सा’ देश-विदेश के फिल्म समारोहों की सैर के बाद सिनेमाघरों में आ रही है। अंतर्निहित कारणों से यह फिल्म देश के चुनिंदा शहरों के कुछ सिनेमाघरों में रिलीज हो रही है। मल्टीप्लेक्स के आने के बाद माना गया था कि बेहतरीन फिल्मों के प्रदर्शन की राह आसान होगी,लेकिन हआ इसके विपरीत। अब छोटी और बेहतरीन फिल्मों का प्रदर्शन और भी मुश्किल हो गया है। बहरहाल, ‘किस्सा’ के निर्देशक अनूप सिंह ने फिल्म के बारे में बताया। पार्टीशन की पृष्ठभूमि की यह फिल्म पंजाबी भाषा में बनी है। प्रस्तुत हैं निर्देशक अनूप सिंह की बातों के अंश-: ‘किस्सा’ का खयाल  पार्टीशन को 67-68 साल हो गए,लेकिन हम सभी देख रहे हैं कि अभी तक दंगे-फसाद हो रहे हैं। आए दिन एक नया नरसंहार होता है। हर दूसरे साल कोई नया सांप्रदायिक संघर्ष होता है। लोग गायब हो जाते हैं। कुछ मारे जाते हैं। हम अगले दंगों तक उन्हें आसानी से भूल जाते हैं। देश के नागरिकों को यह सवाल मथता होगा कि आखिर क्यों देश में दंगे होते रहते हैं? इस सवाल से ही फिल्म का खयाल आया। सिर्फ अपने देश में ही नहीं। पिछले 20 सालों में अनेक देश टूटे

बदलापुर : उज्जड़ हिंसा की बाढ़ में एक अहिंसक - गजेन्‍द्र सिंह भाटी

गजेंद्र सिंह भाटी फिल्म जिस अफ्रीकी लोकोक्ति पर शुरू में खड़ी होती है कि कुल्हाड़ी भूल जाती है लेकिन पेड़ याद रखता है, उससे अंत में हट जाती है। यहीं पर ये फिल्म बॉलीवुड में तेजी से बन रही सैकड़ों हिंसक और घटिया फिल्मों से अलग हो जाती है। महानता की ओर बढ़ जाती है। पूरी फिल्म में मनोरंजन कहीं कम नहीं होता। कंटेंट, एक्टिंग, प्रस्तुतिकरण, थ्रिलर उच्च कोटि का और मौलिक लगता है। फिल्म को हिंसा व अन्य कारणों से एडल्ट सर्टिफिकेट मिला है तो बच्चे नहीं देख सकते। पारंपरिक ख़यालों वाले परिवार भी एक-दो दृश्यों से साथ में असहज हो सकते हैं। बाकी ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए। ऐसा सिनेमा उम्मीद जगाता है। नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने जैसा काम किया है वैसा शाहरुख, सलमान, अमिताभ, अक्षय अपने महाकाय करियर में नहीं कर पाए हैं। फिल्म का श्रेष्ठ व सिहरन पैदा करता दृश्य वो है जहां लायक रघु से कहता है, "मेरा तो गरम दिमाग था। तेरा तो ठंडा दिमाग था? तूने लोगों को मार दिया। हथौड़े से। वो भी निर्दोष। क्या फर्क रह गया...?’ यहां से फिल्म नतमस्तक करती है। कुछ चीप थ्रिल्स हैं जिन्हें भूल जाएं तो इस श्रेणी म

दरअसल : फिल्‍म इंडस्‍ट्री के फरजी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज   बहुत पहले रहीम ने लिखा था ¸ ¸ ¸ जो रहीम ओछो बढ़ै,तो अति ही इतराय। प्यादा से फरजी भयो,टेढ़ो टेढ़ो जाय।।     हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में आए दिन कोई न कोई प्यादा से फरजी होता है और उसकी चाल बदल जाती है। हर शुक्रवार के साथ जहां कलाकारों,निर्देशकों और निर्माताओं की पोजीशन बदलती है,वहां बदलाव ही नियमित प्रक्रिया है। रोजाना हजारों महात्वाकांक्षी हिंदी फिल्मों में अपनी मेहनत से जगह बनाने मुंबई पहुंचते हैं। उनमें से कुछ की ही मेहनत रंग लाती है। धर्मभीरू और भाग्यवादी समाज में सफलता के विश्लेषण के बजाए सभी उसे किस्मत से जोड़ देते हैं। अजीब सी बात है कि सफल और कामयाब भी आनी कामयाबी को नसीब और किस्मत का नतीजा मानते हैं। सच्चाई यह है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में लगनशील और मेहनती ही सफल होते हैं। प्रतिभा हो तो सहूलियत होती है। रास्ते सुगम होते हैं। किस्मत और संयोग तो महज कहने की बातें हैं।     फिल्म इंडस्ट्री में कहा और माना जाता है कि यहां धैर्य के साथ लक्ष्य की ओर बढ़ता व्यक्ति अवश्य सफल होता है। शायद ही किसी को एकबारगी कामयाबी नहीं मिलती। पिछले डेढ़ दशकों में सैकड़ों कामयाब व्यक्तिय

फिल्‍म समीक्षा : बदलापुर

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-अजय ब्रह़मात्‍मज  श्रीराम राघवन की 'बदलापुर' हिंदी फिल्मों के प्रचलित जोनर बदले की कहानी है। हिंदी फिल्मों में बदले की कहानी अमिताभ बच्चन के दौर में उत्कर्ष पर पहुंची। उस दौर में नायक के बदले की हर कोशिश को लेखक-निर्देशक वाजिब ठहराते थे। उसके लिए तर्क जुटा लिए जाते थे। 'बदलापुर' में भी नायक रघु की बीवी और बच्चे की हत्या हो जाती है। दो में से एक अपराधी लायक पुलिस से घिर जाने पर समर्पण कर देता है और बताता है कि हत्यारे तो फरार हो गए, हत्या उसके साथी जीयु ने की। रघु उसके साथी की तलाश की युक्ति में जुट जाता है। इधर कोर्ट से लायक को 20 साल की सजा हो जाती है। रघु लायक के साथी की तलाश के साथ उस 20वें साल का इंतजार भी कर रहा है, जब लायक जेल से छूटे और वह खुद उससे बदला ले सके। इस हिस्से में घटनाएं तेजी से घटती हैं। फिल्म की गति धीमी नहीं पड़ती। श्रीराम राघवन पहले ही फ्रेम से दर्शकों को सावधान की मुद्रा में बिठा देते हैं। अच्छी बात है कि टर्न और ट्विस्ट लगातार बनी रहती है। परिवार को खोने की तड़प और बदले की चाहत में रघु न्याय और औचित्य की परवाह नहीं

'रॉय' ने मेरे भीतर के ज्ञान-चक्षु खोल दिए हैं! - अनु सिंह चौधरी

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राॅय का यह रोचक रिव्‍यू जानकीपुल से लिया गया है। फिल्म 'रॉय' की आपने कई समीक्षाएं पढ़ी होंगी. यह समीक्षा लिखी है हिंदी की जानी-मानी लेखिका अनु सिंह चौधरी ने . जरूर पढ़िए. इस फिल्म को देखने के लिए नहीं, क्यों नहीं देखना चाहिए यह जानने के लिए- मॉडरेटर. ============= इस ' रॉय ' ने मेरे भीतर के ज्ञान-चक्षु खोल दिए हैं। फिल्म ने मेरे तन-मन-दिल-दिमाग पर ऐसी गहरी छाप छोड़ी है कि इसके असर को मिटाने के लिए टॉरेन्ट पर टैरेन्टिनो की कम से कम पांच फ़िल्में डाउनलोड करके देखनी होंगी। बहरहाल , महानुभाव रॉय और उनसे भी बड़े महापुरुष फिल्मकार-लेखक विक्रमजीत सिंह की बदौलत मैंने ढाई सौ रुपए गंवाकर सिनेमा हॉल में जो ज्ञान अर्जित किया , वो आपसे बांटना चाहूंगी। (वैसे भी ज्ञान बांटने से जितना बढ़ता है , सदमा बांटने से उतना ही कम होता है।)  ज्ञान नंबर १ - अगर आप कबीर ग्रेवाल (अर्जुन रामपाल) की तरह सेलीब्रेटेड फ़िल्म राईटर-डायरेक्टर बनना चाहते हैं , तो आप सिर्फ़ और सिर्फ़ टाईपराईटर पर अपनी स्क्रिप्ट लिखें। फ़िल्म लिखने के लिए ' प्रेरणा ' का होना जितना ज़रूरी है , उतना

संजय मिश्रा : अभिनय में घोल दी जिंदगी

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-अमित कर्ण समर्थ अभिनेता संजय मिश्रा का सफर बिहार, बनारस और दिल्ली होते हुए अब मुंबई में जारी है। देश के प्रतिष्ठित नाट्य संस्थान एनएसडी से पास आउट होने के बाद वे नौंवे दशक में मुंबई की सरजमीं पर दस्तक दे चुके थे। उसके बावजूद उन्हें सालों बिना काम के मुंबई रहना पड़ा। अब फिल्मफेयर जैसे पॉपुलर अवार्ड ने उनके ‘आंखोदेखी’ के बाउजी के काम को सराहा है। उन्हें क्रिटिक कैटिगरी में बेस्ट एक्टर का अवार्ड मिला। संजय मिश्रा खुश हैं कि पॉपुलर अवार्ड समारोहों में ‘आंखोदेखी’, ‘क्वीन’ और  ‘हैदर’ जैसी फिल्मों के खाते में सबसे ज्यादा अवार्ड आए हैं। वैसी फिल्में इस बात की ताकीद करते हैं कि अब हिंदी सिनेमा बदल रहा है। आगे सिर्फ नाच-गाने व बेसिर-पैर की कहानियां दर्शक खारिज कर देंगे। जो कलाकार डिजर्व करते हैं, वे ही नाम और दाम दोनों के हकदार होंगे। मुंबई के अंधेरी उपनगरीय इलाके में उन्होंने बयां की अपना सफर अपनी जुबानी :      मैं मूलत : बिहार के दरभंगा के पास सकरी नारायणपुर इलाके का हूं। वहां मेरा पैतृक स्थल है, पर मेरी पैदाइश पटना की है। पिताजी प्रेस इंफॉर्मेशन ब्यूरो में थे तो मेरी पढ़ाई-लिखाई पहले ब

हिंदी टाकीज 2 (5) : सिनेमा विनेमा से सिनेमा सिनेमा तक.... :प्रतिभा कटियार

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हिंदी टाकीज सीरिज में इस बार प्रतिभा कटियार। उन्‍होंने मेरा आग्रह स्‍वीकार किया और यह संस्‍मरण लिखा। प्रतिभा को मैं पढ़ता रहा हूं और उनकी गतिविधियों से थोड़ा-बहुत वाकिफ रहा हूं। वह निरंतर लिख रही हैं। उन्‍होंने साहित्‍य और पत्रकारिता की भिन्‍न विधाओं में लेखन किया है। उनका यह संस्‍मरण नौवें दशक के आखिरी सालों और पिछली सदी के अंतिम दशक में लखनऊ की किशोरियों और युवतियों के सिनेमाई व्‍यवहार की भी झलक देता है। यह संस्‍मरण सिनेमा के साथ प्रतिभा कटियार के गाढ़े होते संबंध की भी जानकारी देता है। - प्रतिभा कटियार  स्मृतियों का कुछ पता नहीं कब किस गली का फेरा लगाने पहुंच जायें और जाने क्या-क्या न खंगालने लगें। ऐसे ही एक रोज सिनेमा की बात चली तो वो बात जा पहुंची बचपन की उन गलियों में जहां यह तक दर्ज नहीं कि पहली फिल्म कौन थी।  भले ही न दर्ज हो किसी फिल्म का नाम लेकिन सिनेमा की किसी रील की तरह मेरी जिंदगी में सिनेमा की आमद, बसावट और उससे मुझ पर पड़े असर के न जाने कितने पन्ने फड़फडाने लगे।  महबूब सी आमद- कनखियों से इधर-उधर देखता, छुपते-छुपाते, सहमते हुए डरते हुए से दाखिल

परफारमेंस काफी है पहचान के लिए-तापसी पन्नू

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-अजय ब्रह्मात्मज     नीरज पाण्डेय की फिल्म ‘बेबी’ में तापसी पन्नू की सभी ने तारीफ की। फिल्म के नायक अजय की सहकर्मी प्रिया एक स्पेशल मिशन पर काठमांडू जाती है। वहां वसीम से सच जानने के लिए वह उसे अपने कमरे में ले आती है। वसीम को प्रिया का सच मालूम हो जाता है। वहां दोनों की भिड़ंत होती है। प्रिया अपने पुरुष सहकर्मी का इंतजार नहीं करती। वह टूट पड़ती और उसे धराशायी करती है। हिंदी फिल्मों में ऐसा कम होता है। ज्यादातर फिल्मों में स्त्री पात्र पुरुषों के हाथों बचायी जाती हैं। तापसी पन्नू चल रही तारीफ से खुश हैं। - क्या वसीम से भिडंत के सीन करते समय यह खयाल आया था कि इसे ऐसी सराहना मिलेगी? 0 यह उम्मीद तो थी कि सराहना मिलेगी। फिल्म में मेरा रोल महत्वपूर्ण था। यह उम्मीद नहीं की थी कि मेरे सीन पर लोग तालियां और सीटियां मारेंगे। टिप्पणियां करेंगे। यह तो अविश्वसनीय सराहना हो गई है। -क्या नीरज पाण्डेय ने कोई इशारा किया था कि सीन का जबरदस्त इंपैक्ट होगा? 0 नीरज पाण्डेय अधिक बात करने में विश्वास नहीं करते। उन्होंने यही कहा था कि रियल लगना चाहिए। दर्शकों को यकीन हो कि लडक़ी ने खुद से ताकतवर व्यक्त

बहुमत की सरकार की आदर्श फिल्म: दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे 3

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विनीत कुमार ने आदित्‍य चोपड़ा की फिल्‍म दिलवाले दुल्‍हनिया ले जाएंगे पर यह सारगर्भित लेख लिखा है। उनके विमर्श और विश्‍लेषण के नए आधार और आयाम है। चवन्‍नी के पाठकों के लिए उनका लेख किस्‍तों में प्रस्‍तुत है। आज उसका तीसरा और आखिरी अंश... -विनीत कुमार  फेल होना और पढ़ाई न करना हमारे खानदान की परंपरा है..भटिंडा का भागा लंदन में मिलिनयर हो गया है लेकिन मेरी जवानी कब आयी और चली गयी, पता न चला..मैं ये सब इसलिए कर रहा हूं ताकि तू वो सब कर सके जो मैं नहीं कर सका..- राज के पिता Xxx                                                                              xxxxxx मुझे भी तो दिखा, क्या लिखा है तूने डायरी में. मुझसे छिपाती है, बेटी के बड़ी हो जाने पर मां उसकी मां नहीं रह जाती. सहेली हो जाती है- सिमरन की मां. फिल्म के बड़े हिस्से तक सिमरन की मां उसके साथ वास्तव में एक दोस्त जैसा व्यवहार करती है, उसकी हमराज है लेकिन बात जब परिवार की इज्जत और परंपरा के निर्वाह पर आ जाती है तो “ मेरे भरोसे की लाज रखना ” जैसे अतिभावनात्मक ट्रीटमेंट की तरफ मुड़ जाता है. ऐसा कहने औऱ व्यवहार करने में ए