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फिल्‍म समीक्षा : कैदी बैंड

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फिल्‍म रिव्‍यू लांचिंग का दबाव कैदी बैंड -अजय ब्रह्मात्‍मज ‘ दो दूनी चार ’ के निर्देशक हबीब फैजल ने यशराज फिल्‍म्‍स की टीम में शामिल होने के बाद ‘ कैदी बैंड ’ के रूप में तीसरी फिल्‍म निर्देशित की है। पहली फिल्‍म में उन्‍होंने जो उम्‍मीदें जगाई थीं,वह लगातार छीजती गई है। इस बार उन्‍होंने अच्‍छी तरह से निराश किया है। उनके ऊपर दो नए कलाकारों को पेश करने की जिम्‍मेदारी थी। इसके पहले ‘ इशकजादे ’ में भी उन्‍होंने दो नए कलाकारों अर्जुन कपूर और परिणीति चोपड़ा को इंट्रोड्यूस किया था। उत्‍तर भारत की पृष्‍छभूमि में बनी ‘ इशकजादे ’ ठीे-ठीक सी फिल्‍म रही थी। ‘ दावत-ए-इश्‍क ’ को वह नहीं संभाल पाए थे। यशराज फिल्‍म्‍स के साथ तीसरी पेशकश में वे असफल रहे। पहली जिज्ञासा यही है कि इस फिल्‍म का नाम कैदी बैंड क्‍यो है ? फिल्‍म में अंडरट्रायल कैदियों के बैंड का नाम ‘ सेनानी बैंड ’ है। फिल्‍म का नाम सेनानी बैंड ही क्‍यों नहीं रखा गया ? वैसे जलर महोदय सेनानी नाम के पीछे जो तर्क देते हैं,वह स्‍वतंत्रता सेनानियों के महत्‍व को नजरअंदाज करता है। जेल से छूटने की आजादी की कोशिश में लगे कैदि

फिल्‍म समीक्षा : फैन

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फैन **** चार स्‍टार पहचान और परछाई के बीच -अजय ब्रह्मात्‍मज यशराज फिल्‍म्‍स की ‘ फैन ’ के निर्देशक मनीष शर्मा हैं। मनीष शर्मा और हबीब फजल की जोड़ी ने यशराज फिल्‍म्‍स की फिल्‍मों को नया आयाम दिया है। आदित्‍य चोपड़ा के सहयोग और समर्थन से यशराज फिल्‍म्‍स की फिल्‍मों को नए आयाम दे रहे हैं। ‘ फैन ’ के पहले मनीष शर्मा ने अपेक्षाकृत नए चेहरों को लेकर फिल्‍में बनाईं। इस बार उन्‍हें शाह रुख खान मिले हैं। शाह रुख खान के स्‍तर के पॉपुलर स्टार हों तो फिल्‍म की कहानी उनके किरदार के आसपास ही घूमती है। मनीष शर्मा और हबीब फैजल ने उसका तोड़ निकालने के लिए नायक आर्यन खन्‍ना के साथ एक और किरदार गौरव चान्‍दना गढ़ा है। ‘ फैन ’ इन्‍हीं दोनों किरदारों के रोचक और रोमांचक कहानी है। मनीष शर्मा की ‘ फैन ’ गौरव चान्‍दना की कहानी है। दिल्‍ली के मध्‍यवर्गीय मोहल्‍ले का यह लड़का आर्यन खन्‍ना का जबरा फैन है। उसकी जिंदगी आर्यन खन्‍ना की धुरी पर नाचती है। वह उनकी नकल से अपने मोहल्‍ले की प्रतियोगिता में विजयी होता है। उसकी ख्‍वाहिश है कि एक बार आर्यन खन्‍ना से पांच मिनट की मुलाकात हो जाए तो उसक

फिल्‍म समीक्षा : दावत-ए-इश्‍क

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-अजय ब्रह्मात्‍मज                 मुमकिन है यह फिल्म देखने के बाद स्वाद और खुश्बू की याद से ही आप बेचैन होकर किसी नॉनवेज रेस्तरां की तरफ भागें और झट से कबाब व बिरयानी का ऑर्डर दे दें। यह फिल्म मनोरंजन थोड़ा कम करती है, लेकिन पर्दे पर परोसे और खाए जा रहे व्यंजनों से भूख बढ़ा देती है। अगर हबीब फैजल की'दावत-ए-इश्क में कुछ व्यंजनों का जिक्र भी करते तो फिल्म और जायकेदार हो जाती। हिंदी में बनी यह पहली ऐसी फिल्म है,जिसमें नॉनवेज व्यंजनों का खुलेआम उल्लेख होता है। इस लिहाज से यह फूड फिल्म कही जा सकती है। मनोरंजन की इस दावत में इश्क का तडक़ा लगाया गया है। हैदराबाद और लखनऊ की भाषा और परिवेश पर मेहनत की गई है। हैदराबादी लहजे पर ज्‍यादा मेहनत की गई है। लखनवी अंदाज पर अधिक तवज्‍जो नहीं है। हैदराबाद और लखनऊ के दर्शक बता सकेंगे उन्हें अपने शहर की तहजीब दिखती है या नहीं? हबीब फैजल अपनी सोच और लेखन में जिंदगी की विसंगतियों और दुविधाओं के फिल्मकार हैं। वे जब तक अपनी जमीन पर रहते हैं, खूब निखरे और खिले नजर आते हैं। मुश्किल और अड़चन तब आती है, जब वे कमर्शियल दबाव में आ

फिल्‍म समीक्षा : इशकजादे

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मसालेदार फार्मूले में रची -अजय ब्रह्मात्‍मज एक काल्पनिक बस्ती है अलमोर। लखनऊ के आसपास कहीं होगी। वहां कुरैशी और चौहान परिवार रहते हैं। जमींदार,जागीरदार और रईस तो अब रहे नहीं,इसलिए सुविधा के लिए उन्हें राजनीति में दिखा दिया गया है। कुरैशी परिवार के मुखिया अभी एमएलए है। चुनाव सिर पर है। चौहान इस बार बाजी मारना चाहते हैं। मजेदार है कि दोनों निर्दलीय हैं। देश में अब कौन से विधान सभा क्षेत्र बचे हैं,जहां राजनीतिक पाटियों का दबदबा न हो? निर्दलियों के जीतने के बाद भी उनके झंडे और नेता तो नजर आने चाहिए थे। देश में समस्या है कि काल्पनिक किरदारों को किसी पार्टी का नहीं बताया जा सकता। कौन आफत मोल ले? दोनों दुश्मन परिवारों के नई पीढ़ी जवान हो चुकी है। इशकजादे का नायक चौहान परिवार का है और नायिका कुरैशी परिवार की। यहां से कहानी शुरू होती है। परमा और जोया लंपट और बदतमीज किस्म के नौजवान हैं। हिंदी फिल्मों के नायक-नायिका के प्रेम के लिए जरूरी अदतमीजी में दोनों काबिल हैं। उन्हें कट्टे और पिस्तौल से प्यार है। मनमानी करने में ही उनकी मौज होती है। दोनों परिवारों में बच्चों को बचपन स