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सलमान का शिष्‍य था मैं - अनंत विढाट

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-अजय ब्रह्मात्‍मज अली अब्‍बास जफर की फिल्‍म ‘ सुल्‍तान ’ में गोविंद के किरदार में अनंत विढाट को सभी ने नोटिस किया। ऐसा कम होता है कि किसी पॉपुलर स्‍टार की फिल्‍म में कोई कलाकार सहयोगी किरदार में होने पर भी याद रह जाए। अनंत विढाट का आत्‍मविश्‍वास उनके एंट्री सीन से ही दिखता है। दिल्‍ली के अनंत विढाट किरोड़ीमल कॉलेज से पढ़े हैं। कॉलेज की ही ‘ प्‍लेयर्स ’ सोसायटी में सक्रियता रही। वहीं केवल अरोड़ा के सान्निध्‍य में थिएटर की आरंभिक ट्रेनिंग मिली। उसके पहले एनएसडी से संबंधित ‘ थिएटर इन एडुकेशन ’ में भागीदारी की। 13-14 साल की उम्र से अमित का रुझान थिएटर में बढ़ा। कह सकते हैं कि छोटी उम्र से ही मंच पर कुछ करने का शौक रहा। मां-पिता ने हमेशा सपोर्ट किया। पिता ने ही एनएसडी के वर्कशाप की जानकारी दी थी और भेजा था। थिएटर का लगाव ही अनंत को पोलैंड के ग्रोटोवस्‍की इंस्‍टीट्यूट ले गया। वहां उन्‍होंने थिएटर की एक्टिंग सीखी। लौट कर आए तो कुछ समय तक रंगमंच पर सक्रिय रहने के बाद 2012 में उन्‍हें अली अब्‍बास जफर की ही ‘ गुंडे ’ मिली। ‘ गुडे ’ के बाद उन्‍हें यशराज फिल्‍म्‍स की ‘ मर्दानी

फिल्‍म समीक्षा : सुल्‍तान

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जोश,जीत और जिंदगी -अजय ब्रह्मात्‍मज अली अब्‍बास जफर ने हरियाणा के बैकड्राप में रेवाड़ी जिले के बुरोली गांव के सुल्‍तान और आरफा की प्रेमकहानी में कुश्‍ती का खेल जोड़ कर नए तरीके से एक रोचक कथा बुनी है। इस कथा में गांव,समाज और देश के दूसरी जरूरी बातें भी आ जाती हैं,जिनमें लड़कियों की जिंदगी और प्रगति का मसला सबसे अहम है। लेखक और निर्देशक अली अब्‍बास जफर उन पर टिप्‍पणियां भी करते चलते हैं। उन्‍होंने शुरू से आखिर तक फिल्‍म को हरियाणवी माटी से जोड़े रखा है। बोली,भाषा,माहौल और रवैए में यह फिल्‍म देसी झलक देती है। एक और उल्‍लेखनीय तथ्‍य है कि ‘ सुल्‍तान ’ में नायक-नायिका मुसलमान हैं,लेकिन यह फिल्‍म ‘ मुस्लिम सोशल ’ नहीं है। हिंदी फिल्‍मों में ऐसे प्रयास लगभग नहीं हुए हैं। यह हिंदी की आम फिल्‍म है,जिसके चरित्र आसपास से लिए गए हैं। अली अब्‍बास जफर की इस कोशिश की अलग से सराहना होनी चाहिए। सुल्‍तान गांव का नौजवान है। वह अपने दोस्‍तों के साथ पतंग लूटने और मौज-मस्‍ती करने में खुश रहता है। उसका अजीज दोस्‍त गोविंद है। उनकी अचानक टक्‍कर आरफा से हो जाती है। आरफा अपने एटीट्यूड से

ढेरों चुनौतियां हैं लड़कियों के सामने - अनुष्‍का शर्मा

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    -अजय ब्रह्मात्‍मज हर कलाकार की लाइफ में ऐसा समय आता है जब उसकी स्वीकार्यता बढ़ जाती है। भले उसमें कलाकार विशेष की प्लानिंग न दिखती हो, पर अनुष्का शर्मा उस स्टेज में हैं। वे ‘सुल्तान’ में हरियाणा की रेसलर आरिफा के रोल स्‍वीकारती हैं। वे साथ ही अपने बैनर तले हार्ड हिटिंग फिल्में बना रही हैं।   अनुष्‍का शर्मा कहती हैं, ‘ मुझे स्वीकारा जा रहा है। यह बहुत बड़ी चीज है। इसके बिना कुछ भी नहीं है। मेरी मेहनत के कोई मायने नहीं होंगे। हम लोग एक्टर हैं। लोग हमारे काम के बारे में क्या सोचते हैं, यही हमारी सफलता होती है। चाहे वह अप्रत्यक्ष सफलता हो या प्रत्यक्ष सफलता हो। इससे हमें और फिल्में मिलती हैं। वह चाहे जो भी हो। यह हमारे लिए जरूरी है। मैं बचपन से ऐसी रही हूं। मुझे हमेशा कुछ अलग करने का शौक रहा है। यह मेरा व्यक्तित्व है। मतलब खुद भी खुश होना चाहिए। उससे ज्यादा खुद से संतुष्ट होना चाहिए कि हम जो कर रहें हैं उसके पीछे एक वजह है। यह पूछे जाने पर वे बताती हैं, ‘वजह होना बहुत जरूरी है। उसके बिना कोई उद्देश्य नहीं होता है। मैं यह ‘सुल्तान’ के उदाहरण से समझाना चाहूंगी। मेरे लिए

ओलंपिक से मिला आइडिया - अली अब्‍बास जफर

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अजय ब्रह्मात्मज अली अब्बास जफर वक्त के साथ और परिपक्व हुए हैं। यशराज बैनर के संग उनका नाता पुराना है। ‘मेरे ब्रद्रर की दुल्हन’, ‘गुंडे’ के बाद अब वे ‘सुल्तान’ लेकर आए हैं। यहां वे इंडस्ट्री के सबसे बड़े सितारे के संग काम कर रहे हैं। अली बताते हैं, ‘ मैं वक्त के साथ कितना प्रबुद्ध हुआ हूं, यह तो ‘सुल्तान’ व भविष्‍य की फिल्में तय करेंगी। मैं जहां तक अपने सफर को समझ पाया हूं तो मेरे काम में अतिरिक्त ठहराव आया है। मैंने पहली फिल्म ‘मेरे ब्रद्रर की दुल्हन’ महज 27-28 में बना ली थी। उसकी कहानी तो मैंने 26 साल में ही लिख ली थी। तब मैं बुलबुले की भांति था। उस बुलबुले में काफी ऊर्जा थी। उस वक्त मैं अपना सब कुछ देकर फटने को आतुर था। उस फिल्म के चलने की वजह भी यही थी कि मैंने वह फिल्म जिस ऑडिएंस के लिए व जिन कलाकारों के संग बनाई थी, वह जुड़ाव स्‍थापित करने में सफल रही थी। उसमें ऐसे मुद्दे थे, जो तत्कालीन समाज के हालात थे। ‘गुंडे’ के वक्त चुनौतियां थीं। मैंने जिस दौर की कहानी के साथ डील किया था, उस वक्त तो मैं पैदा भी नहीं हुआ था। ऐसी कहानी कह रहा था, जिसमें विभाजन व माइग्रेशन का दर्द