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विभाजन-आलोक धन्‍वा

तहलका में छपी आलोक धन्‍वा की इस कविता का संबंध फिल्‍मों से भी है। अआप पढ़ें और स्‍वयं समझें। -आलोक धन्‍वा  'गरम हवा’ में आखिरी बार देखा बलराज साहनी को जिसे खुद बलराज साहनी नहीं देख पाए जब मैंने पढ़ी किताब भीष्म साहनी की लिखी ‘मेरा भाई बलराज’ तो यह जाना कि हमारे इस महान अभिनेता के मन में कितना अवसाद था वे शांतिनिकेतन में प्रोफेसर भी रहे और गांधी के वर्धा आश्रम में भी रहे गांधी के कहने पर उन्होंने बीबीसी लंदन में भी काम किया लेकिन उनके मन की अशांति उनके रास्तों को बदलती रही जब वे बंबई के पृथ्वी थियेटर में आए इप्टा के नाटकों में काम करने जहां उनकी मुलाकात हुई ए.के. हंगल और दूसरे कई बड़े अभिनेताओं और पटकथा लेखकों और शायरों से दो बीघा जमीन में काम करते हुए बलराज साहनी ने देखा फिल्मों और समाज के किरदारों के जटिल रिश्तों को धीरे-धीरे वे अपने भीतर की दुनिया से बाहर बन रहे नए समाज के बीच आने-जाने लगे वे अक्सर पाकिस्तान में मौजूद अपने घर के बारे में सोचते थे और एक बार गए भी वहां लेकिन लौटकर बंबई आना ही था अपने आखिरी दिनों में वे फिल्मों के आ

बलराज साहनी- जो बात तुझमें है तेरी तस्वीर में नहीं: चंदन श्रीवास्तव

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चंदन श्रीवास्‍तव का यह लेख तिरछी स्‍पेलिंग से संरक्षित किया गया है। उन्‍होंने इस लेख में चवन्‍नी चैप से उद्धरण लिए हैं।  -चंदन श्रीवास्तव अभिनय महान कहलाएगा बशर्ते अभिनेता किरदार को ऐसे निभाये कि उसका अपना व्यक्तित्व तिरोहित हो जाय, वह ना रहे, निभाया गया किरदार ही रहे। इस पंक्ति को पढ़कर किसी को कबीर याद आ जायें तो क्या अचरज- ‘जब मैं था तब हरि नहीं- अब हरि हैं हम नाहीं ’! अचरज कीजिए कि बलराज साहनी के अभिनय की ऊंचाई को ठीक-ठीक इसी कसौटी पर महान ठहराया जाता है, यह भूलते हुए कि कबीर का समय बलराज साहनी के समय से अलग है, और ठीक इसीलिए 15 वीं सदी के भक्त का अपनी भाव-वस्तु से जो तादात्म्य संभव रहा होगा वह शायद बीसवीं सदी के किसी अभिनेता का अपने किरदार के साथ संभव ना भी हो । आख़िर चेतना का वस्तूकरण, व्यक्तित्व का विघटन, संवेदना का विच्छेद जैसे पद बीसवीं सदी के मनुष्य को समझने-समझाने की गरज से आये थे। अचरज कीजिए कि खुद बलराज साहनी ने भी अपनी तरफ़ से अभिनय की महानता की कसौटी प्रस्तुत करने की कोशिश की तो किरदार के साथ अभिनेता के एकात्म को ज़रुरी शर्त माना, भले ही अभिनय

गर्म हवा की यादें

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एम एस सथ्यू -अजय ब्रह्मात्मज     विभाजन के बाद देश जिस त्रासदी से गुजरा, उसका धर्म से सीधा रिश्ता नहीं है। हम सभी समान मुख्यधारा के हिस्से हैं। भले ही किसी समुदाय, जाति या धर्म के हों। जरूरी है कि मुख्यधारा का हिस्सा बनें। ‘गर्म हवा’ में सलीम मिर्जा के जरिए यही सरल संदेश दिया गया है। अल्पसंख्यकों को अल्पसंख्यक की तरह नहीं देखें। वे मुख्यधारा का हिस्सा हैं।     हम फिर से फिल्म को रिलीज करना चाहते हैं। हम ने फिल्म को रीस्टोर किया है। इसे डिजीटली रीस्टोर किया गया है। साउंड भी डॉल्वी डिजिटल में कंवर्ट किया गया है। जल्दी ही फिल्म और डीवीडी रिलीज करेंगे। अभी जो भी डीवीडी बाजार में या निजी संग्रह में हैं, वे सभी पायरेटेड हैं। फिल्म का प्रिंट इंग्लैंड या खाड़ी देशों में भेजते ही पायरेटेड हो जाते हैं। हम कुछ भी नहीं कर पाते।     मैंने बहुत कम पैसों में फिल्म बनाई थी। मुझे केवल 2 लाख 49 हजार रुपए मिले थे। इतने ही पैसों में हम ने शूटिंग पूरी की। सिर्फ एक कैमरा और एक लेंस था हमारे पास। हमारे पास इतने पैसे नहीं थे कि आगरा में शूटिंग के दौरान साउंड रिकॉर्ड कर सकें। पूरी फिल्म मेरे एडीटर चक्रवर्

क्‍लासिक फिल्‍म : गर्म हवा

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 15 वें मुंबई फिल्‍म फेस्टिवल के लिए लिखा यह विशेष लेख वहां अनूदित होकर अग्रेजी में प्रकाशित हुआ है। चवन्‍नी के पाठकों के लिए मूल लेख प्रस्‍तुत है। आप बताएं कि और किन फिल्‍मों पर ऐसे लेख पढ़ना चाहते हैं। इरादा है कि खास फिल्‍मों पर विस्‍तार से लिखा जाए। -अजय ब्रह्मात्‍मज       सन् 1973 में आई एम एस सथ्यू की ‘ गर्म हवा ’   का हिंदी सिनेमा के इतिहास में खास महत्व है। यह फिल्म बड़ी सादगी और सच्चाई से विभाजन के बाद देश में रह गए मुसलमानों के द्वंद्व और दंश को पेश करती है। कभी देश की राजधानी रहे आगरा के ऐतिहासिक वास्तु शिल्प ताजमहल और फतेहपुर सिकरी के सुंदर , प्रतीकात्मक और सार्थक उपयोग के साथ यह मिर्जा परिवार की कहानी कहती है।       हलीम मिर्जा और सलीम मिर्जा दो भाई हैं। दोनों भाइयों का परिवार मां के साथ पुश्तैनी हवेली में रहता है। हलीम मुस्लिम लीग के नेता हैं और पुश्तैनी मकान के मालिक भी। सलीम मिर्जा जूते की फैक्ट्री चलाते हैं। सलीम के दो बेटे हैं बाकर और सिकंदर। एक बेटी भी है अमीना। अमीना अपने चचेरे भाई कासिम से मोहब्बत करती है। विभाजन की वजह से उनकी मोहब्बत कामयाब नहीं ह

बलराज साहनी पर विष्णु खरे

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चवन्‍नी के पाठकों के लिए बुद्धू-बक्‍सा से साभार...  [शायद मुट्ठी भर से भी कम लोगों को इसका भान होगा कि ठीक आज से बलराज साहनी की जन्मशती शुरू हो रही है. इस मौके पर विष्णु खरे ने एक बहुत संगठित और जानकारियों से भरा हुआ आलेख लिखा है, जो आज के 'नवभारत टाईम्स' में प्रकाशित है. हिन्दी सिनेमा के ठप्पों को बेहद लफ्फाज़ी और बेतुके तरीकों से याद करने का प्रचलन हिन्दी में चल पड़ा है, जिससे सिनेमा लेखन का जो नुकसान होना होता है वह हो ही रहा है, साथ ही साथ सिनेमा का भी हो रहा है. फ़िर भी, इस विषयान्तर तर्क को सही मानते हुए बुद्धू-बक्सा विष्णु खरे की इस अनन्य अनुमति को आभार के साथ आपके साथ साझा करता है.] संभव है आज की औसत युवा पीढ़ी उनका नाम और चेहरा न जानती हो, शायद जानना भी न चाहती हो क्योंकि उसके काबिल न हो, लेकिन चालीस साल पहले, जब वह साठ वर्ष के होने ही जा रहे थे, बल्रराज साहनी (1 मई 1913 – 13 अप्रैल 1973) के नितांत असामयिक और अन्यायपूर्ण निधन ने देश के करोड़ों सिने-दर्शकों को स्तब्ध और बेहद रंज़ीदा कर दिया था. त्रासद विडंबना यह थी कि एम.एस.सत्यु की कालजयी फिल्म “गर्म

Artist’s domain is his work’-Balraj Sahni

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आज बलराज साहनी का जन्‍मदिन है। 1972 में उन्‍होंने जवाहर लाल नेहरू विश्‍वविद्यालय के दीक्षांत समारोह को संबोधित किया था। प्रकाश के रे ने इसे बरगद पर शेयर किया है। व‍हीं से इसे चवन्‍नी के पाठकों के लिए लिया जा रहा है। Balraj Sahni (1 May 1913–13 April 1973) was one of the most respectable film and theatre personalities of India.  This is the reproduction of his address delivered at Jawaharlal Nehru University (New Delhi) Convocation in 1972. We are grateful to Prof Chaman Lal, Jawaharlal Nehru University for making this text available. Balraj Sahni About 20 years ago, the Calcutta Film Journalists’ Association decided to honour the late Bimal Roy, the maker of Do Bigha Zameen, and us, his colleagues. It was a simple but tasteful ceremony. Many good speeches were made, but the listeners were waiting anxiously to hear Bimal Roy. We were all sitting on the floor, and I was next to Bimal Da. I could see that as his turn approached he became incr