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हिंदी टाकीज 2(11) : आज नदी पार वाले गांव में पर्दा वाला सिनेमा लगेगा - जनार्दन पांडेय

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परिचय जनार्दन पांडेय एक आम सिनेमा दर्शक है। उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में पला-बढ़ा। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में स्नातक करने के बाद हिन्दुस्तान हिन्दी दैनिक से जुड़ा। उसके बाद अमर उजाला डॉट कॉम से जुड़ा। वहां तीन साल काम करने के बाद अब अपनी वेबसाइट www.khabarbattu.com में कार्यरत।   सिनेमा में नशा है, जो मुझे चढ़ता है। जी होता है, एक के बाद एक तब देखता रहूं, जब तक दिमाग और आंखें जवाब न दे जाएं। लेकिन नशा तो आखिर में नशा है, बुरा ही माना जाएगा। चाहे किसी बात का हो। मम्मी ने पीट-पीट कर समझाया पर मैं समझा नहीं। मेरा घर उत्तर प्रदेश के उस जिले में हैं जो यूपी को मध्य प्रदेश-झारखंड से जोड़ता है। मेरा गांव एक संपूर्ण गांव है। किसी एक के घर में कोई घटना-दुघर्टना होती है पूरे गांव के ‌लिए अगले 10 दिनों तक वही मुद्दा होता है। राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की मौत की खबर 6 दिन बाद पहुंचती है। पठानकोट में हमला हुआ तो छनते-छनते यह खबर दो-चार दिन बाद पहुंचती है। और इसके मायने यही निकाले जाते हैं कि पूछो 'राहुल के पापा ठीक हैं न वो भी बॉर्डर पर हैं

जीवन के फ्लैशबैक में सिने-प्रेम -विवेक भटनागर

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आज चालीस की उम्र पार चुके फिल्मप्रेमी जब अपने जीवन में पीछे मुड़कर देखते हैं, तो उन्हें फिल्मों के प्रति उनकी दीवानगी और घरवालों की बंदिशों के बीच तमाम रोचक प्रसंग याद आ जाते हैं। इन्हींदिलचस्प संस्मरणों को समेटा गया है हाल में प्रकाशित 'सिनेमा मेरी जान' में... विवेक भटनागर सिनेमा हमेशा से सामान्य लोगों के लिए जादू की दुनिया रहा है। तीन-चार दशक पहले तो यह जादू सिर चढ़कर बोलता था, क्योंकि उस समय मनोरंजन का एकमात्र सस्ता और आधुनिक साधन फिल्में थीं। दूसरे टाकीजों का रिक्शों पर लाउड स्पीकर पर रोचक ढंग से प्रचार, फिल्म का प्रमुख सीन समेटे पेंटिंग-पोस्टर, बाजार में फिल्म की कहानी, डायलॉग और उसके गानों से सजी आठ-दस पेज की चौपतिया का बिकना भी उस दौर के बच्चों और युवाओं का ध्यान फिल्मों की ओर खींचते थे। इसके अलावा फिल्म देखकर आए फिल्मी सहपाठियों का बड़े रोचक ढंग से कहानी सुनाने, मुंह से ढिशुं-ढिशुं... ढन..ढन...निकालने का अंदाज भी फिल्मों की ओर खींचता था। उस दौर में, सच में यह जादू ही था, जिसके मायाजाल में बच्चे न फंस सकेें, इसके सारे प्रयोजन घर के बड़े-बुजुर्ग

हिंदी टाकीज 2(8) : यादों के गलियारों से... -वर्षा गोरछिया 'सत्‍या'

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इस बार वर्षा गोरछिया 'सत्‍या' अपनी यादों के गलियारों से सिनेमा के संस्‍मरण लेकर लौटी हैं। फतेहाबाद,हरियाणा में पैदा हुई वर्षा ने पर्यटन प्रबंधन में स्‍नातक किया है। बचपन से सिनेमा की शौकीन वर्षा ने अपनी यादों को पूरी अंतरंगता से संजोया है। फिलहाल वह गुड़गांव में रहती हैं। हरियाणा की वर्षा के सिनेमाई अनुभवों में स्‍थानीय रोचकता है। रविवार का दिन है, शाम के वक़्त बच्चे काफी शोर कर रहे हैं ।   कुछ बच्चे बबूल (कीकर) के पेड़ पर चढ़े हुए हैं ।   कुछ जड़ों को काटने के लिए खोदे गए गड्ढे में कुछ अजीब ढंग के लाल-पीले चश्मा लगाकर, गर्दन हिलाकर चिल्ला रहे हैं “दम मारो दम,मिट जाए गम, बोलो सुबहो शाम..”, तभी एक बच्चा बबूल के पेड़ के किसी ऊंची डाल पर से बोलता है “बसंती, इन कुत्तों के सामने मत नाचना..” ।   एक छोटी सी लड़की ने एक डंडा गिटार की तरह पकड़ रखा है और फ्लिम “यादों की बारात” का गाना “चुरा लिया है तुमने..” गा रही है ।   इसी तरह अलग-अलग बच्चे अपनी-अपनी पसंदीदा फिल्मों या कलाकारों की नक़ल करने में लगे हुए हैं ।   ये सब मैं कोई नाटक का दृश्य बयान नहीं कर रही बल्कि अपनी बचपन

सिनेमा मेरी जान की भूमिका

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सिनेमा मेरी जान आ गयी। इसमें अंजलि कुजूर, अनुज खरे, अविनाश, आकांक्षा पारे, आनंद भारती, आर अनुराधा, गिरींद्र, गीता श्री, चंडीदत्त शुक्‍ल, जीके संतोष, जेब अख्‍तर, तनु शर्मा, दिनेश श्रीनेत, दीपांकर गिरी, दुर्गेश उपाध्‍याय, नचिकेता देसाई, निधि सक्‍सेना, निशांत मिश्रा, नीरज गोस्‍वामी, पंकज शुक्‍ला, पूजा उपाध्‍याय, पूनम चौबे, मंजीत ठाकुर, डॉ मंजू गुप्‍ता, मनीषा पांडे, ममता श्रीवास्‍तव, मीना श्रीवास्‍तव, मुन्‍ना पांडे (कुणाल), यूनुस खान, रघुवेंद्र सिंह, रवि रतलामी,रवि शेखर, रश्मि रव ीजा, रवीश कुमार, राजीव जैन, रेखा श्रीवास्‍तव, विजय कुमार झा, विनीत उत्‍पल, विनीत कुमार, विनोद अनुपम, विपिन चंद्र राय, विपिन चौधरी, विभा रानी, विमल वर्मा, विष्‍णु बैरागी, सचिन श्रीवास्‍तव, सुदीप्ति, सुयश सुप्रभ, सोनाली सिंह, शशि सिंह, श्‍याम दिवाकर और श्रीधरम शामिल हैं। सभी लेखक मित्रों से आग्रह है कि वे अपना डाक पता मुझे इनबॉक्‍स या मेल में भेज दें। प्रकाशक ने आश्‍वस्‍त किया है कि सभी को प्रति भेज दी जाएगी। बाकी मित्र शिल्‍पायन प्रकाशन से किताब मंगवा सकते हैं। पता है- शिल्‍पायन,10295,लेन नंबर-1,व

हिंदी टाकीज 2 (5) : सिनेमा विनेमा से सिनेमा सिनेमा तक.... :प्रतिभा कटियार

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हिंदी टाकीज सीरिज में इस बार प्रतिभा कटियार। उन्‍होंने मेरा आग्रह स्‍वीकार किया और यह संस्‍मरण लिखा। प्रतिभा को मैं पढ़ता रहा हूं और उनकी गतिविधियों से थोड़ा-बहुत वाकिफ रहा हूं। वह निरंतर लिख रही हैं। उन्‍होंने साहित्‍य और पत्रकारिता की भिन्‍न विधाओं में लेखन किया है। उनका यह संस्‍मरण नौवें दशक के आखिरी सालों और पिछली सदी के अंतिम दशक में लखनऊ की किशोरियों और युवतियों के सिनेमाई व्‍यवहार की भी झलक देता है। यह संस्‍मरण सिनेमा के साथ प्रतिभा कटियार के गाढ़े होते संबंध की भी जानकारी देता है। - प्रतिभा कटियार  स्मृतियों का कुछ पता नहीं कब किस गली का फेरा लगाने पहुंच जायें और जाने क्या-क्या न खंगालने लगें। ऐसे ही एक रोज सिनेमा की बात चली तो वो बात जा पहुंची बचपन की उन गलियों में जहां यह तक दर्ज नहीं कि पहली फिल्म कौन थी।  भले ही न दर्ज हो किसी फिल्म का नाम लेकिन सिनेमा की किसी रील की तरह मेरी जिंदगी में सिनेमा की आमद, बसावट और उससे मुझ पर पड़े असर के न जाने कितने पन्ने फड़फडाने लगे।  महबूब सी आमद- कनखियों से इधर-उधर देखता, छुपते-छुपाते, सहमते हुए डरते हुए से दाखिल