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फिल्म लॉन्ड्री : कैसे और क्यों अपने ही देश में पहचान खोकर हम पराए और शरणार्थी हो गए - संजय सूरी

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कैसे और क्यों अपने ही देश में पहचान खोकर हम पराए और शरणार्थी हो गए - संजय सूरी अजय ब्रह्मात्मज देखते-देखते 20 साल हो गए. 25 जून 1999 को संजय सूरी कि पहली फिल्म ‘प्यार में कभी कभी’ रिलीज़ हुई थी. तब से वह लगातार एक खास लय और गति से हिंदी फिल्मों में दिख रहे हैं. संजय सूरी बताते हैं,’ सच कहूं तो बचपन में कोई प्लानिंग नहीं थी. शौक था फिल्मों का. सवाल उठता था मन में फ़िल्में कैसे बनती हैं? कहां बनती हैं? यह पता चला कि फ़िल्में मुंबई में बनती हैं. मुझे याद है ‘मिस्टर नटवरलाल’ की जब शूटिंग चल रही थी तो उसके गाने ‘मेरे पास आओ मेरे दोस्तों’ में हम लोगों ने हिस्सा लिया था. बच्चों के क्राउड में मैं भी हूं. मेरी बहन भी हैं. मैं उस गाने में नहीं दिखाई पड़ता हूं. मेरी सिस्टर दिखाई पड़ती है. मेरी आंख में चोट लग गई थी तो मैं एक पेड़ के पीछे छुप गया था. रो रहा था. श्रीनगर में फिल्में आती थी तो मैं देखने जरूर जाता था. तब तो हमारा ऐसा माहौल था कि सोच ही नहीं सकते थे कि कभी निकलेंगे यहां से...’

फ़िल्म समीक्षा:सिकंदर

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आतंकवाद के साए में तबाह बचपन -अजय ब्रह्मात्मज निर्देशक पीयूष झा ने आतंकवाद के साए में जी रहे दो मासूम बच्चों की कहानी के मार्फत बड़ी सच्चाई पर अंगुली रखी है। आम जनता ने नुमाइंदे बने लोग कैसे निजी स्वार्थ के लिए किसी का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। सिकंदर मुश्किल स्थितियों में फंसे बच्चे तक ही सीमित नहीं रहती। कश्मीर की बदल रही परिस्थिति में राजनीति के नए चेहरों को भी फिल्म बेनकाब करती है। सिकंदर के मां-बाप को जिहादियों ने मार डाला है। अभी वह अपने चाचा के साथ रहता है। स्कूल में उसके सहपाठी उसे डपटते रहते हैं। फुटबाल के शौकीन सिकंदर की इच्छा है कि वह अपने स्कूल की टीम के लिए चुन लिया जाए। स्कूल में नई आई लड़की नसरीन उसकी दोस्त बनती है। कहानी टर्न लेती है। सिकंदर के हाथ रिवाल्वर लग जाता है। वह अपने सहपाठियों को डरा देता है। रिवाल्वर की वजह से जिहादियों का सरगना उससे संपर्क करता है। वह वाशिंग मशीन खरीदने की उसकी छोटी ख्वाहिश पूरी करने का दिलासा देता है और एक खतरनाक जिम्मेदारी सौंपता है। दिए गए काम के अंजाम से नावाकिफ सिकंदर गफलत में जिहादी सरगना का ही खून कर बैठता है। एक मासूम जिंदगी तबाह होत