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फिल्म समीक्षा : गली गुलियाँ

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फिल्म समीक्षा गली गुलियाँ -अजय ब्रह्मात्मज दिल्ली के चांदनी चौक की तंग गलियों में से एक गली गुलियाँ  से गुजरें तो एक  पुराने जर्जर मकान में खुद्दुस मिलेगा. बिखरे बाल, सूजी आंखें,मटमैले पजामे-कमीज़ में बदहवास खुद्दुस बाहरी दुनिया से कटा हुआ इंसान है. उसने अपनी एक दुनिया बसा ली है. गली गुलियाँ में उसने जहां-तहां सीसीटीवी कैमरे लगा रखे हैं. वह अपने कमरे में बैठा गलियों की गतिविधियों पर नजर रखता है. वह एक बेचैनी व्यक्ति है. उसे एक बार पीछे के मकान से मारपीट और दबी सिसकियों की आवाज सुनाई पड़ती है. गौर से सुनने पर उसे लगता है कि बेरहम पिता अपने बेटे की पिटाई करता है. खुद्दुस उसके बारे में विस्तार से नहीं जान पाता. उसकी बेचैनी बढ़ती जाती है. वह अपनी  बेचैनी को खास दोस्त गणेशी से शेयर करता है. अपने कमरे में अकेली जिंदगी जी रहे खुद्दुस  का अकेला दोस्त गणेशी ही उसकी नैतिक  और आर्थिक मदद करता रहता है. वह उसे डांटता-फटकारता और कमरे से निकलने की हिदायत देता है.खुद्दुस एक बार हाजत में बंद होता है तो वही उसे छुदाता है.पता चलता है कि गली गुलियाँ से निकल चुके अपने ही छोटे भाई से उसकी नहीं निभत

फिल्म समीक्षा : सत्यमेव जयते

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फिल्म समीक्षा : सत्यमेव जयते  सत्य की जीत  -अजय ब्रह्मात्मज शब्दों को ढंग से संवाद में पिरोया जाये तो उनसे निकली ध्वनि सिनेमाघर में ताली बन जाती है.मिलाप मिलन जावेरी की फिल्म 'सत्यमेव जयते' देखते समय यह एहसास होता है कि लेखक की मंशा संवादों से तालियाँ बटोरने की है.मिलाप को 10 में से 5 मौकों पर सफलता मिलती है. पिछले दिनों एक निर्देशक बता रहे थे कि हिंदी फिल्मों के संवादों से हिंदीपन गायब हो गया है.लेखकों से मांग रहती  है कि वे संवादों में आम बोलचाल की भाषा लिखें.कुछ फिल्मों के लिए यह मांग उचित हो सकती है,लेकिन फिल्में इक किस्म का ड्रामा हैं.उनके किरदार अगर अडोस-पड़ोस के नहीं हैं तो संवादों में नाटकीयता रखने में क्या हर्ज है. 'सत्यमेव जयते' संवादों के साथ ही चरित्र चित्रण और प्रस्तुति में भी नौवें दशक की याद दिलाती है. यह वह समय था,जब खानत्रयी का हिंदी सिनेमा के परदे पर उदय नहीं हुआ था और हिंदी सिनेमा घिसी-पिटी एकरसता से गर्त में जा रही थी. इस फिल्म के प्रीव्यू शो से निकलती एक फिल्म पत्रकार की टिपण्णी थी - बचपन याद आ गया. 'सत्यमेव जयते' हिंदी

पिता-पुत्र के रिश्‍तों का अनूठा ‘रुख’ : मनोज बाजपेयी

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पिता-पुत्र के रिश्‍तों का अनूठा ‘ रुख ’ : मनोज बाजपेयी कद्दावर कलाकार मनोज बाजपेयी की आज ‘ रुख ’ रिलीज हो रही है। मध्‍यवर्गीय परिवार के तानेबाने पर फिल्‍म मूल रूप से केंद्रित है। आगे मनोज की ‘ अय्यारी ’ व अन्‍य फिल्‍में भी आएंगी।     -अजय ब्रह्मात्‍मज ‘ रुख ’ का परिवार आम परिवारों से कितना मिलता-जुलता है ? यह कितनी जरूरी फिल्‍म है ? यह मध्‍य वर्गीय परिवारों की कहानी है। इसमें रिश्‍ते आपस में टकराते हैं। इसकी सतह में सबसे बड़ा कारण पैसों की कमी है। एक मध्‍य या निम्‍नवर्गीय परिवार में पैसों को लेकर सुबह से जो संघर्ष शुरू होता है , वह रात में सोने के समय तक चलता रहता है। ज्यादातर घरों में ये सोने के बाद भी अनवरत चलता रहता है। खासकर बड़े शहरों में ये उधेड़बुन चलता रहता है। इससे रिश्‍ते अपना मतलब खो देते हैं। वैसे दोस्त नहीं रह जाते , जो हमारे स्‍कूल - कॉलेज या फिर एकदम बचपन में जो होते हैं। इनके मूल में जीवन और जीविकोपार्जन की ऊहापोह है। इन्हीं रिश्‍तों और भावनाओं के बीच की जटिलता और सरलता को दर्शाती हुई यह एक ऐसी फिल्‍म है , जिसकी कहानी के केंद्र में एक मृत्‍यु होती है। स

फिल्‍म समीक्षा : रुख

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फिल्‍म रिव्‍यू भावपूर्ण रुख -अजय ब्रह्मात्‍मज पहली बार निर्देशन कर रहे अतानु मुखर्जी की ‘ रुख ’ हिंदी फिल्‍मों के किसी प्रचलित ढांचे में नहीं है। यह एक नई कोशिश है। फिल्‍म का विषय अवसाद,आशंका,अनुमान और अनुभव का ताना-बाना है। इसमें एक पिता हैं। पिता के मित्र हैं। मां है और दादी भी हैं। फिर भी यह पारिवारिक फिल्‍म नहीं है। शहरी परिवारों में आर्थिक दबावों से उत्‍पन्‍न्‍ स्थिति को उकेरती यह फिल्‍मे रिश्‍तों की परतें भी उघाड़ती है। पता चलता है कि साथ रहने के बावजूद हम पति या पत्‍नी के संघर्ष और मनोदशा से विरक्‍त हो जाते हैं। हमें शांत और समतल जमीन के नीचे की हलचल का अंदाजा नहीं रहता। अचानक भूकंप या विस्‍फोट होने पर पता चलता है कि ाोड़ा ध्‍यान दिया गया होता तो ऐसी भयावह और अपूरणीय क्षति नहीं होती। फिल्‍म की शुरूआत में ही डिनर करते दिवाकर और पत्‍नी नंदिनी से हो रही उसकी संक्षिप्‍त बातचीत से स्‍पष्‍ट हो जाता है कि दोनों का संबंध नार्मल नहीं है। दोनों एक-दूसरे से कुछ छिपा रहे हैं। या एक छिपा रहा है और दूसरे की उसमें कोई रुचि नहीं है। संबंधों में आए ऐसे ठहरावों को फिल्‍मों में

फिल्‍म समीक्षा : नाम शबाना

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फिल्‍म रिव्‍यू दमदार एक्‍शन नाम शबाना -अजय ब्रह्मात्‍मज नीरज पांडेय निर्देशित ‘ बेबी ’ में शबाना(तापसी पन्‍नू) ने चंद दृश्‍यों में ही अपनी छोटी भूमिका से सभी को प्रभावित किया था। तब ऐसा लगा था कि नीरज पांडेय ने फिल्‍म को चुस्‍त रखने के चक्‍कर में शबाना के चरित्र विस्‍तार में नहीं गए थे। हिंदी में ‘ स्पिन ऑफ ’ की यह अनोखी कोशिश है। फिल्‍म के एक किरदार के बैकग्राउंड में जाना और उसे कहानी के केंद्र में ले आना। इस शैली में चर्चित फिल्‍मों के चर्चित किरदारों के विस्‍तार में जाने लगें तो कुछ दिलचस्‍प फिल्‍में मिल सकती हैं। किरदारों की तैयारी में कलाकार उसकी पृष्‍ठभूमि के बारे में जानने की कोशिश करते हैं। अगर लेखक-निर्देशक से मदद नहीं मिलती तो वे खुद से उसका अतीत गढ़ लेते हैं। यह जानना रोचक होगा कि क्‍या नीरज पांडेय ने तापसी पन्‍नू को शबाना की पृष्‍ठभूमि के बारे में यही सब बताया था,जो ‘ नाम शबाना ’ में है ? ‘ नाम शबाना ’ के केंद्र में शबाना हैं। तापसी पन्‍नू को टायटल रोल मिला है। युवा अभिनेत्री तापसी पननू के लिए यह बेहतरीन मौका है। उन्‍होंने लेखक नीरज पांढेय और निर्दे

फिल्‍म समीक्षा : सात उचक्‍के

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गालियां और गलियां -अजय ब्रह्मात्‍मज संजीव शर्मा की ‘ सात उचक्‍के ’ का सबसे बड़ा आकर्षण मनोज बाजपेयी,के के मेनन और विजय राज का एक साथ एक फिल्‍म में होना है।तीनों थिएटर की पृष्‍ठभूमि से आए अभिनेता हैं। तीनों की शैली में हल्‍की भिन्‍नता है। फिल्‍म के कुछ दृश्‍यों में तीनों साथ हैं। उन दृश्‍यों में हंसी की स्‍वच्‍छंद रवानी है। वे एक-दूसरे को स्‍पेस देते हुए अपनी मौजूदगी और शैली से खुश करते हैं। अपने निजी दृश्‍यों में उनका हुनर दिखता है। लेखक-निर्देशक संजीव शर्मा तीनों के साथ पुरानी दिल्‍ली की उन गलियों में घुसे हैं,जिनसे हिंदी सिनेमा अपरिचित सा रहा है। पुरानी दिल्‍ली के निचले तबके के ‘ सात उचक्‍कों ’ की कहानी है यह। ’ सात उचक्‍के ’ में पुरानी दिल्‍ली की गलियां और गालियां हैं। गालियों की बहुतायत से कई बार आशंका होती है कि कहीं लेखक-निर्देशक स्‍थानीयता के लोभ में असंयमित तो नहीं हो गए हैं। फिल्‍म के सातों उचक्‍कों का कोई भी संवाद गालियों के बगैर समाप्‍त नहीं होता। भाषा की यह खूबी फिल्‍म के आनंद में बाधक बनती है। हां,पुरानी दिल्‍ली की तंग गलियां इस फिल्‍म में अपनी खूबसूरती

कॉमेडी की है मेरी अपनी परिभाषा - मनोज बाजपेयी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज मनोज बाजपेयी को हाल ही में 7वें जागरण फिल्‍म फेस्टिवल में ‘ अलीगढ़ ’ के लिए श्रेष्‍ठ अभिनेता का पुरस्‍कार मिला है। उनकी ‘ सात उचक्‍के ’ रिलीज पर है। इस साल यह उनकी तीसरी फिल्‍म होगी। तीनों फिल्‍मों में वे बिल्‍कुल भिन्‍न भूमिकाओं में दिखे। - बधाई। 7वें जागरण फिल्‍म फेस्टिवल में श्रेष्‍ठ अभिनेता का पुरस्‍कार पाने पर आप की क्‍या प्रतिक्रिया है ? 0 मुझे बहुत अच्‍छा लगा। दैनिक जागरण और जागरण फिल्‍म फेस्टिवल से मैं जुड़ा रहा हूं। बेहतरीन सिनेमा के प्रचार-प्रसार में वे बहुत अच्‍छा काम कर रहे हैं। मेरे लिए ‘ अलीगढ़ ’ का पुरस्‍कार खास मानी रखता है। दूसरे पुरस्‍कारों में मेनस्‍ट्रीम की फिल्‍मों पर फोकस रहता है। ‘ अलीगढ़ ’ जैसी फिल्‍मों को पहचान और पुरस्‍कार मिले तो अच्‍छा लगता है। ‘ अलीगढ़ ’ को फस्टिवल सर्किट में काफी सराही गई है। मुझे मिला पुरस्‍कार एक तरीके से प्रोफेसर सिरस का भी सम्‍मान है। -इस बीच आप की ‘ बुधिया सिंह ’ भी सराही गई,लेकिन वह ढंग से दर्शकों के बीच पहुंच नहीं सकी। 0 मुझे भी लगता है कि ‘ बुधिया सिंह ’ को सही बैकअप नहीं मिल पाया। उस

फिल्‍म समीक्षा : बुधिया : बॉर्न टू रन

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कथा और व्‍यथा -अजय ब्रह्मात्‍मज मयूर पटेल और मनोज बाजपेयी की फिल्‍म ‘ बुधिया : बॉर्न टू रन ’ उड़ीसा के बुधिया और बिरंची की कहानी है। फिल्‍म का शीर्षक बुधिया है। वह शिशु नायक है। बुधिया के साथ-साथ बिरंची की भी कहानी चलती है। दो व्‍यक्तियों के परस्‍पर विश्‍वास और संघर्ष की यह कहानी रोमांचक,प्रेरक और मनोरंजक है। सोमेंद्र पाढ़ी ने इसे बड़ यत्‍न से गूंथा है। बॉयोपिक फिल्‍मों के इस दौर में ‘ बुधिया... ’ बेहतरीन उदाहरण है। फिल्‍म में ढलने के बावजूद बुधिया और बिरंची का चरित्र नैसर्गिक और आर्गेनिक रहता है। हालांकि ‘ बुधिया... ’ को सर्वश्रेष्‍ठ बाल फिल्‍म का राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार मिला है,लेकिन यह फिल्‍म सभी उम्र के दर्शकों के लिए है। इस फिल्‍म का गहन दर्द है कि बुधिया के दौड़ने पर आज भी पाबंदी है। वह 2016 के ओलिंपिक में नहीं जा सका। अगर दबाव बढ़े और आवाज उठे तो इस होनहार धावक की प्रतिभा से विश्‍व परिचित हो और देश का भी गौरव बढ़े। ‘ बुधिया... ’ उड़ीसा के पांच साल के बच्‍चे की कहानी है। वह जन्‍मजात धावक है। बचपन में जूडो कोच बिरंची की पारखी नजर उसे भांप लेती है

फिल्‍म समीक्षा : ट्रैफिक

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स्‍पीड और भावनाओं का रोमांच -अजय ब्रह्मात्‍मज मलयालम और तमिल के बाद राजेश पिल्‍लई ने ‘ ट्रैफिक ’ हिंदी दर्शकों के लिए निर्देशित की। कहानी का लोकेशन मुंबई-पुणे ले आया गया। ट्रैफिक अधिकारी को चुनौती के साथ जिम्‍मेदारी दी गई कि वह धड़कते दिल को ट्रांसप्‍लांट के लिए निश्चित समय के अंदर मुंबई से पुणे पहुंचाने का मार्ग सुगम करे। घुसखोर ट्रैफिक हवलदार गोडबोले अपना कलंक धोने के लिए इस मौके पर आगे आता है। मुख्‍य किरदारों के साथ अन्‍य पात्र भी हैं,जो इस कहानी के आर-पार जाते हैं। मलयालम मूल देख चुके मित्र के मुताबिक लेखक-निर्देशक ने कहानी में काट-छांट की है। पैरेलल चल रही कहानियों को कम किया,लेकिन इसके साथ ही प्रभाव भी कम हुआ है। मूल का खयाल न करें तो ‘ ट्रैफिक ’ एक रोमांचक कहानी है। हालांकि हम सभी को मालूम है कि निश्चित समय के अंदर धड़कता दिल पहुंच जाएगा,फिर भी बीच की कहानी बांधती और जिज्ञासा बढ़ाती है। फिल्‍म शाब्दिक और लाक्षणिक गति है। हल्‍का सा रहस्‍य भी है। और इन सब के बीच समर्थ अभिनेता मनोज बाजपेयी की अदाकारी है। मनोज अपनी हर भूमिका के साथ चाल-ढाल और अभिव्‍यक्ति बदल देते ह

हारने की हिम्‍मत है - मनोज बाजपेयी

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-अजय ब्रह्मात्‍मज मनोज बाजपेयी की पिछली फिल्‍म ‘ अलीगढ़ ’ से मिल रही तारीफ का सिलसिला अभी खत्‍म भी नहीं हुआ कि उनकी अगली फिल्‍म ‘ ट्रैफिक ’ का ट्रेलर आ गया। उन्‍होंने पिछली मुलाकात में कहा था कि उनकी तीन फिल्‍में तैयार हैं। वे रिलीज के विभिन्‍न चरणों में हैं। मनोज बाजपेयी ने अपनी व्‍यस्‍तता और पसंद का तरीका चुन लिया है। वे चुनिंदा फिल्‍मों में काम करते हैं। वे कहते हैं कि कोई भी फिल्‍म करने से बेहतर घर में बेकार बैठना है। यह पूछने पर कि क्‍या यह बात लिखी जा सकती है ? वे बेधड़क कहते हैं, ’ क्‍यों नहीं ? सच्‍चाई लिख देने में क्‍या दिक्‍कत है ?’ हमारी बातचीत ‘ ट्रैफिक ’ पर होती है। इस फिल्‍म के ट्रेलर में वे बिल्‍कुल अलग भूमिका में नजर आ रहे हैं। फिल्‍म के बारे में वे बताते हैं, ’ इस फिल्‍म में जीवन बचाने का संघर्ष है। इस संघर्ष के साथ अनेक जिंदगियां जुड़ी हुई हैं। मैं ‘ ट्रैफिक ’ में एक र्टैफिक हवलदार का रोल कर रहा हूं। जिंदगी में उसने केवल एक गलती की है,जिसका वह पश्‍चाताप कर रहा है। ‘ हिंदी में आ रही यह फिल्‍म पहले मलयालम और तमिल में बन चुकी है। दोनों ही भाषाओं मे

रिश्‍ते संजो कर रखते हैं मनोज बाजपेयी

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-अविनाश दास   हिंदी सिने जगत उन चंद फिल्‍मकारों व कलाकारों का शुक्रगुजार रहेगा, जिन्‍होंने हिंदी सिनेमा का मान दुनिया भर में बढ़ाया है। मनोज बाजपेयी उन्हीं चंद लोगों में से एक है। 23 अप्रैल को उनका जन्‍मदिन है। पेशे से पत्रकार और मशहूर ब्‍लॉग ‘मोहल्ला लाइव’ के कर्ता-धर्ता रह चुके अविनाश दास उन्हें करीब से जानते हैं। अविनाश अब सिने जगत में सक्रिय हैं। उनकी फिल्‍म ‘अनारकली आरावाली’ इन गर्मियों में आ रही है। बहरहाल, मनोज बाजपेयी के बारे में अविनाश दास की बातें उन्हीं की जुबानी :    -अविनाश दास 1998 में सत्‍या रिलीज हुई थी। उससे एक साल पहले मनोज वाजपेयी पटना गए थे। वहां उनकी फिल्‍म तमन्‍ना का प्रीमियर था। साथ में पूजा भट्ट थीं। महेश भट्ट भी थे। जाहिर है प्रेस कांफ्रेंस होना था। जाड़े की सुबह दस बजे मौर्या होटल का कांफ्रेंस हॉल पत्रकारों से भरा हुआ था। बहुत सारे सवालों के बीच एक सवाल पूजा भट्ट से मनोज वाजपेयी के संभावित रोमांस को लेकर था। लगभग दस सेकंड का सन्‍नाटा पसर गया। फिर अचानक मनोज उठे और सवाल पूछने वाले पत्रकार को एक ज़ोरदार थप्‍पड़ लगा दिया। अफरा-तफरी मच गयी। का

फिल्‍म समीक्षा : अलीगढ़

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साहसी और संवेदनशील अलीगढ़ -अजय ब्रह्मात्‍मज हंसल मेहता की ‘ अलीगढ़ ’ उनकी पिछली फिल्‍म ‘ शाहिद ’ की तरह ही हमारे समकालीन समाज का दस्‍तावेज है। अतीत की घटनाओं और ऐतिहासिक चरित्रों पर पीरियड फिल्‍में बनाना मुश्किल काम है,लेकिन अपने वर्त्‍तमान को पैनी नजर के साथ चित्रबद्ध करना भी आसान नहीं है। हंसल मेहता इसे सफल तरीके से रच पा रहे हैं। उनकी पीढ़ी के अन्‍य फिल्‍मकारों के लिए यह प्रेरक है। हंसल मेहता ने इस बार भी समाज के अल्‍पसंख्‍यक समुदाय के व्‍यक्ति को चुना है। प्रोफेसर सिरस हमारे समय के ऐसे साधारण चरित्र हैं,जो अपनी निजी जिंदगी में एक कोना तलाश कर एकाकी खुशी से संतुष्‍ट रह सकते हैं। किंतु हम पाते हैं कि समाज के कथित संरक्षक और ठेकेदार ऐसे व्‍यक्तियों की जिंदगी तबाह कर देते हैं। उन्‍हें हाशिए पर धकेल दिया जाता है। उन पर उंगलियां उठाई जाती हैं। उन्‍हें शर्मसार किया जाता है। प्रोफेसर सिरस जैसे व्‍यक्तियों की तो चीख भी नहीं सुनाई पड़ती। उनकी खामोशी ही उनका प्रतिकार है। उनकी आंखें में उतर आई शून्‍यता समाज के प्रति व्‍यक्तिगत प्रतिरोध है। प्रोफेसर सिरस अध्‍ययन-अध्‍यापन स