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फिल्‍म समीक्षा : ओके जानू

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फिल्‍म रिव्‍यू ओके जानू -अजय ब्रह्मात्‍मज शाद अली तमिल के मशहूर निर्देशक मणि रत्‍नम के सहायक और शागिर्द हैं। इन दिनों उस्‍ताद और शाग्रिर्द की ऐसी जोड़ी कमू दिखाई देती है। शाइ अली अपने उस्‍ताद की फिल्‍मों और शैली से अभिभूत रहते हैं। उन्‍होंने निर्देशन की शुरूआत मणि रत्‍नम की ही तमिल फिल्‍म के रीमेक ‘ साथिया ’ से की थी। ‘ साथिया ’ में गुलजार का भी यागदान था। इस बार फिर से शाद अली ने अपने उस्‍ताद की फिल्‍म ‘ ओके कनमणि ’ को हिंदी में ‘ ओके जानू ’ शीर्षक से पेश किया है। इस बार भी गुलजार साथ हैं। मूल फिल्‍म देख चुके समीक्षकों की राय में शाद अली ने कुछ भी अपनी तरफ से नहीं जोड़ा है। उन्‍होंने मणि रत्‍नम की दृश्‍य संरचना का अनुपालन किया है। हिंदी रीमेक में कलाकार अलग हैं,लोकेशन में थोड़ी भिन्‍नता है,लेकिन सिचुएशन और इमोशन वही हैं। यों समझें कि एक ही नाटक का मंचन अलग स्‍टेज और सुविधाओं के साथ अलग कलाकारों ने किया है। कलाकरों की अपनी क्षमता से दृश्‍य कमजोर और प्रभावशाली हुए हैं। कई बार सधे निर्देशक साधारण कलाकारों से भी बेहतर अभिनय निकाल लेते हैं। उनकी स्क्रिप्‍ट कलाकारों

हर जिंदगी में है प्रेम का फितूर - अभिेषेक कपूर

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फितूर की कहानी चार्ल्‍स डिकेंस के उपन्यास ग्रेट एक्सपेक्टेशंस पर आधारित है। सोचें कि यह उपन्यास क्लासिक क्यों है ? क्‍योंकि यह मानवीय भावनाओं से परिपूर्ण है। दुनिया में हर आदमी इमोशन के साथ जुड़ जाता है। जब दिल टूटता है तो आदमी अपना संतुलन खो बैठता है। अलग संसार में चला जाता है। पागल हो जाता है। मुझे लगा कि इस कहानी से दर्शक जुड़ जाएंगे। हम ने उपन्‍यास से सार लेकर उसे अपनी दुनिया में अपने तरीके से बनाया है। इस फिल्‍म में व्‍यक्तियों और हालात से बदलते उनके रिश्‍तों की कहानी है। यह फिल्म केवल प्रेम कहानी नहीं है। यह कहानी प्यार के बारे में है। प्यार और दिल टूटने की भावनाएं बार-बार दोहराई जाती हैं। कोई भी इंसान ऐसे मुकामों से गुजरे है तो थोड़ा हिल जाए। आप किसी से प्यार करते हैं तो अपने अंदर किसी मासूम कोने में उसे जगह देते हो। वहां पर वह आकर आपको अंदर से तहस-नहस करने लगता है। वहां पर आपको बचाने के लिए कोई नहीं होता है। वह प्यार आपको इस कदर तोड़ देता है कि आपका खुद पर कंट्रोल नहीं रह जाता। यह दो सौ साल पहले हुआ और दो सौ साल बाद भी होगा । केवलसाल बदलते हैं। मानवीय आचरण नहीं बद

फिल्‍म समीक्षा : दावत-ए-इश्‍क

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-अजय ब्रह्मात्‍मज                 मुमकिन है यह फिल्म देखने के बाद स्वाद और खुश्बू की याद से ही आप बेचैन होकर किसी नॉनवेज रेस्तरां की तरफ भागें और झट से कबाब व बिरयानी का ऑर्डर दे दें। यह फिल्म मनोरंजन थोड़ा कम करती है, लेकिन पर्दे पर परोसे और खाए जा रहे व्यंजनों से भूख बढ़ा देती है। अगर हबीब फैजल की'दावत-ए-इश्क में कुछ व्यंजनों का जिक्र भी करते तो फिल्म और जायकेदार हो जाती। हिंदी में बनी यह पहली ऐसी फिल्म है,जिसमें नॉनवेज व्यंजनों का खुलेआम उल्लेख होता है। इस लिहाज से यह फूड फिल्म कही जा सकती है। मनोरंजन की इस दावत में इश्क का तडक़ा लगाया गया है। हैदराबाद और लखनऊ की भाषा और परिवेश पर मेहनत की गई है। हैदराबादी लहजे पर ज्‍यादा मेहनत की गई है। लखनवी अंदाज पर अधिक तवज्‍जो नहीं है। हैदराबाद और लखनऊ के दर्शक बता सकेंगे उन्हें अपने शहर की तहजीब दिखती है या नहीं? हबीब फैजल अपनी सोच और लेखन में जिंदगी की विसंगतियों और दुविधाओं के फिल्मकार हैं। वे जब तक अपनी जमीन पर रहते हैं, खूब निखरे और खिले नजर आते हैं। मुश्किल और अड़चन तब आती है, जब वे कमर्शियल दबाव में आ