फिल्म समीक्षा : शांघाई -रवीश कुमार
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रवीश कुमार की यह समीक्षा उनके ब्लॉग कस्बा से चवन्नी के पाठकों के लिए... प्रगति का कॉलर ट्यून है शांघाई शांघाई। जय प्रगति,जय प्रगति,जय प्रगति। राजनीति में विकास के नारे को कालर ट्यून की तरह ऐसे बजा दिया है दिबाकर ने कि जितनी बार जय प्रगति की आवाज़ सुनाई देती यही लगता है कि कोई रट रहा है ऊं जय शिवाय ऊं जय शिवाय । अचानक बज उठी फोन की घंटी के बाद जय प्रगति से नमस्कार और जय प्रगति से तिरस्कार। निर्देशक दिबाकर स्थापित कर देते हैं कि दरअसल विकास और प्रगति कुछ और नहीं बल्कि साज़िश के नए नाम हैं। फिल्म का आखिरी शाट उन लोगों को चुभेगा जो व्यवस्था बदलने निकले हैं लेकिन उन्हीं से ईमानदारी का इम्तहान लिया जाता है। आखिरी शाट में प्रसनजीत का चेहरा ऐसे लौटता है जैसे आपको बुला रहा हो। कह रहा हो कि सिस्टम को बदलना है तो मरना पड़ेगा। लड़ने से कुछ नहीं होगा। उससे ठीक पहले के आखिरी शाट में इमरान हाशमी को अश्लील फिल्में बनाने के आरोप में जेल भेज दिया जाता है। कल्की अहमदी पर किताब लिखती है जो भारत में बैन हो जाती है। अहमदी की मौत के बाद उसकी पत्नी चुनावी मैदान में उतर आती है। अहमदी