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फिल्‍म समीक्षा : द शौकीन्‍स

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  ' अजय ब्रह्मात्‍मज  किसी पुरानी फिल्म पर कोई नई फिल्म बनती है तो हम पहले ही नाक-भौं सिकोडऩे लगते हैं। भले ही अपने समय में वह फिल्म साधारण रही हो, लेकिन रीमेक की संभावना बनते ही पुरानी फिल्म क्लासिक हो जाती है। इस लिहाज से देखें तो बासु भट्टाचार्य की 'शौकीन' ठीक-ठाक फिल्म थी। उसे क्लासिक कहना उचित नहीं होगा। बहरहाल, पिछली फिल्म बंगाली लेखक समरेश बसु की कहानी पर आधारित थी। उसकी पटकथा बासु भट्टाचार्य और केका चटर्जी ने मिल कर लिखी थी। उसके संवाद हिंदी के मशहूर साहित्यकार शानी ने लिखी थी। फिल्म में अशोक कुमार, उत्पल दत्त और एके हंगल जैसे उम्दा कलाकार थे। इस बार फिल्म की कहानी,पटकथा और संवाद के क्रेडिट में तिग्मांशु धूलिया का नाम है। इसे निर्देशित किया है अभिषेक शर्मा ने। फिल्म की नायिका लीजा हेडन को अलग कर दें तो यह एनएसडी से निकली प्रतिभाओं की फिल्म है। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में एनएसडी की प्रतिभाओं के योगदान का आकलन अभी तक नहीं हुआ है। गौर करें तो इन प्रतिभाओं ने एक्टिंग की प्रचलित शैली को प्रभावित किया है। लेखन और निर्देशन में भी नई धाराएं खोल

फिल्‍म स्‍मरण : सारांश

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सुकन्‍या वर्मा का यह लेख रिडीफ से लिया गया है। सुकन्‍या ने इतने बेहतरीन तरीके से महेश भट्ट की 'सारांश' के बारे में बताया है कि फिल्‍म की सारी विशेषताएं स्‍पष्‍ट हो जाती हैं। मूल लेख यहां है। चवन्‍नी के आग्रह पर अमित जैन,सुजीत सिन्‍हा,देदीप्‍य भानु ,इरशाद अली और स्मिता सिंह ने अपनी पसंद और राय रखी थी।  Mahesh Bhatt’s finest film Saaransh , which celebrates its 30th anniversary on May 25, isn’t comfort cinema but it is certainly a must-watch. A n elderly man wakes up early morning, draws out his desk and begins writing a letter to his son residing in the United States.  The mail isn’t a fancy exercise in eloquence but its simplicity conveys a father’s love, concern and commitment towards his only child until he's stirred up by a crushing realisation -- his young son is dead, he’s been dead for three months following a mugging incident on the streets of New York.  He may be no more but those he’s left behind aren’t exactly alive either. They merely exist min

फिल्‍म समीक्षा : गैंग्‍ा ऑफ घोस्‍ट्स

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-अजय ब्रह्मात्‍मज  सतीश कौशिक को रीमेक फिल्मों का उस्ताद निर्देशक कहा जा सकता है। आम तौर पर वे दक्षिण भारत की फिल्मों की रीमेक निर्देशित करते रहे हैं। इस बार उन्होंने अंकित दत्ता की बंगाली फिल्म 'भूतेर भविष्यत' को हिंदी में 'गैंग ऑफ घोस्ट्स' नाम से बनाया है। हिंदी फिल्म के मिजाज के मुताबिक उन्होंने मूल फिल्म में थोड़ा बदलाव किया है। देश भर के दर्शकों को रिझाने की फिक्र में उन्होंने विषय और प्रस्तुति का गाढ़ापन छोड़ दिया है। फिल्म थोड़ी हल्की हो गई है, फिर भी विषय की नवीनता और सिद्ध कलाकारों के सहयोग से मनोरंजन करने में सफल रहती है। 'गैंग ऑफ घोस्ट्स' भूतों के भविष्य के बहाने शहरी समाज के वर्तमान की कहानी है। मुंबइ में मॉल और मल्टीप्लेक्स कल्चर आने के बाद पुराने बंगले और मिल टूटते जा रहे हैं। उजाड़ बंगलों को अपना डेरा बनाए भूतों की रिहाइश का संकट बढ़ता जा रहा है। ऐसे में भूत संगठित होकर कुछ करना चाहते हैं। 'रागिनी एमएमस-2' की तरह यहां भी एक फिल्म बनती है, जिसमें भूतों का एक प्रतिनिधि ही लेखक बन जाता है। वह अपने समय के किरदारों की भूतिया

फिल्‍म समीक्षा : स्‍पेशल छब्‍बीस

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-अजय ब्रह्मात्मज तकरीबन 25 साल पहले साधारण और सामान्य परिवारों से आए चार व्यक्ति मिल कर देश भर में भ्रष्ट लोगों को लूटने और ठगने के काम में सफल रहते हैं। अपने अंतिम मिशन में वे 'स्पेशल छब्बीस' टीम बनाते हैं और अलर्ट सीबीआइ ऑफिसर वसीम (मनोज बाजपेयी) की आंखों में धूल झोंकने में सफल होते हैं। 'ए वेडनेसडे' से विख्यात हुए नीरज पांडे की दूसरी फिल्म है 'स्पेशल छब्बीस'। पिछली बार विषय और शिल्प दोनों में संजीदगी थी। इस बार विषय हल्का है। उसकी वजह से शिल्प अधिक निखर गया है। अजय (अक्षय कुमार), शर्माजी (अनुपम खेर), जोगिन्दर (राजेश शर्मा) और इकबाल (किशोर कदम) देश के चार कोनों में बसे ठग हैं। चारों अपने परिवारों में लौटते हैं तो हम पाते हैं कि वे आम मध्यमवर्गीय परिवारों से हैं। अमीर बनने का अपने हिसाब से उन्होंने ठगी का सुरक्षित रास्ता चुना है। वे बड़ी सफाई से अपना काम करते हैं। कोई सुराग नहीं छोड़ते। फिल्म में उनकी तीन ठगी दिखाई गई है, लेकिन अपनी 50वीं ठगी के लिए उन्होंने 'स्पेशल छब्बीस' का गठन किया है। बड़ा हाथ मार कर वे चैन की जिंदगी जीना चाहते हैं।

फिल्‍म समीक्षा : जोकोमोन

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-अजय ब्रह्मात्‍मज अपने चाचा देशराज की दया और सहारे पल रहे कुणाल को जब यह एहसास होता है कि वह भी ताकतवर हो सकता है और अपने प्रति हुए अन्याय को ठीक कर सकता है तो मैजिक अंकल की मदद से वह चाइल्ड सुपरहीरो जोकोमोन का रूप ले लेता है। सत्यजित भटकल की ईमानदार दुविधा फिल्म में साफ नजर आती है। वे कुणाल को चमत्कारिक शक्तियों से लैस नहीं करना चाहते। वे उसे साइंटिफिक टेंपर के साथ सुपरहीरो बनाते हैं। उन्होंने कुणाल के अंदरुनी ताकत को दिखाने के लिए कहानी का पारंपरिक ढांचा चुना है। एक लालची और दुष्ट चाचा है, जो अपनी पत्नी की सलाह पर कुणाल से छुटकारा पाकर उसके हिस्से की संपत्ति हड़पना चाहता है। अपनी साजिश में वह गांव के पंडित का सहयोग लेता है। वह अंधविश्वास पर अमल करता है। जोकोमोन बने कुणाल की एक कोशिश यह भी कि वह अपने गांव के लोगों को अंधविश्वास के कुएं से बाहर निकाले। चाचा को तो सबक सिखाना ही है। इन दोनों कामों में उसे मैजिक अंकल की मदद मिलती है। मैजिक अंकल साइंटिस्ट हैं। वे साइंस के सहारे कुणाल के मकसद पूरे करते हैं। सत्यजित भटकल की तारीफ करनी होगी कि बच्चों के मनोरंजन के उद्देश्य स