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बी आर चोपड़ा का सफ़र-प्रकाश के रे

भाग-7 नया दौर (1957) बी आर चोपड़ा की सबसे लोकप्रिय फ़िल्म है. इस फ़िल्म को न सिर्फ़ आजतक पसंद किया जाता है, बल्कि इसके बारे में सबसे ज़्यादा बात भी की जाती है. नेहरु युग के सिनेमाई प्रतिनिधि के आदर्श उदाहरण के रूप में भी इस फ़िल्म का ज़िक्र होता है. पंडित नेहरु ने भी इस फ़िल्म को बहुत पसंद किया था. लेकिन इस फ़िल्म को ख़ालिस नेहरूवादी मान लेना उचित नहीं है. जैसा कि हम जानते हैं नेहरु औद्योगिकीकरण के कट्टर समर्थक थे और बड़े उद्योगों को 'आधुनिक मंदिर' मानते थे, लेकिन यह फ़िल्म अंधाधुंध मशीनीकरण पर सवाल उठती है. और यही कारण है कि इसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है. बरसों बाद एक साक्षात्कार में चोपड़ा ने कहा था कि तब बड़े स्तर पर मशीनें लायी जा रही थीं और किसी को यह चिंता न थी कि इसका आम आदमी की ज़िंदगी पर क्या असर होगा. प्रगति के चक्के के नीचे पिसते आदमी की फ़िक्र ने उन्हें यह फ़िल्म बनाने के लिये उकसाया. फ़िल्म की शुरुआत महात्मा गांधी के दो कथनों से होती है जिसमें कहा गया गया है कि मशीन मनुष्य के श्रम को विस्थापित करने और ताक़त को कुछ लोगों तक सीमित कर देने मात्र का साधन नहीं होनी

बी आर चोपड़ा का सफ़र- प्रकाश के रे

भाग- छह 1951 की फ़िल्म जांच समिति ने सिर्फ़ फ़िल्म उद्योग की दशा सुधारने के लिये सिफ़ारिशें नहीं दी थी, जैसा कि पिछले भाग में उल्लिखित है, उसने फ़िल्म उद्योग को यह सलाह भी दी कि उसे 'राष्ट्रीय संस्कृति, शिक्षा और स्वस्थ मनोरंजन' के लिये काम करना चाहिए ताकि 'बहुआयामीय राष्ट्रीय चरित्र' का निर्माण हो सके. यह सलाह अभी-अभी आज़ाद हुए देश की ज़रूरतों के मुताबिक थी और बड़े फ़िल्मकारों ने इसे स्वीकार भी किया था. बी आर चो पड़ा भी सिनेमा को 'देश में जन-मनोरंजन और शिक्षा का साधन तथा विदेशों में हमारी संस्कृति का दूत' मानते थे. महबूब, बिमल रॉय और शांताराम जैसे फ़िल्मकारों से प्रभावित चोपड़ा का यह भी मानना था कि फ़िल्में किसी विषय पर आधारित होनी चाहिए. अ पनी बात को लोगों तक पहुंचाने के लिये उन्होंने ग्लैमर और मेलोड्रामा का सहारा लिया. निर्माता-निर्देशक के बतौर अ पनी पहली फ़िल्म एक ही रास्ता में उन्होंने विधवा-विवाह के सवाल को उठाया. हिन्दू विधवाओं के विवाह का कानून तो 1856 में ही बन चुका था लेकिन सौ बरस बाद भी समाज में विधवाओं की बदतर हालत भारतीय सभ्यता के दावों पर प्रश्नच

बी आर चोपड़ा का सफ़र- प्रकाश के रे

भाग -5 बी आर चोपड़ा के साथ आगे बढ़ने से पहले 1950 के दशक में फ़िल्म-उद्योग की दशा का जायजा ले लिया जाये. 1951 में सरकार द्वारा गठित फ़िल्म जांच आयोग ने फ़िल्म-उद्योग में व्याप्त अराजकता के ख़ात्मे के लिये एक परिषद् बनाने की सिफ़ारिश की थी. कहा गया कि यह केन्द्रीय परिषद् सिनेमा से संबंधित हर बात को निर्धारित करेगा. लेकिन इस दिशा में कुछ भी नहीं हो पाया और पुरानी समस्याओं के साथ नयी समस्याओं ने भी पैर पसारना शुरू कर दिया. स्टार-सिस्टम भी इन्हीं बीमारियों में एक था. आम तौर पर स्टार मुख्य कलाकार होते थे, लेकिन कुछ गायक और संगीतकार भी स्टार की हैसियत रखते थे. ये स्टार फ़िल्म के पूरे बजट का आधा ले लेते थे. तत्कालीन फ़िल्म उद्योग पर विस्तृत अध्ययन करनेवाले राखाल दास जैन के अनुसार 1958 आते-आते स्टार 1955 के अपने मेहनताने का तीन गुना लेने लगे थे. हालत यह हो गयी थी कि बिना बड़े नामों के फिल्में बेचना असंभव हो गया था और वितरकों को आकर्षित करने के लिये निर्माता महत्वाकांक्षी फिल्में बनाने की घोषणा करने लगे थे. इस स्थिति के प्रमुख कारण थे- स्वतंत्र निर्माताओं की बढ़ती संख्या, काले धन की भारी आमद, ब