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दरअसल : सच को छूती कहानियां

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-अजय ब्रह्मात्मज हिंदी फिल्मों की एक समस्या रही है कि सच्ची कहानियों पर आधारित फिल्मों के निर्माता-निर्देशक भी फिल्म के आरंभ में डिस्क्लेमर लिख देते हैं कि फिल्म का किसी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है। अगर कोई समानता दिखती है, तो यह महज संयोग है। मजेदार तथ्य यह है कि ऐसे संयोगों पर ही हिंदी फिल्में टिकी हैं। समाज का सच बढ़ा-घटाकर फिल्मों में आता रहता है। चूंकि फिल्म लार्जर दैन लाइफ माध्यम है, इसलिए हमारे आसपास की छोटी-मोटी घटनाएं भी बड़े आकार में फिल्मों को देखने के बाद संबंधित व्यक्तियों की समझ में आता है कि लेखक और निर्देशक ने उसके जीवन के अंशों का फिल्मों में इस्तेमाल कर लिया। फिर शुरू होता है विवादों का सिलसिला। कुछ फिल्मकार आत्मकथात्मक फिल्में बनाते हैं। उनकी फिल्मों का सच व्यक्तिगत और निजी अनुभवों पर आधारित होता है। महेश भट्ट इस श्रेणी के अग्रणी फिल्मकार हैं। अर्थ और जख्म उनके जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं पर केंद्रित हैं। भट्ट ने कभी छिपाया नहीं। उल्टा जोर-शोर से बताया कि फिल्मों में उन्होंने अपने जीवन के अंधेरों और अनुभवों को उद्घाटित किया है। दूसरी तरफ ऐसे फिल्मकार भी